बेकाबू हो रही उत्तराखंड के जंगलों की आग

नैनीताल जिले में आग लगने की सबसे अधिक घटनाएं दर्ज हुई हैं। 

By Varsha Singh

On: Monday 13 May 2019
 
दिकवाली वन पंचायत में लगी आग : फोटो साभार - उत्तराखंड वन विभाग

तापमान बढ़ने के साथ ही उत्तराखंड के जंगलों में आग की लगने की घटनाएं तेज़ी से बढ़ गई हैं। नैनीताल और अल्मोड़ा में जंगल की आग बेकाबू हो गई है। कई दिनों तक जंगल के सुलगने से चारों तरफ धुआं फैल गया है, जिसका असर जंगल के पास रहने वाले लोगों और पर्यावरण की सेहत पर पड़ रहा है। आग बुझाने के लिए वन विभाग के इंतज़ाम नाकाफी साबित हो रहे हैं। एक जगह आग बुझती है तो दूसरी जगह आग लगने की सूचना मिल जाती है। कुछ जगहों पर जंगल की आग रिहायशी इलाकों तक भी पहुंच गई। पिछले दिनों तेज़ हवा और आंधी के चलते आग तेज़ी से फ़ैली। स्थिति पर काबू पाने के लिए वन विभाग बारिश का इंतज़ार कर रहा है।

जंगल की आग से कुमाऊं क्षेत्र ज्यादा प्रभावित है। इस वर्ष फायर सीज़न में यहां रिजर्व फॉरेस्ट में आग की 305 घटनाएं सामने आई हैं। जबकि वन पंचायतों में आग लगने की 59 घटनाएं सामने आई हैं। जिससे कुल 539.685 हेक्टेअर क्षेत्र आग से प्रभावित हुआ है। आग से कुमाऊं में अब तक 968439.5 रुपये के नुकसान का आंकलन किया गया है। कुमाऊं में जंगल की आग से पांच लोग जख्मी भी हुए हैं। नैनीताल का तराई क्षेत्र आग से सबसे ज्यादा प्रभावित है। आग लगने की सबसे ज्यादा 174 घटनाएं यहीं दर्ज की गई हैं। जबकि अल्मोड़ा में आग लगने के 61 मामले सामने आए हैं। चंपावत में इस वर्ष अब तक 40 जगह आग लग चुकी है।

इसी तरह गढ़वाल क्षेत्र में इस वर्ष रिजर्व फॉरेस्ट में आग लगने की 132 घटनाएं सामने आई हैं। जबकि वन पंचायतों में 77 घटनाएं हुई हैं। इससे कुल 237.05 हेक्टेअर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इससे 324649.5 रुपये नुकसान का आंकलन किया गया है। गढ़वाल में टिहरी जिले में जंगल की आग की सबसे अधिक 50 घटनाएं सामने आई हैं। जबकि पौड़ी में आग की 29 घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं।

नैनीताल में जंगल में लगी आग बुझाते दमकल कर्मी : फोटो साभार - उत्तराखंड वन विभाग

अप्रैल के अंतिम हफ्ते और मई में तापमान में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इसी दौरान आग लगने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। पूरे राज्य में जंगल में आग की 600 घटनाएं हो चुकी हैं, जिससे कुल 810.185 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसमें पौधरोपण का 11.26 हेक्टेयर क्षेत्र भी शामिल है। हालांकि ज्यादातर जगहों पर ग्राउंड फायर ही लगी है। लेकिन नैनीताल के जंगलों की आग ने पेड़ों को भी अपनी चपेट में ले लिया। नैनीताल में दस पेड़ आग में पूरी तरह जल गए।

मुख्य वन संरक्षक (फॉरेस्ट फायर) पीके सिंह बताते हैं कि नैनीताल जिले में आग लगने की सबसे अधिक घटनाएं दर्ज हुई हैं। जिसके चलते वहां धुएं और धुंध का गुबार छा गया। हालांकि दो दिन पहले हलकी बारिश से धुंध छंट गई थी। लेकिन 12-13 मई को आग की घटनाएं भी तेज़ी से बढ़ रही हैं। आज भी राज्य के कई हिस्सों से जंगल में आग की रिपोर्ट मिली है।

