हरेला: प्रकृति से जुड़ा लोक पर्व

16 जुलाई को उत्तराखंड में लोक पर्व हरेला मनाया जाएगा

On: Wednesday 15 July 2020
 
उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में रह रही दीपा लोहनी द्वारा तैयार डिकारे। हरेला पर्व की पूर्व संध्या पर हरेले की गुड़ाई के बाद इनकी पूजा की जाती है। फोटो: दीपा लोहनी

चन्द्रशेखर तिवारी

तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा जमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो।’ पहाड़ के लोक पर्व हरेला पर जब सयानी और अन्य महिलाएं घर-परिवार के सदस्यों को हरेला शिरोधार्य कराती हैं तो उनके मुख से आशीष की उक्त पंक्तियां बरबस उमड़ पड़ती हैं।

घर परिवार के सदस्य से लेकर गांव समाज के खुसहाली के निमित्त की गयी इस मंगल कामना में हमें जहां एक ओर ‘जीवेद् शरद शतंम्‘की अवधारणा प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर इस मंगल कामना में प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की दिशा की ओर उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती दिखायी देती है। आखिर प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन एवं पेड़-पौंधों, जीव-जन्तु,धरती,आकाश से मिलकर बने पर्यावरण से ही तो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त मानव व अन्य प्राणियों का जीवन चक्र निर्भर है।

उत्तराखण्ड के अनेक लोक पर्वो में जो विशेषताएं मिलती हैं उनमें मुख्य बात इन पर्वां का प्रकृति,खेती-बाड़ी व पशुपालन के साथ गहनता से जुड़ना है। लोक में व्याप्त इस महत्वपूर्ण अवधारणा को धरातल में साकार रुप प्रदान करने की दृष्टि से ही सम्भवतः यहां के पर्वतीय क्षेत्रों विशेष तौर पर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की यह परम्परा सदियों से चलती आ रही है। स्थानीय समाज में हरेला बहुत ही लोकप्रिय पर्व है। उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस ऋतु पर्व को अन्य स्थानीय उत्सवों में सर्वापरि स्थान मिला हुआ है।

कुमाऊं अंचल में हरेला पर्व श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। पहाड़ में सौरपक्षीय पंचांग का चलन होने से ही यहां संक्रांति से नए माह की शुरुआत मानी जाती है। अन्य त्यौहार जहां वर्ष में एक बार मनाये जाते हैं, वहीं हरेला पर्व सावन के अलावा अशोज और चैत्र माह में भी मनाया जाता है। कुमाऊं के ज्यादतर इलाकों में मुख्यतः सावन वाला हरेला ही मनाया जाता है। 

सम्पूर्ण धरा में जब हरियाली छाने लगती है तब उसी उल्लास में यहां का जन मानस इस पर्व को मनाने की तैयारियों में जुट जाता है। परम्परानुसार हरेला पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। इन पात्रों में उपलब्धतानुसार पांच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा-धान, मक्का, तिल, उरद, गहत, भट्ट,जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है।

’जी रया जागि रया,यो दिन यो मास भेंटने रया दुब जस पनपी जाया, 

अगास जस उच्च, धरती जस चकाव है जाया, सिंह ज तराण,स्याव जस बुद्धि हो,
हिमाव में ह्ंयू रुण तलक गंग-जमुन में पाणि रुण तलक जी रया जागि रया।

घर के देवस्थान में रखकर इन टोकरियां को रोज सबेरे पूजा करते समय जल के छींटां से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं। हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। जन मान्यतानुसार हिमालय के कैलाश पर्वत में शिव व पार्वती का वास माना जाता है। 

इस धारणा के कारण हरेले से एक दिन पहले कुछ इलाकों में शिव परिवार की मूर्तियां भी बनाने की परम्परा दिखती हैं। इन मूर्तियां को यहां डिकारे कहा जाता है।साफ चिकनी मिट्टी से शिव-परिवार की मूर्तियों को सुन्दर आकार दिया जाता है और प्राकृतिक रंगों से इन्हें सुसज्जित किया जाता है। शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है।

हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर-परिवार की सयानी महिलाएं अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पांव,घुटनां व कन्धां से स्पर्श कराते हुए और आर्शीवाद युक्त वचनों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं। और चिरस्थायी रहने की मंगल कामना करती हैं।
लाग सातूं लाग आठूं
लाग हर्याव लाग बग्वाल
जी रयै जागि रयै
दुबाक जाड़ छन जाणै
पातीक पौ छन जाणै
हिमाल ह्यूं छन जाणै
गंग में पाणि छन जाणै
जी रयै जागि रयै

इसका आशय है कि सातूं-आठूं पर्व,बग्वाल पर्व के साथ ही तुम्हें हरेला पर्व शुभ व मंगलदायी हो। तुम इस धरा पर जीवन्त व जागृत बने रहो। दूब की जड़ रहने तक, सदाबहार पाती के पल्लवित होने तक,हिमालय में बर्फ रहने तक, गंगा नदी में जल रहने तक तुम इस धरा पर जीवन्त व जागृत बने रहो। उपरोक्त पंक्तियों में पारिवारिक सदस्यों के दीर्घकाल तक जीते रहने की अदम्य कामना की उपमा हर साल आने वाले पर्वों के उत्साह व दूब व स्थानीय सदाबहार वनस्पति पाती की तरह हराभरा रहने तथा हिमालय की बर्फ व गंगा के पानी के अतुल भण्डार से की है। घर-परिवार-समाज के सुखी व सम्पन्न बने रहने के निहितार्थ इससे बढ़कर आर्शीवाद देने की परम्परा भला और क्या हो सकती है।

खुशहाली और समृद्धि के इस प्रतीक पर्व पर घर के बुजुर्ग लोग की ओर से मिलने वाले आर्शीवचनों का सौभाग्य प्राप्त करने तथा अपने गांव की जड़ो से हमेशा जुड़े रहने मान्यता के कारण रोजी-रोटी के लिए पहाड़ से दूर रहने वाले कई प्रवासी जन हरेले के त्योहार पर अपने घर भी आते हैं। किसी वजह से घर नहीं जा पाने पर परिवार के सदस्य उन्हें डाक अथवा अन्य परिचित लोगों के मार्फत पिठ्यां व अक्षत संग हरेला भेजते हैं। हांलाकि इस तरह की परम्परा में अब आधुनिक समाज में काफी कुछ बदलाव भी आ गया है परन्तु फिर भी इस पर्व अस्तित्व अभी भी बचा हुआ दिखायी देता है।

हरेले के दिन बनने वाले पकवानों का अपना अलग आनन्द रहता है। खीर, पूवा ,पूरी, रायता, उरद के बडा़े का स्वाद निराला ही लगता है। हरेले के दिन बच्चे सवेरे ही जल्दी उठकर नहा धो लेते हैं और हरेला काटने के बाद इन विविध पहाड़ी पकवानों को एक दूसरे के यहां बांटने जाते हैं। हरेला पर्व बहू-बेटियों का उनके मायके की भी याद दिलाता है।

हरियाली रे हरियाली हरिया बण जाली
दुबड़ी कैंछ दुंबै चड़ि जुंलो
चेली कैछ मैं मैतुलि जूंलो
आओ चेलि खिलकन मैत
तुमर बाबु घर तुम्हारे भइयन घर
हरियाली को त्यार ’

इस गीत की पंक्तियों का भाव यह है कि मां अपनी विवाहिता बेटी (जिसका मन मायके आने को उद्यत हो रहा है)को सम्बोधित कर कह रही है कि बेटी मायके में फैली हरियाली तुम्हें हरा-भरा(सुखी सम्पन्न) रहने का आर्शीवचन देने के लिए बुला रही है। दुबड़ी (सातूं-आठूं का पर्व) तुम्हें दूब शिरोधार्य करने के लिए बुला रही है। आओ बेटी आओ अपने खिलखिलाते मायके में आओ तुम्हारे पिता व भाईयों के घर में हरेले का त्यौहार जो है।

