“विनाश को विकास मान हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में हैं”

उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की अलख जगाने वाले 86 वर्षीय चंडीप्रसाद भट्ट को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया। डाउन टू अर्थ के लिए उमाकांत लखेड़ा ने उनसे बातचीत की 

By Umakant Lakhera

On: Friday 13 December 2019
 

गांधीवादी रास्ते पर चलकर उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की अलख जगाने वाले 86 वर्षीय चंडीप्रसाद भट्ट देश के उन गिने चुने पर्यावरणविदों में शामिल हैं जिन्होंने दशकों पहले पर्यावरण पर मंडराते खतरों को भांप लिया था। भट्ट ने विनोबा भावे व जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले भूदान आंदोलन व सामाजिक परिवर्तन के कई जनअभियानों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उत्तराखंड को अपनी कर्मस्थली बनाने वाले भट्ट का मानना है कि गांवों को स्वावलंबी बनाकर पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रोका जा सकता है। ग्राम स्वराज पर उन्हें अटूट भरोसा है और इसी कारण चमोली के निकट गोपेश्वर में दसौली ग्राम स्वराज की परिकल्पना को उन्होंने साकार किया। हाल ही में उन्हें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। चंडीप्रसाद भट्ट ने हिमालय के अस्तित्व को मिल रही चुनौतियों, चिपको आंदोलन व आधुनिक विकास के ढांचे पर उमाकांत लखेड़ा से बात की

रितिका बोहरा / सीएसई

देशभर में पर्यावरण के मुद्दों पर चल रहे जनांदोलन या तो लुप्त हो रहे हैं या उन्हें पहले जैसा जनसमर्थन नहीं मिल रहा। इसे किस नजर से देखते हैं?

पर्यावरण को नष्ट कर संवेदनशील क्षेत्रों में प्रकृति के साथ जो विध्वंस व खिलवाड़ हो रहा है, उसके दूरगामी दुष्परिणामों को लेकर आम लोग पूरी तरह बेखबर हैं। हिमालय में ज्यादातर विकास की नीतियां आत्मघाती हैं और उनके पीछे कोई दीर्घकालिक सोच नहीं दिखती। उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में ऑलवेदर रोड बनाने से पर्वतीय क्षेत्रों में धरती, जंगलों व नदियों की जो तबाही हुई है, उसका प्रखर विरोध होना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वजह है कि इस तरह के विनाश को लोग विकास मान बैठते हैं। हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में हैं। योजनाएं बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि इस तरह की उनकी चुप्पी और भ्रम आने वाले दौर में तबाही लेकर आएगा।

मौजूदा दौर में हिमालय के समक्ष लिए कौन-सी भावी चुनौतियां देखते हैं?

जोखिम और चुनौतियां हिमालय को चौतरफा घेर रही हैं। हिमालय बेजुबान है। बावजूद इसके वह समय-समय पर हमें खतरे के संकेत दे रहा है। विडंबना यह है कि हम उसके खतरों की चिठ्ठी पत्रियों को रद्दी की टोकरियों में डाल रहे हैं। त्रासदियों की बात करें तो सुदूर उत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय में 1970 में सबसे बड़ी तबाही अलकनंदा घाटी में हुई थी। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद यह सबसे बड़ी प्राकृतिक व मानवीय तबाही इतिहास में दर्ज है। 2010 में बर्फीले लद्दाख क्षेत्र में मॉनसून ने भारी तबाही मचाई और बड़ी तादाद मे लोग काल के मुंह में चले गए। पूर्वोत्तर में 2008 में नेपाल व बिहार के बीच कोसी नदी ने अपना रास्ता बदला तो बिहार में हमें भारी जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा। नेपाल से आने वाली नदियों से जो गाद बहकर आ रही है, वह तराई में आकर हमारी नदियों के मुहानों को ऊपर उठा रही है। इससे नदियों के आसपास की विशाल आबादी धीरे-धीरे खतरों की जद में आ रही है क्योंकि पानी जितना ऊपर बहेगा, हमारे गांव व खेती व और सड़क संचार उतने ही तबाह होते जाएंगे। नेपाल से आने वाली घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक वाली दूसरी नदियां हमारे लिए अभिशाप बनकर आ रही हैं तो इसका एक ही बड़ा कारण है कि हम हिमालयी हलचलों व भारत के संदर्भ में उनके भावी निहितार्थों को लेकर बेखबर व उदासीन हैं।

लेकिन दूसरे देश की घटनाओं व हादसों के बारे में हम कर भी क्या सकते हैं। व्यावहारिक तौर पर तो अपनी सीमाओं के भीतर ही हम कोई भी बचाव व उपचार की सोच सकेंगे।

