अधिकार में मिली जमीन छिनने का डर

अधिकार स्वरूप लोगों को दी गई जमीन छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा वापस लेने के कारण तीन जिलों के निवासियों पर बेदखली की तलवार लटक गई है

By Ishan Kukreti

On: Thursday 18 July 2019
 
धनपुर गांव में सरकार ने वनीकरण के उद्देश्य से भूमि की पहचान करने के लिए लगभग 1.2 मीटर ऊंचे सीमेंट के खंभे लगवाए हैं (ईशान कुकरेती)

छत्तीसगढ़ स्थित कोरिया जिले के खड़गांव प्रखंड में शादी-ब्याह के मौसम में भी वनीकरण के मुद्दे से इतर कोई और बात नहीं होती। दरअसल, 15 जनवरी, 2019 को केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 800 हेक्टेयर वनभूमि राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को खनन के लिए प्रदान करने के फैसले का सैद्धांतिक तौर पर अनुमोदन किया। सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम ने अडानी इंटरप्राइजेस की एक इकाई, राजस्थान कोलियरीज लिमिटेड के माध्यम से सरगुजा और सूरजपुर जिलों में आने वाले हसदेव अरण्य वन के परसा कोल ब्लॉक में खनन के कार्य की जिम्मेदारी लेने का प्रस्ताव रखा है। इस फैसले ने न केवल कोरिया जिले के निवासियों के जीवन में कहर बरपा दिया है, बल्कि इन दो जिलों के लोगों का भी बुरा हाल कर दिया है।

राज्य सरकार ने खड़गांव में पड़ने वाले 16 गांवों में लगभग 1,600 हेक्टेयर अवक्रमित (डिग्रेडेड) जंगलों की पहचान की है, ताकि वन क्षति की भरपाई की जा सके। जहां एक तरफ सरगुजा और सूरजपुर के निवासी इस समय बेदखली झेलने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर कोरिया जिले के लोगों से व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार, वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मिली जमीन छिन जाएगी। खड़गांव लगभग एक लाख लोगों का घर है, जिसमें 35 प्रतिशत यानी लगभग 36,000 लोग जीवन-यापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं। वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के अनुसार, वनभूमि पर किसी भी प्रकार की तब्दीली होने की स्थिति में राजस्व भूमि के बराबर या वृक्षारोपण वनभूमि पर होने की स्थिति में दोगुने क्षेत्रफल में पेड़ लगाए जाने चाहिए। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रतिपूरक वनारोपण अनिवार्य है।

कोरिया जिले के ठग्गांव गांव के निवासियों को वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत व्यक्तिगत वन अधिकार मिले थे, लेकिन अब वे फिर से अपनी भूमि वनारोपण की वजह से खोने वाले हैं। रतन टिर्की ने 2008 में लगभग 2.8 हेक्टेयर भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार पाया था, लेकिन अब उनकी ये जमीन सरकार की प्रतिपूरक वनारोपण वाली भूमि की सूची में है। पिछले 40 वर्षों से टिर्की का परिवार इस भूमि पर गेहूं की खेती कर रहा है। वह कहते हैं, “अगर खाली ही करवाना था तो सरकार ने जमीन दी ही क्यों? मैंने इस पर इतनी मेहनत की, मिट्टी तैयार की, जानवरों को दूर रखा और अब वे इसे वापस ले लेंगे।”

2 फरवरी, 2017 को प्रतिपूरक वनारोपण के लिए कोरिया जिले के तत्कालीन जिलाधीश नरेंद्र कुमार गुप्ता ने स्वीकृति दी। उनके दावे के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि का कोई भी दावा बाकी नहीं रह गया था। लेकिन, छत्तीसगढ़ आदिम जाति तथा अनुसूचित जाति विकास विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि कोरिया जिले में 27,000 वनाधिकार दावों में से अब तक केवल 15,000 दावों को ही मंजूरी दी गई है। अगर धनपुर गांव का उदाहरण लें तो यहां 150 दावों में से केवल 10 प्रतिशत को ही स्वीकृति मिल पाई है, जबकि गांव के 480 हेक्टेयर जमीन में से 25 प्रतिशत वनारोपण के लिए चिन्हित है। गौंड जनजाति से संबंध रखने वाले छोटे लाल सिंह वन अधिकार समिति के सचिव हैं। यह समिति भूमि के दावों को जमा कर उन्हें दाखिल करने के लिए उत्तरदायी एक ग्राम-स्तरीय निकाय है, जिसे ग्राम सभा सदस्यों को सम्मिलित कर गठित किया गया है। वह बताते हैं “लंबित दावे पंचायत कार्यालय के पास हैं। हमने सारे आवेदनों को मंजूरी दे दी, लेकिन उप-प्रभागीय न्यायाधीश व खंड विकास अधिकारी देरी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।” एफआरए दावे सभी 16 गांवों में लंबित हैं जिन्हें वनारोपण के लिए चिन्हित किया गया है।