गांव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ो का रोपण करने की परम्परा है। लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है।इधर अब जागरुकता के कारण गांव-शहर में फलदार व अन्य किस्म के पौध लगाने की परम्परा ने आन्दोलन के तौर एक नई पहचान बना ली है स्कूल-कालेज व गांव-समाज के सभी लोग अपने स्तर पर पर्यावरण की इस मुहिम को व्यापकता के साथ चला रहे हैं।

यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की बहुत बड़ी भूमिका में नजर आता है। मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है । यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्व को भी दर्शाता है।

परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है। इस तरह यह पर्व तपारिवारिक एकजुटता का संदेश देने में पूरी तरह सक्षम दिखायी देता है। कुमाऊं अंचल के कुछ इलाकों में पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मंदिर में बोया जाता है। पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे। हरेला मेला की यह परम्परा वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊं के बालेश्वर व सुई-बिसुंग में आज भी देखी जा सकती है।

अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर धाम चम्पावत के गौरल चौड़,मैदान भीमताल में रामलीला मैदान, स्थानों में परम्परागत रूप से कौतिक यानि मेले लगते हैं। भीमताल में हरेले के दिन से एक हफ्ते तक लगने वाले मेले की शुरुआत हो जाती है। जागेश्वर में सावन के सम्पूर्ण महीने शिव का जलाभिषेक किया जाता है। इस अवधि में दूर दराज से आये तमाम लोग यहां विधि-विधान से पार्थिव पूजा भी करते हैं। सावन के हर सोमवार को यहां स्थानीय दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ आती है।

कुल मिलाकर देखा जाय तो हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक समग्र अवधारणा निहित है। समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है। ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व हमें प्रकृति के करीब आने का सार्थक संदेश देता है। समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार भी पिछले साल से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की कवायद कर रही है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये स्कूली बच्चों व आम जनता के मध्य जन चेतना और जागरूता पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं जो कि एक नितान्त सकारात्मक पहल है।

नैनीताल से प्रकाशित पाक्षिक समाचार पत्र ’नैनीताल समाचार’ अपने स्थापना वर्ष से यानि 45 सालों से हर साल इस पर्व पर अपने स्थानीय व देश-विदेश के प्रवासी पाठकों को पहाड़ की चिट्ठी के साथ हरेला भेजने की परम्परा का निर्वहन करता आ रहा है। पहाड़ के लोक से लोगों का जुड़ाव निरन्तर बना रहे इस दृष्टि से ’नैनीताल समाचार’ टीम का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है।

कुल मिलाकर हरेला पर्व लोगों को अपनी जमीन से जुड़ने की प्रेरणा तो देता ही है साथ उसे ही कर्मशीलता की ओर भी उन्मुख करने का संदेश देता है ताकि इसके बलबूते वह खेतों में हरेले की तरह सप्त धान्यों की फसल उगाने में सक्षम बना रहे। हरेला पर्व हमें इसी भाव से प्रकृति के प्रति भी संवेदनशील बने रहने व उसके संरक्षण के लिए सदैव सजग रहने की हिदायत देता है। यथार्थ में देखें तो समृद्ध प्रकृति के बिना मानव के खुसहाल जीवन की कल्पना सम्भव भी नहीं है।

सन्दर्भ :

1. रौतेला,जगमोहन, पर्यावरण संरक्षण का त्योहार है हरेला, काफल ट्री,हल्द्वानी.
2. रुवाली,केशब दत्त, कुमाऊक त्यार-बार, अल्मोड़ा बुक डिपो़, अल्मोड़ा
3. पंत, ज्योर्तिमयी, उत्तराखण्ड का आंचलिक पर्व हरेला, अभिव्यक्ति.
4. श्रीमती बसन्ती देवी तिवारी से बातचीत, अल्मोड़ा, फरवरी, 2016 .


लेखक दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं

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