अप्पिको आंदोलन के नायक

हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह कर्नाटक के पश्चिमी घाट में अप्पिको आंदोलन मशहूर हुआ।

On: Friday 09 October 2020
 
कर्नाटक का मशहूर अप्पिको आंदोलन, स्रोत : बाबा मायाराम

बाबा मायाराम 

हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह कर्नाटक के पश्चिमी घाट में अप्पिको आंदोलन मशहूर हुआ। वनों की कटाई के खिलाफ यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा। इसे न केवल लोगों का समर्थन हासिल हुआ बल्कि मीडिया में अच्छा कवरेज मिला, सरकारी महकमे में मान्यता मिली। वनों की कटाई पर तो रोक लगी, जो अब तक भी जारी है। पर्यावरण के बारे में व्यापक चेतना जागृत हुई। यह अस्सी के दशक की बात है।

पश्चिमी घाट में वनों की कटाई होने लगी थी। यह वन जैव विविधता के लिए जाने जाते हैं। लेकिन सरकार की वननीति के चलते यहां की जैव विविधता व पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ रहा था। न केवल यहां के लोगों का जीवन कठिन हुआ बल्कि यहां के पीने के पानी और खेती की सिंचाई का भी संकट बढ़ने लगा। अप्पिको आंदोलन में पांडुरंग हेगड़े प्रमुख थे। हाल ही में मेरी उनसे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मुलाकात हुई। जहां हम दोनों वन अधिकार के सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे थे। इस दौरान बातचीत की और उन्होंने मुझे अप्पिको आंदोलन की प्रेरणादायक कहानी सुनाई।

पांडुरंग हेगड़े ने दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडल हासिल किया। पढ़ाई के दौरान वे हिमालय के चिपको आंदोलन में शामिल हुए और कई गांवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की शुरूआत पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया था। यह आंदोलन राष्ट्रीय – अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना। इसके प्रभाव से ही सरकार ने उत्तराखंड के बड़े क्षेत्र में हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगाई गई।

पांडुरंग हेगड़े कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ा जिले के रहनेवाले हैं। सिरसी तालुका में उनका गांव कालगुंडीकोप्पा है। इस इलाके में अच्छा जंगल है। जब वे पढ़ाई के बाद उनके गांव लौटे तब तक घने जंगल उजाड़ में बदल रहे थे। हरे पेड़ कट रहे थे। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। बचपन में वे खुद घर के मवेशी जंगल में चराते थे, तब बहुत घना जंगल देखा था। जंगल में कई फल, फूल, हरी पत्तीदार सब्जियां व कंद-मूल और औषधीय पौधे मिलते थे। जंगल से जलाऊ लकड़ी, चारा और पानी मिलता था। खेतों को उपजाऊ बनाने जैव खाद मिलती थी। हरे पेड़, शेर, हिरण,जंगली सुअर,जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह- तरह की रंग-बिरंगी चिड़ियाएं देखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई।

उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर हस्तक्षेप करनी की सोची। सलकानी गांव से विरोध शुरू हुआ और फैला। यहां के करीब डेढ़ सौ जंगल तक पदयात्रा की, जिनमें महिलाएं व युवा शामिल थे। जंगल की कटाई हो रही थी। वनविभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। इसे रोकने में सफलता मिली। यह आंदोलन जल्द ही पड़ोसी सिद्दापुर तालुका तक फैल गया। तत्कालीन वनविभाग का कहना था कि वनों की कटाई पूरी तरह वैज्ञानिक है। लेकिन असल में यह विविध वनों की जगह सागौन व यूकेलिप्टस लगाने की योजना मुनाफा कमाने की दृष्टि से थी।

उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की तर्ज पर यहां भी अप्पिको आंदोलन उभरा और फैला। सरकार व वनविभाग ने इसे रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। पांडुरंग हेगड़े ने इसमें सभी तबके को जोड़ा, राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया। उनका कहना था कि हमारा मुख्य उद्देश्य वनों की रक्षा करना है, जो हमारे और सभी जीव-जगत के जीवन का आधार हैं। हमें इसमें सबकी भागीदारी की जरूरत है, पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

हम वननीति में बुनियादी बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में मददगार हो। जिस पर देश की बड़ी आबादी आश्रित है। ग्रामीणों का कहना था कि कृषि उपज घट रही है, क्योंकि जंगल कट रहे हैं। फसलों में रोग लग रहे हैं। आर्थिक हालत खराब हो रही है। कर्ज बढ़ रहा है। यहां 900 एकड़ का विविध वन था, जिसमें से लगभग आधा कट चुका था। और उसकी जगह सागौन व यूकेलिप्टस लगाया था। जलस्रोत सूख गए थे। बारिश भी कम हो रही थी। जंगल से फल, चारा, ईंधन, जैव खाद और रेशा मिलते थे, उनमें कमी आ रही थी। अप्पिको आंदोलन से वनों को फिर से हरा-भरा करने में मदद मिली और लोगों की आजीविका से इससे जुड़ी।

इस आंदोलन का असर हुआ कि कर्नाटक के पश्चिमी घाट में हरे पेड़ों को कटने पर सरकार ने रोक लगाई, जो अब भी जारी है। यह अहिंसक व गांधीवादी तरीके का आंदोलन था। पेड़ों से लोग चिपक गए थे। यह प्रतीकात्मक ही नहीं था, वास्तव में वनों की कटान रोकने के लिए वनों से लोग चिपक गए। बिलकुल उत्तराखंड के चिपको आंदोलन की तरह। कन्नड़ के अप्पिको का अर्थ भी चिपको होता है। इस आंदोलन से नया नारा निकला। उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है।

पर्यावरण संरक्षण के आंदोलन को आजीविका की रक्षा से जोड़ा। अप्पिको आंदोलन कई और इलाके में फैला। इसके कारण इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली। बड़े बांध, परमाणु बिजलीघर और पश्चिमी घाट में पर्यावरण व पारिस्थितिकीय बचाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

अगर हम आंदोलन पर नजर डालें तो 1983 से 1989 तक अप्पिको आंदोलन चला। 1986-87 में सीमेंट फैक्ट्री के खिलाफ आंदोलन चला, जो सफल हुआ। वर्ष 1992-94 तक शहद बनानेवाली मधुमक्खी को बचाने का आंदोलन चला और सफल रहा। इसके अलावा, बांध का विरोध, काली नदी बचाओ आंदोलन, पश्चिमी घाट बचाओ आंदोलन आदि हुए। इनमें कभी पूरी व कभी आंशिक सफलता मिली, और कभी सफलती नहीं भी मिली।

पांडुरंग हेगड़े का कहना है कि यह आंदोलन किसी संस्था, व्यक्ति का काम नहीं, यह जनसाधारण का आंदोलन था, जो आज भी कई रूपों में जारी है। गांव-गांव संपर्क, पदयात्राएं, रैली और जुलूस निकले, लेकिन यह सभी स्थानीय लोगों के सहयोग, संसाधन व भागीदारी से हुए। अप्पिको आंदोलन अहिंसक पर्यावरण का आंदोलन था, जो आज भी अलग- अलग तरह से जारी है। इस आंदोलन ने पर्यावरण रक्षा को लोगों की आजीविका की रक्षा से जोड़ा। गांव के टिकाऊ विकास, गांवों की आजीविका और दीर्घकालीन दृष्टि से पर्यावरण बचाने की राह अपनाई। अप्पिको आंदोलन का पर्यावरण रक्षा में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जो अनुकरणीय व प्रेरणादायक है।

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