सवालों में हसदेव अरण्य में परसा कोल ब्लॉक को मिली दूसरे चरण की स्वीकृति

हसदेव अरण्य को बचाने के लिए आदिवासी 300 किमी का सफर पैदल चलकर रायपुर पहुंचे थे, जहां राज्य के मुख्यमंत्री ने फर्जी ग्राम सभा की जांच करने का आश्वासन दिया था

By Satyam Shrivastava

On: Saturday 23 October 2021
 
Photo: twitter@yashmarwah

दुनिया के अग्रिमपंक्ति के जन नेताओं में शुमार क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता ब्लादिमीर लेनिन लोकतन्त्र को पूंजी के लिए सबसे “मुफीद और सुरक्षित व्यवस्था” के रूप में देखते हैं। वो लोकतान्त्रिक गणतन्त्र को पूंजीवाद के लिए सर्वोत्तम संभावित सीप शेल  के रूप में देखते हैं। इसकी विशेषताएँ बताते हुए वो कहते हैं कि “यह अपनी सत्ता को सुरक्षित ढंग से, दृढ़ता से स्थापित करता है कि व्यक्ति, राजनैतिक दल या संस्थानों में कोई भी बदलाव इस सीप को हिला नहीं सकता”।  

छत्तीसगढ़ में जो हो रहा है वह लेनिन के इस विचार की व्यावहारिक अभिव्यक्ति या उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में पिछले विधान सभा चुनाव में न केवल प्रदेश की जनता ने व्यक्ति बदला बल्कि राजनैतिक दल भी बदला और पिछले पंद्रह सालों से सत्ता पर क़ाबिज़ भारतीय जनता पार्टी और डॉ. रमन सिंह को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखलाया। कांग्रेस की इस बड़ी जीत में इस आदिवासी बाहुल्य राज्य के आदिवासियों ने बहुत उत्साह से बदलाव पर मुहर लगाई। उन्होंने इस सबसे पुराने राजनैतिक दल के अध्यक्ष राहुल गांधी से मिले आश्वासन पर एतबार किया। 

तीन सालों के भीतर ही छत्तीसगढ़ के लोगों को इस बात का अंदाजा हो गया है कि महज व्यक्ति या दल, बदल देने से पूंजीवाद की इस सबसे सुरक्षित ‘सीप’ का कुछ नहीं बिगड़ सकता। जैसा कि महान क्रांतिकारी नेता लेनिन ने कहा था। कल जो काम इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार कर रही थी आज वही काम कांग्रेस की सरकार कर रही है। 

ताज़ा मामला हसदेव अरण्य के क्षेत्र में परसा कोयला खदान के लिए दूसरे चरण की वन स्वीकृति का जारी होना है। 21 अक्तूबर 2021 को भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में स्थित ‘मध्य भारत के फेफड़े’ कहे जाने वाले हसदेव अरण्य में परसा कोयला खदान के लिए दूसरे चरण की वन स्वीकृति दिये जाने के संबंध में एक अनुमति पत्र जारी किया है। 

यह कोयला खदान राजस्थान राज्य विद्युत निगम को आबंटित की गयी थी। जिसके संचालन के लिए अडानी कंपनी के साथ राजस्थान सरकार ने अनुबंध किया है। इस लिहाज से देखें तो दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार है और यहाँ लेनिन की याद आना लाजिमी हो जाता है कि अंतत: लोकतान्त्रिक गणराज्य पूंजीवाद की सेवा करता है। 

इसी कोयला खदान के लिए पहले चरण की वन स्वीकृति जो 13 फरवरी 2019 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रदान की गयी थी। इस स्वीकृति के बाद इन गांवों की ग्राम सभाओं को यह जानकारी हुई कि उनकी ही ग्राम सभाओं के फर्जी प्रस्ताव बनाकर यह स्वीकृति हासिल की गयी है। तभी से न केवल उन गांवों की ग्राम सभाएं बल्कि पूरे हसदेव अरण्य की ग्रामसभाएं राज्य सरकार और भारत सरकार के वन एवं मंत्रालय से इन फर्जी प्रस्तावों की जांच कराने की मांग कर रही हैं। 