पीके सिंह कहते हैं कि आग से निपटने के लिए स्थानीय फायर क्रू स्टेशन में फायर स्टाफ मौजूद है। जिससे हमें तत्काल सूचनाएं मिल जा रही है। जिन जगहों पर आग कई दिनों तक सुलगती रही, उन जगहों का सत्यापन किया जा रहा है कि किन वजहों से आग काबू में नहीं की जा सकी। वे बताते हैं कि जिन जगहों पर सड़क मार्ग की सुविधा नहीं है, जहां आवाजाही की दिक्कत है, वहां आग पर नियंत्रण करने में काफी मुश्किल आती है।

पीके सिंह बताते हैं कि आग की सूचना मिलने पर वन विभाग के कर्मचारी स्थानीय लोगों को इकट्ठा करते हैं। उनकी मदद से जिस जगह आग लगी हुई है, उससे आगे जाकर झाड़ू के ज़रिये सूखी पत्तियों को इकट्ठा कर गैप बनाया जाता है, ताकि आग आगे को न फैल सके। मुख्य वन संरक्षक कहते हैं कि सड़क मार्ग से सटे इलाके में ही फायर ब्रिगेड या पानी के ज़रिये आग बुझाना संभव है लेकिन जंगल में आग को फैलने से रोकने की कार्रवाई की जाती है। या फिर झाड़ू से पीटकर आग बुझाने की कोशिश की जाती है। लेकिन यदि मौसम साथ नहीं देता, तेज़ हवा और अंधड़ चलती है तो आग को फैलने से रोकना मुश्किल हो जाता है।

भारतीय वन अनुसंधान संस्थान से पिछले वर्ष रिटायर हुए डॉ वी के धवन कहते हैं कि वन विभाग ने आग की सूचना मिलने के इंतज़ाम तो किए हैं, लेकिन आग न लगे इसकी तैयारी नहीं की जाती। उनका कहना है कि दिसंबर-जनवरी के महीने में ही कंट्रोल बर्निंग के ज़रिये फायर लाइन की सफाई की जाती है। फायर लाइन तैयार की जाती है। लेकिन विभाग इस पर ध्यान नहीं दे पाता। वे बताते हैं कि फायर लाइन में ही चीड़ के नए पेड़ उग आए हैं। इस वर्ष अप्रैल के महीने में कंट्रोल बर्निंग की जा रही थी, जबकि इस समय कंट्रोल बर्निंग की आग ही भड़क कर जंगल में फैल सकती है।

इसके अलावा जंगल के अंदर पानी के इंतज़ाम से भी आग की समस्या से निपटा जा सकता है। डॉ धवन हिमाचल प्रदेश में सोलन के चीड़ के जंगलों का उदाहरण देते हैं। वहां चीड़ के जंगल के बीच पानी के स्ट्रक्चर तैयार किए गए हैं। जिसमें वर्षा जल संचय किया जा सके। साथ ही पहाड़ियों की ढलान पर नालियां तैयार कर वर्षा जल को पानी के इन जलाशयों में डायवर्ट किया जाता है। इससे जंगल का भूजल स्तर भी बढ़ता है और आग तैज़ी से नहीं फैल पाती। साथ ही जंगल की आग बुझाने के लिए भी पानी का इंतज़ाम हो जाता है।

उत्तराखंड में चीड़ के जंगल बहुतायत में हैं। जिसकी पत्तियां ज्वलनशील होती हैं और आग तेज़ी से फैलती है। डॉ धवन कहते हैं कि हमारे जंगलों में आग अपने आप नहीं लगती, 99 फीसदी मामलों में लोग ही आग लगाते हैं। जानवरों के लिए नई घास के इंतज़ाम में, या फिर लापरवाही की वजह से यही आग भड़क जाती है और बेकाबू हो जाती है। जिसका खामियाजा जंगल में रहने वाले वन्य जीवों को उठाना पड़ता है और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है।

Subscribe to our daily hindi newsletter