किसके फायदे के लिए हो रहा है वन संरक्षण कानून, 1980 में संशोधन?

40 वर्ष बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, वन संरक्षण कानून में बदलाव करना चाहता है, लेकिन क्यों?

By Satyam Shrivastava

On: Monday 11 October 2021
 

वन,पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के वन संरक्षण विभाग ने 2 अक्तूबर 2021 को वन संरक्षण कानून, 1980 में प्रस्तावित संशोधनों के मसौदे को सार्वजनिक करते हुए विशेषज्ञों व आम जनता की टिप्पणियां व सुझाव मांगे हैं। पहले सुझाव जमा कराने के लिए केवल 15 दिन का समय दिया गया था, लेकिन जब इसका विरोध हुआ तो अब सुझाव जमा कराने की आखिरी तारीख 1 नवंबर कर दी गई है। 

2 अक्तूबर को जारी हुए इस मसौदे का महात्मा गांधी की 126वीं जन्म जयंती से कोई सीधा संबंध नहीं है, बल्कि यह गांधी के ग्राम-स्वराज की मौलिक अवधारणा के सख्त खिलाफ दिखलाई देता है। अपनी मंशा और सुझावों में यह ग्रामीण सामुदायिक अधिकारों व हितों की सजग रूप से अवहेलना करने की कोशिश करता है। यहां तक कि सदियों से चले आ रहे अधिकारों और संविधान संशोधनों व संसद द्वारा पारित कानूनों से हासिल हुए अधिकारों को भी इस मसौदे में सतर्कता से नजरअंदाज किया गया है। 

इस मसौदे को लाने की जरूरत को रेखांकित करते हुए मंत्रालय ने इस पत्र में लिखा है कि- “1980 में लागू हुए इस कानून को अब 40 वर्ष बीत चुके हैं। इन चालीस वर्षों में देश की परिस्थितिकी, सामाजिक एवं पर्यावरणीय परिदृश्य में व्यापक बदलाव हो चुके हैं। हालांकि इन 40 सालों में समय-समय पर इस कानून के प्रावधानों को नियमों व गाइडलाइंस के माध्यम से सामयिक बनाए रखने के प्रयास किए जाते रहे हैं। तब भी अभी के मौजूदा परिदृश्य में जहां संरक्षण और विकास की गति को एक साथ तेज किए जाने की जरूरत पेश आ रही है, यह जरूरी हो गया है कि इस कानून में संशोधन किए जाएं”। 

इस पत्र के साथ संलग्न प्रस्तावित संशोधनों के मसौदे को देखें तो यह बुनियादी तौर पर वन संरक्षण कानून, 1980 को दो अर्थों में बदलने की कोशिश करता है। एक तरफ तो यह कई मामलों में जहां व्यावसायिक गतिविधियों के लिए इस कानून के तहत ढील दिये जाने की कोशिश है तो दूसरी तरफ 12 दिसंबर 1996 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वन की परिभाषा का इस्तेमाल करते हुए ग्रामीण सामुदायिक संसाधनों को जबरन इसी कानून की जद में शामिल करने की भी कोशिश है। 

हम जानते हैं कि यह कानून संविधान में हुए 43वें संशोधन का परिणाम है। मूलत: आकार में अपेक्षाकृत बहुत छोटा यह कानून नियमों व गाइडलाइंस के जरिये लागू हुआ। इस संविधान संशोधन के जरिये  संविधान की सातवीं अनुसूची में परिवर्तन लाते हुए वन को ‘समवर्ती सूची’ में लाया गया था जो पहले राज्य के विषय थे।

हालांकि इसके वजूद में आने के बाद से ही यह सवाल भी उठते रहे हैं कि क्या वाकई इसका मूल उद्देश्य वनों का संरक्षण है? इस सवाल के पीछे मुख्य वजहें रही हैं कि ये एक तरफ वन क्षेत्र का दायरा बढ़ाने के लिए वनीकरण को प्रोत्साहित करता है तो दूसरी तरफ आरक्षित वनों को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की इजाजत भी देता है। 