अभी महज़ सात दिन ही बीते हैं जब हसदेव अरण्य क्षेत्र से 300 लोगों ने प्रदेश की राजधानी रायपुर तक की 330 किलोमीटर पदयात्रा की है। इस पदयात्रा को व्यापक जन समर्थन मिला है और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मीडिया में यह सुर्खियों में रही है। 

राजधानी रायपुर में जब पदयात्रा का समापन हुआ तब इन पदयात्रियों से न केवल प्रदेश सरकार में पंचायती राज मंत्री श्री टी. एस. सिंह देव ने मुलाक़ात की बल्कि प्रदेश की राज्यपाल सुश्री अनुसूइया ऊईके ने बेहद गर्मजोशी और सहज संवेदनशीलता के साथ उन्हें राजभवन में आमंत्रित किया। यह पूरा क्षेत्र संविधान की पाँचवीं अनुसूची के दायरे में आता है अत: इस क्षेत्र को लेकर राज्यपाल की भूमिका सांवैधानिक रूप से अभिभावक की होती है, जिसके बारे में राज्यपाल ने उन्हें आश्वस्त किया कि वो प्रदेश सरकार से इस बारे में बात करेंगीं और जैव विविधतता और वन्य जीवों के इस नैसर्गिक पर्यावास, सघन जंगल को तबाही से बचाएंगीं। 

हालांकि प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पहले इस पदयात्रा को न केवल नज़रअंदाज़ किया बल्कि बेतुका बयान भी दिया कि ‘उन्हें इसकी जानकारी नहीं है और उन्हें पदयात्रियों की तरफ से मुलाक़ात का कोई प्रस्ताव नहीं मिला है’। हालांकि चौतरफा किरकिरी होने के बाद अंतत: मुख्यमंत्री ने अपने निवास कार्यालय में इन सत्याग्रहियों को मिलने के लिए आमंत्रित किया। इस मुलाक़ात में वह सहजता और गर्मजोशी नहीं देखी गयी जो इससे पहले पंचायत राज मंत्री या राज्यपाल महोदया ने दिखलाई। हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के नेता उमेश्वर सिंह पोर्ते ने बताया कि “मुख्यमंत्री किसी राजा की तरह मिले। उनका सिंहासन भी इतना ऊंचा था जबकि राज्यपाल मैडम ने साथ में बराबरी से बैठ कर हमसे बात की”। 

इस मुलाक़ात में प्रमुख मुद्दा और मांग यही थी कि हसदेव अरण्य को बचाने के लिए परसा कोयला खदान को रद्द किया जाना ज़रूरी है। इसे रद्द किए जाने कि सबसे बड़ी वजह यही है कि यह ग्राम सभाओं के फर्जी प्रस्तावों पर आधारित है जिसे लेकर हसदेव अरण्य क्षेत्र की समस्त ग्राम सभाएं लंबे समय से आंदोलनरत हैं। 

क्या हैं प्रस्ताव?

किसी भी गैर -वानिकी उद्देश्य के लिए अगर वनभूमि का उपयोग परिवर्तन करना हो 2008 के बाद यह आवश्यक हो गया है कि उस वन भूमि पर लागू वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 के तहत कानून में दिये गए समस्त अधिकार दावेदारों को दिये जाने की प्रक्रिया का पूर्णत: पालन और क्रियान्वयन हो चुका हो। इसके बारे में संबंधित ग्राम सभा यह प्रस्ताव देती है कि नियत तारीख तक वन अधिकार कानून का संपूर्णता में क्रियानवायन किया जा चुका है और किसी भी दावेदार के अधिकार मान्य होना शेष नहीं है। इस प्रस्ताव के बाद ही उस वन भूमि का डायवरजन किया जा सकता है। 

13 फरवरी 2018 को अंबिकापुर कलेक्टर के पत्र क्रमांक 4896 के जरिये ग्राम सभाओं को यह सूचना मिली कि परसा कोयला खदान के लिए 614.219 हेक्टेयर वन भूमि का व्यपवर्तन (डायवर्जन) इस आधार पर किया जा रहा है क्योंकि यहाँ वन अधिकार मान्यता कानून का क्रियान्वयन संपूर्णता में हो चुका है और कोई भी दावा लंबित नहीं है जिसके संबंध में संबन्धित गांवों की ग्राम सभाओं की सहमति अनुमोदन प्रस्तावों के माध्यम से प्राप्त की जा चुकी है। 