यही बात समझने की है क्योंकि हिमालयी भूभाग में जितने भी देश हैं, वे सतह के ऊपर भले ही अलग हैं लेकिन भीतर और जल, जमीन जंगल तो आपस में सटे हुए हैं। भूगर्भीय हलचलों व मौसमी बदलावों को हम किसी भी सूरत में सीमाओं के भीतर नहीं बांध सकते। जैसे हर साल दीवाली के बाद दिल्ली और उत्तर भारत पाकिस्तान, पंजाब व हरियाणा से आने वाले धूल, धुंध से पट जाता है। इसी तरह अफगानिस्तान, नेपाल, चीन भूटान में कोई भी आपदा और विध्वंस हुआ है तो यह मानकर चलना हमारी भारी भूल होगी कि इससे हम पर क्या फर्क पड़ने वाला है। मैं अरसे से इस बात के लिए अपने देश की सरकारों को लिखित तौर पर व सार्वजनिक मंचों से आगाह करता आ रहा हूं कि भारत को दक्षिण एशिया और हिमालय की रक्षा के लिए हिमालयी मुल्कों का मोर्चा बनाने के लिए आगे आना चाहिए।

हिमालय के सरंक्षण के लिए व्यापक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण की भी आप बात करते हैं, इसका क्या आशय है?

हिमालय के संरक्षण के लिए व्यापक व ग्लोबल रणनीति पर सोचने की जरूरत है। सबसे पहले तो हिमालयी राज्यों के लिए अलग से केंद्रीय मंत्रालय बने। तीन बरस पूर्व मैंने प्रधानमंत्री को एक लंबा पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से रूबरू कराया था। मेरी इस बारे में प्रधानमंत्री के तत्कालीन प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र से भी 45 मिनट तक बैठक हुई थी। मुझे एक कॉन्सेप्ट नोट भेजने का भी आग्रह किया गया था। उसमें मैंने प्रधानमंत्री को सुझाव दिया था कि ग्लोबल वार्मिंग, भूकंप, बाढ़ की विभीषिकाओं का सामना करने व नदियों के जल प्रबंधन पर हमें, चीन, नेपाल व भूटान के साथ मिलकर एक पारस्परिक मोर्चा बनाना चाहिए।

चिपको आंदोलन को गांधीजी के अहिंसा, सत्याग्रह से जोड़ने का विचार कैसे आया?

चिपको आंदोलन पूरी तरह महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा व शांतिपूर्ण विरोध के दर्शन पर आधारित था। पहाड़ों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि देश भले ही अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हो गया लेकिन व्यापारिक हितों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में जंगलों का कटान और तेजी से आगे बढ़ा। हिमालयी गांवों के लिए जंगल ही जीवन के अस्तित्व का आधार रहे हैं। कुल्हाड़ियों से जंगलों को काटने के खिलाफ हमने सबसे पहले महिलाओं को संगठित किया। हमने जगह-जगह तय किया कि ठेकेदार के लोग पेड़ों पर जब कुल्हाड़ियां चलाएं तो हम सब सामूहिक तौर पर उन पेड़ों पर लिपट जाएं। जो पेड़ काटते थे उनके सामने ही जब लोग पेड़ों पर लिपट गए तो इसका ठेकेदार व उनके मजदूरों पर बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। वे उन जगहों को छोड़कर जाने को विवश हुए। इस तरह आंदोलन की जीत का दरवाजा खुला।

चिपको के पांच दशक के बाद भी यह आंदोलन कितना प्रासंगिक है?

मुझे इस बात पर गर्व है कि सत्य, अहिंसा को केंद्र में रखकर हमने एक कार्यकर्ता के तौर पर जनता को साथ लेकर जिस निष्ठा के साथ बिना किसी हिंसा, विवाद के आंदोलन चलाया, उसकी मिसाल शायद ही कहीं मिलती हो। पूरे चिपको आंदोलन का हिंसा या खून खराबे से कहीं कोई ताल्लुक नहीं था। जंगलों को काटने के लिए आए श्रमिकों के प्रति हमारे लोगों का हिंसा या नफरत का कोई भाव न था। यही अंहिसा और शांतिपूर्ण प्रतिरोध हमारा अचूक हथियार बना। पूरी दुनिया का ध्यान इसीलिए इस आंदोलन की ओर गया कि कैसे गांवों के सीधे-सरल, अनपढ़ लेकिन जागरूक लोगों ने देश व राज्यों में ताकतवर सरकारों के संरक्षण में बड़े धन्ना सेठों को हिमालय के जंगलों के विनाश की कोशिशों पर हमेशा के लिए विराम लगाया। केंद्र व राज्य सरकारों को जंगलों के संरक्षण के बारे में अपनी नीति बदलनी पड़ी।

Subscribe to our daily hindi newsletter