दूसरी बड़ी वजह इसमें दिये गए उन प्रावधानों को लेकर है जो वनों को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ दंड के प्रावधान हैं जो भारतीय वन कानून,1927 की तुलना में बेहद लचीले हैं। जहां भारतीय वन अधिनियम में एक साल की जेल की सजा का प्रावधान है। वहां इस कानून में महज 15 दिनों के कारावास की सजा का प्रावधान था। 

तीसरी बड़ी वजह यह कानून स्थानीय समुदायों को वनीकरण के उद्देश्य में सहभागिता के अवसर नहीं देता, बल्कि अगर कोई उद्योगपति या ग्रामीण संरचना वन भूमि का इस्तेमाल गैर वानिकी कार्य के लिए करते हैं तो उनके लिए एक ही प्रक्रिया अपनाने पर जोर दिया गया है।

हालांकि प्रस्तावित संशोधनों के जरिये यह अब और स्पष्ट किया जा रहा है कि संरक्षण के बहाने वनों के विनाश की नयी इबारत लिखी जा रही है। 

मुख्य प्रस्तावित संशोधन क्या हैं? 

  • वन संरक्षण कानून, 1980 के प्रावधानों के दायरे को निरपेक्ष ढंग से पुनर्परिभाषित किया जाये। 
  • ऐसी जमीनों को इस कानून के दायरे से मुक्त करने पर विचार किया जा रहा है जिन जमीनों का अधिग्रहण 25 अक्तूबर 1980 से पहले ही किया जा चुका था। 
  • निजी स्वामित्व के तहत ज्यादा से ज्यादा जमीनों को ‘वन’ के दायरे में लाये जाने की जरूरत है जिससे पारिस्थितिकी, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ हों। 
  • ऐसी निजी जमीनों के मालिकों को यह स्पष्ट किए जाने की जरूरत है कि अगर वो अपनी जमीनों पर बनस्पति और पेड़ पैदा करते हैं तो उनके ऊपर वन संरक्षण कानून, 1980 के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
  • 12 दिसंबर 1996 के बाद गैर वन भूमि पर हुए वृक्षारोपण और वनीकरण आदि को राजस्व अभिलेखों में दर्ज किया जाए और इन्हें इस कानून के दायरे से बाहर माना जाये ताकि वनीकरण की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जा सके। इनमें कृषि वानिकी और अन्य वृक्षारोपण शामिल हों। 
  • जहां आवासीय या व्यावसायिक निर्माण हो चुके हैं और वन भूमि पर अवस्थित हैं उन्हें वन संरक्षण कानून के दायरे से मुक्त किया जाए ताकि इन अवसीय परिसरों में निवासरत लोगों व व्यवसायियों की कठिनाइयों को कम किया जा सके। 
  • मंत्रालय इन कानून में ऐसे प्रावधान शामिल किए जाने पर विचार कर रहा है ताकि प्राचीन महत्व के वनों को इनके समृद्ध पारिस्थितिक मूल्यों के संरक्षण और नुमाइश के लिए कुछ समय के लिए संरक्षित रखा जा सके।
  • अंतरराष्ट्रीय भौगोलिक सीमाओं पर सामरिक महत्व की रणनीतिक संरचनाओं के लिए कानून में दिये गए प्रावधानों के अनुसार संघीय सरकार से स्वीकृति लेने की बाध्यता खत्म की जा सकती है। और ऐसी परियोजनाओं को स्वीकृति देने के लिए राज्य सरकारों को अधिकृत किया जा सकता है ताकि सामरिक और सुरक्षा से जुड़ी ऐसी परियोजनाओं के लिए जिन्हें एक निश्चित समय सीमा में पूरा हो जाना चाहिए, राज्य सरकारें ही  वन भूमि पर गैर वानिकी प्रयोजनों के लिए स्वीकृतियाँ दे सकें।
  • वन संरक्षण कानून अनुच्छेद यानी 2(iii) को कानून से खारिज किया जाये और यह स्पष्ट किया जाये कि उप अनुच्छेद 2(ii) का ही इस्तेमाल किसी भी तरह की लीज जिनकी मंशा गैर-वानिकी कार्यों की हो, के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।   