इस मामले में यह बताया गया कि दो गांवों, फतेहपुर, हरिहरपुर और साल्ही गाँव में क्रमश: 26 जुलाई, 2017, 24 जनवरी 2018 व 27 जनवरी 2018 को ग्राम सभाएं आयोजित हुईं जिनमें यह प्रस्ताव पारित हुए कि इन गांवों में वन अधिकार कानून का संपूर्णता में क्रियान्वयन हो चुका है और कोई भी दावा लंबित नहीं है। 

क्या कहती हैं ग्राम सभाएं? 

इन गांवों की ग्राम सभाओं के सदस्य और इस वन क्षेत्र में बसे आदिवासियों का कहना है कि आज भी उनके दावे लंबित हैं। ऐसी कोई ग्राम सभा इन तारीखों में हुई ही नहीं। उनका कहना है और जो बात उन्होंने 14 अक्तूबर 2021 को मुख्यमंत्री से हुई मुलाक़ात के दौरान लिखित ज्ञापन में भी कही कि “ये ग्राम सभाएं उनके गांवों में नहीं हुईं, गाँव का कोई भी व्यक्ति इनमें शामिल नहीं हुआ”। ग्रामीणों ने लिखित में यह आरोप भी लगाया कि ये ग्राम सभा प्रस्ताव उदयपुर तहसील के गेस्ट हाउस में प्रशासनिक मिलीभगत से सरपंचों पर दबाव बनाकर जबरन तैयार करवाए गए।  

इन तथाकथित प्रस्तावों के बरक्स ग्रामीणों का कहना है कि 2016-17 में किए गए वन अधिकार के दावे आज भी लंबित है और जो दावे 2020 में किए व्यक्तिगत वन अधिकार के दावों की सत्यापन और मान्यता की कार्यवाही अभी चल रही है। जिन्हें व्यक्तिगत वन अधिकार के अधिकार पत्र मिल भी गए हैं वो ग्राम सभा द्वारा अनुमोदित और दावा की गयी ज़मीन के रकबे से काफी कम हैं और उनमें भारी विसंगतियाँ हैं जिनकी समीक्षा के लिए इन दावों को जिला स्तरीय वन अधिकार समिति के समक्ष भेजा गया है। जो अभी विचारधीन हैं। ऐसे में ग्राम सभाओं के जिन प्रस्तावों को वन स्वीकृति के लिए आधार बनाया गया है वो पूरी तरफ फर्जी हैं। 

उल्लेखनीय है कि इसी मामले को लेकर हसदेव अरण्य की ग्राम सभाओं ने 24 सितंबर 2018 को तत्कालीन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर को भी पत्र लिखकर इन विसंगतियों को उनके संज्ञान में लाया था। 

इसके अलावा अम्बिकापुर कलेक्टर को 21 अगस्त 2018 व 24 सितंबर 2018 को ज्ञापनों के माध्यम से यह बताया था कि जिन ग्राम सभा प्रस्तावों को इस क्षेत्र को कोयला खदानों की स्वीकृति के लिए आधार बनाया जा रहा है वो फर्जी हैं। 

इसके विरोध में और इन प्रस्तावों के आधार पर हासिल वन स्वीकृति को रद्द करने की मांग के साथ हसदेव अरण्य क्षेत्र के ग्रामीणों ने 2019 में 74 दिनों का सत्याग्रह भी किया था।

हालिया घटनाक्रम और उससे उपजते सवाल

इस पूरे मामले पर खुद मुख्यमंत्री ने 14 अक्तूबर 2021 को सार्वजनिक रूप से यह कहा कि  परसा कोयला खदान के लिए जिस तरह से वन स्वीकृतियाँ प्राप्त करने के लिए अधिकारियों व उद्योगपतियों की मिलीभगत से ग्राम सभाओं के फर्जी दस्तावेज़ बनाए गए हैं उनकी जांच करवाई जाएगी। 