सरकार ने वनीकरण के उद्देश्य से भूमि की पहचान करने के लिए लगभग 1.2 मीटर ऊंचे सीमेंट के खंभे लगवाए हैं। धनपुर गांव से 40 किमी दूर, चोपन गांव के सरपंच क्षेत्रपाल सिंह कहते हैं, “अक्टूबर 2016 में अचानक सर्वेक्षक आए और कैमरे के जरिए हमारी जमीनों का सर्वे करने लगे, ताकि वनारोपण के लिए जमीन चिह्नित कर सकें।” चोपन गांव की कुल 189 हेक्टेयर जमीन में से 30 हेक्टेयर जमीन पर पौधरोपण होना है, लेकिन एफआरए की प्रक्रिया पूरी होने में अभी काफी वक्त लगेगा। 2016 से गांव की वन अधिकार समिति के सदस्य सिंह बताते हैं कि 100 के करीब दावों में से सिर्फ 12 को ही अब तक मंजूरी मिल सकी है। मुगुम गांव के सरपंच पिनाप सिंह हैरानी जताते हुए पूछते हैं कि आखिर बिना ग्राम सभा की मंजूरी के जमीन वनरोपण के लिए कैसे चिह्नित की गई?

कोरिया पांचवीं अनुसूची में दर्ज जिला है और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 के द्वारा प्रशासित है। अधिनियम के अनुसार, ग्राम सभा से विचार-विर्मश के बिना विकास कार्य नहीं कराए जा सकते। डाउन टू अर्थ ने सभी 16 गांवों का दौरा किया और पाया कि वनरोपण के लिए जमीन चिह्नित करने से पहले किसी भी ग्राम सभा से कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया था।

मुगुम गांव की कुल 969 हेक्टेयर जमीन में से 25 प्रतिशत वनरोपण के लिए चिह्नित है। 200 के करीब दावों में से अधिकतर पंचायत कार्यालय में फंसे हुए हैं। पिनाप सिंह कहते हैं, “जब सर्वेक्षक आए, तब मैंने पूछा कि यहां क्या कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आई। मैं भी उनकी कोई बात समझ नहीं पाया।” इस गांव के निवासी हिंदी बोलते समझते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि सर्वे करने आए समूह ने इनसे अंग्रेजी में बात की होगी। इस मुद्दे पर कोरिया के नए जिलाधीश वीएस भोस्कर बातचीत के लिए उपलब्ध नहीं थे। खड़गवां के लोगों के लिए वन भूमि उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया है। यह जमीन भी बहुत कम है।

एफआरए के तहत व्यक्तिगत तौर पर सिर्फ 0.87 हेक्टेयर भूमि ही दी गई है। छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता, 1959 के मुताबिक, रोजी-रोटी के लिए भूमि पर आश्रित लोगों के लिए 5 एकड़ (2.02 हेक्टेयर) से कम जमीन अपर्याप्त है। यह विडंबना ही है कि वनीकरण के लिए प्रस्तावित परियोजनाओं के जरिए एकत्रित की गई राशि को समुदायों के साथ बांटने में सरकार की दिलचस्पी नहीं है, जबकि 2015-16 और 2017-18 के बीच 519 करोड़ रुपए जारी किए गए।

सरगुजा, सूरजपुर और कोरिया के लोगों के ऊपर न सिर्फ निष्कासन की तलवार लटक रही है, बल्कि उनके पास जाने के लिए कोई दूसरी जगह भी नहीं है। तिर्की कहते हैं, “मेरे पास वनाधिकार के तहत मिली जमीन के अलावा कुछ भी नहीं है। अगर ये भी छिन गई तो मैं कहां जाऊंगा?”

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