  • एक्स्टेंडेड रीच ड्रिलिंग (ERD) जैसी तकनीकी को बढ़ावा दिया जा सकता है जिससे  वन भूमि के गहरे तलों से तेल व प्राकृतिक गैसों की खोज व उन्हें निकालने की सुविधाएं बढ़ेंगीं। जिनके उपयोग से वन के बाहरी क्षेत्रों ड्रिलिंग की जा सकती है इससे वनों के लिए जरूरी मृदा और जलभृत (aquifer) को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। मंत्रालय, इस तरह की तकनीकी के उपयोग पर विचार कर रही है जो पर्यावरण हितैषी है और जिसे इस कानून के दायरे से बाहर रखा जाये। 
  • मंत्रालय यह प्रस्ताव देना चाहता है कि ऐसे लोगों को वन भूमि पर संरचनाओं के निर्माण की इजाजत दी जाए जो वो प्रामाणिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा हो। यह इजाजत इसी शर्त पर दी जाए कि वो वन संरक्षण के तमाम प्रावधानों का पालन करें और ऐसी संरचनाओं के निर्माण के लिए एक बार में अधिकतम 250 वर्ग मीटर तक का ही इस्तेमाल कर सकें।  
  • गतिविधियां जो वन संरक्षण और वन्य जीव संरक्षण के लिए में सहयोगी हैं उन्हें गैर वानिकी उपयोग की गतिविधियों के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसी प्रकार, यह भी प्रस्तावित किया गया है कि चिड़ियाघरों की स्थापना, सफारी, वन प्रशिक्षण के लिए संरचनाओं आदि को अनुच्छेद 2 (ii) के लिए भी गैर-वानिकी उपयोगों की परिभाषा के तहत शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
  • किसी उद्देश्य के लिए लीज के नवीनीकरण के समय दोहरी क्षतिपूर्ति कर थोपना तार्किक नहीं है।
  • दंड के प्रावधान और सख्त किए जाएँ ताकि कोई इंका उल्लंघन न करे। इस संदर्भ में, अनुच्छेद 2 के तहत किसी भी तरह का अपराध के लिए दंडनीय बनाया जाये जिसके अनुसार एक साल तक की अवधि के लिए जेल की सजा का प्रावधान किया जाए। इस तरह के अपराध संज्ञेय हों और गैर-जमानती हों। यह भी प्रस्ताव किया जा रहा है कि अनुच्छेद 3A के तहत जेल की सजा के अतिरिक्त दंडात्मक क्षतिपूर्ति का प्रावधान भी किया जाये ताकि उस नुकसान की भरपाई की जा सके जो किए जा चुके हैं। साथ ही, यह भी प्रस्ताव किया जा रहा है कि अगर किसी मामले में राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन का कोई मुलाजिम किसी अपराध में लिप्त पाया जाये तो उससे भी दंडात्मक क्षतिपूर्ति की राशि वसूल की जाये जिसे राष्ट्रीय  केम्पा फण्ड्स में जमा किया जाए न कि राज्य केम्पा फण्ड्स में। 
  • सर्वे या परीक्षण ऐसी प्रक्रियाएं ऐसी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए जहां कोई प्रत्यक्ष प्रभाव/नुकसान नहीं होते उन गतिविधियों के लिए कानून के प्रावधान लागू नहीं होंगे। 

 

इन प्रस्तावों पर मुख्य आपत्तियां –

इस मसौदे के सार्वजनिक होने के साथ ही इसे लेकर आपत्तियां भी जाहिर हो रही हैं।

इज्जत से जीने के अभियान के सदस्य सी. आर. बिजय इन आपत्तियों को इस तरह बताते हैं-  सबसे बड़ी आपत्ति तो इन संशोधनों की मंशा को लेकर ही है जिसके मूल में वन भूमि को गैर वानिकी कार्यों के लिए आसानी से उपलब्ध कराना है। इसके अलावा इस मसौदे में कहीं भी वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 के प्रावधानों को शामिल नहीं किया गया है जिसके तहत देश में 40 मिलियन हेक्टेयर जंगल को समुदाय के सुपुर्द किए जाने का कानूनन प्रावधान है। 