इस घोषणा के महज़ सात दिनों बाद भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इसी कोयला खदान के लिए दूसरे चरण की वन स्वीकृति दे दी।  

इससे एक बात तो स्पष्ट हो गयी कि भूपेश बघेल ने आदिवासियों के सामने कही गयी बात और घोषणा का खुद ही उल्लंघन किया। छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया होने के नाते उन्होंने भारत सरकार को यह नहीं बताया कि जिस कोयला खदान के लिए वन स्वीकृति दिये जाने पर विचार किया जा रहा है वह फर्जी ग्राम सभाओं की जांच के दायरे में है। राज्य सरकार इस मामले की जांच कर रही है अत: इस प्रस्ताव पर अभी विचार नहीं किया जाना चाहिए।

हाल ही में भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (ICFRE) की एक रिपोर्ट चर्चा में रही जिसमें हसदेव अरण्य की जैव विविधतता व वन्य जीवों और इसकी सघनता व प्राकृतिक वन को लेकर इसे संरक्षित किए जाने की सिफ़ारिशें की गईं। इस रिपोर्ट में यह माना गया है कि इस सघन वन क्षेत्र में खनन के बहुत बुरे परिणाम होंगे। हालांकि अपवाद स्वरूप चार कोयला खदानों को खोलने की भी छूट दी गयी। अगर राज्य सरकार चाहती तो इस विशाल प्राकृतिक वन क्षेत्र को संरक्षित किए जाने के लिए इन छूटों को खारिज कर सकती थी। यहाँ यह भी याद रखे जाने की ज़रूरत है कि कमर्शियल कॉल माइनिंग के लिए चिन्हित पाँच कोल  ब्लॉक्स को राज्य सरकार के कहने पर केंद्र सरकार ने बाहर किया था। 

इसके अलावा एक तथ्य भी यहाँ गौर तलब है कि भूपेश बघेल ने हसदेव अरण्य को हाथियों के नैसर्गिक पर्यावास के लिए लोक संरक्षित लेमरू हाथी रिजर्व बनाने का प्रस्ताव भी दिया था। इस प्रस्ताव में किसी का विस्थापन नहीं होना था। दिलचस्प है कि इस प्रस्ताव पर ग्राम सभाओं से सहमतियाँ मांगीं गईं थीं जो इन गांवों की ग्राम सभाओं ने दी भी थीं। अगर यह हाथी रिजर्व वाकई बनता तो यह पर्यावरण के क्षरण और विनाश की चुनौती से जूझती दुनिया के लिए एक नज़ीर होता जिसकी बुनियाद सह-अस्तित्व पर टिकी होती। लेकिन यहाँ भी खुद भूपेश बघेल अडानी के सामने नतमस्तक होते दिखे और अपने ही प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। 

केंद्र की सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी या मोदी की सरकार के अडानी समूह के साथ रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। राजनैतिक नारों में इस समय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का दिया ‘हम दो हमारे दो का नारा’ लोकप्रिय है। ऐसे में यह उम्मीद की जाती है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व और उसकी राज्य सरकारों के बीच कम से कम इस मामले में सहमति होगी कि अडानी समूह के मुनाफे के लिए उन हजारों आदिवासी परिवारों और धरती पर अपनी जैव विविधतता के लिए विख्यात हसदेव अरण्य को तबाही से बचाया जाएगा। लेकिन भूपेश बघेल की मंशा शायद इस समृद्ध जंगल और उसमें बसे आदिवासियों को बचाने की नहीं है। 

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक शुक्ला कहते हैं कि – “आज प्रदेश की जनता कांग्रेस की नीतियों से ठीक उसी तरह दुखी और हताश है जिस तरह वह भाजपा सरकार के समय थी”। पूरे प्रदेश में अब यह माना जाने लगा है कि भूपेश बघेल अडानी के हितों के लिए प्रदेश की जनता से किए वादे भूल चुके हैं’। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से वन एवं पर्यावरण मंत्री से इस स्वीकृति को तत्काल रद्द करने की मांग भी की है।

(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य रहे हैं)

 

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