पर्यावरणविद कांची कोहली, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के इस मसौदे को बेहद चतुराई भरा बताती हैं। उनका मानना है कि वन संरक्षण कानून1980 में संशोधनों के माध्यम से वन भूमि को आधारभूत संरचनाओं व विकास की परियोजनाओं के साथ साथ वनीकरण के लिए भी सहजता से उपलब्ध कराये जाने की मंशा दिखाई देती है। जो एक तरफ कॉरपोरेट्स के दबाव और दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए वैश्विक नीतियों को एक साथ साधने की कोशिश है। इसके अलावा सरकारी विभागों की रेखीय परियोजनाओं जैसे राजमार्गों,रेलवे आदि के लिए वन भूमि के इस्तेमाल की इजाजत देने का प्रयास है। इसका सीधा नकारात्मक प्रभाव अंतत: देश की परिस्थितिकी, पर्यावरण, ग्रामीण समुदायों व वन्य जीवों पर होगा। 

एडवोकेट अनिल गर्ग इस मसौदे को अलग संदर्भों में देखते हैं। उनका कहना है कि 43वें संविधान संशोधन के जरिये वजूद में आए इस कानून का संशोधन इस तरह नहीं हो सकता कि वह अन्य सांवैधानिक संशोधनों को दर किनार कर दे। उदाहरण के लिए 73वें व 74वें संविधान संशोधन के साथ वजूद में आयी संविधान की 11वीं अनुसूची जिसके तहत स्थानीय ग्रामीण निकायों को प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक हासिल हैं उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

अलग अलग राज्यों की भू-राजस्व संहिताओं को नजरअंदाज करते हुए, राजस्व जमीन पर उगे जंगल को महज शब्दकोषीय परिभाषा के तहत वन मानते हुए इस कानून के दायरे में शामिल नहीं किया जा सकता है। और तीसरी बड़ी बड़ी आपत्ति वो मध्य प्रदेश के विशेष सदर्भों में बताते हैं कि इसी गोदाबर्मन केस (202/1995) में मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से लगाई गयी एक याचिका के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने 1 अगस्त 2003 को छोटे व बड़े झाड के जंगलों को वन संरक्षण कानून के दायरे से मुक्त किया था, लेकिन इस मसौदे में जिस प्रकार वन अधिकार मान्यता कानून के प्रावधानों को दरकिनार किया गया है उसी तरह इस मसले पर कुछ नहीं कहा गया है। क्या इन जमीनों को भी वन की परिभाषा के तहत पुन: वन संरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया जाएगा। 

इसके अलावा मध्य प्रदेश विधान सभा में कई प्रश्नों एक जबाव में यह बतलाया गया है कि कितनी जमीनें ऐसी हैं जिन्हें भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 व 29 के तहत अधिसूचित किया गया था लेकिन इनकी पूरी प्रक्रिया न होने के कारण 1975 के बाद से धारा 34 ए के तहत इन्हें दी-नोटिफ़ाई कर दिया गया था। इस मसौदे से यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इन जमीनों को भी पुन: वन संरक्षण कानून के दायरे में शामिल किया जाएगा? 

दिलचस्प है कि इन संशोधनों के जरिये इतिहास की उन गलतियों पर फिर से पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है जिन्हें दुरुस्त करने के लिए भारत की संसद ने वन अधिकार मान्यता कानून 2006 बनाया था। हालांकि यह उम्मीद की जाना चाहिए कि मंत्रालय को जो परामर्श विभिन्न हितधारकों से पहले ही करना चाहिए था उसे अब परामर्श की अवधि को कम से कम तीन महीने बढ़ाकर किया जाना चाहिए और किसी भी संशोधन को बलात थोपे जाने से बचना चाहिए।

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