मिसाल: भोजपत्र के वृक्षों को नया जीवन दे रही है हर्षवंती 

पहाड़ सा हौसला रखने वाली पर्वतारोही हर्षवंती बिष्ट ने इस वर्ष अगस्त के पहले हफ्ते में समुद्र तल से 3,775 मीटर ऊंचाई पर बसे भोजबासा से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे भोजपत्रों की नई पौध लगाई है 

By Varsha Singh

On: Thursday 05 September 2019
 
भोजपत्र के पौधों को रोपती हर्षवंती बिष्ट। फोटो: वर्षा सिंह

पहले वहां भोज के पेड़ हुआ करते थे। इंसानों ने उसे बर्बाद कर दिया, लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अब वहां सुबह चिड़िया खूब चहचहाती है। उन पेड़ों पर उनके घोंसले हैं। एक बार स्नो लैपर्ड भी वहां देखा। पहाड़ी बकरियां वहां आती हैं। ये सब देखकर बहुत अच्छा लगता है। मन प्रसन्न हो जाता है।

ये बताते हुए हर्षवंती बिष्ट की आवाज़ में चिड़ियों की सी चहकन आ जाती है। उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क में गौमुख के रास्ते में भोजबासा गांव से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे उन्होंने दूसरी बार भोजपत्र की पौध लगाई है। भोजबासा समुद्र तल से 3,775 मीटर ऊंचाई पर बसा है। पहाड़ सा हौसला रखने वाली पर्वतारोही हर्षवंती बिष्ट ने इस वर्ष अगस्त के पहले हफ्ते में भोजबासा से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे भोजपत्रों की नई पौध लगाई।

गंगोत्री नेशनल पार्क के ही चिरबासा में उन्होंने भोजपत्र के पौधों की नर्सरी लगाई है। इस नर्सरी की देखभाल के लिए वहां दो स्थानीय लोग तैनात हैं। जो ठंड बढ़ने पर दीपावली से पहले नीचे उतर आते हैं। हर्षवंती कहती हैं कि भोज के पौधे कहीं नहीं मिलते। इसलिए चिरबासा में उन्होंने इसकी बकायदा नर्सरी लगाई। दिसंबर-जनवरी के हिमपात में नर्सरी में लगे पौधों की पत्तियां झड़ जाती हैं, लेकिन अप्रैल-मई की गर्मी में दोबारा नई कोंपले फूटने लगती हैं।

जानकार कहते हैं कि कागज की खोज से पहले भोजपत्र के छाल का इस्तेमाल प्राचीन काल में ग्रंथों की रचना के लिए होता था। भोजपत्रों पर लिखी गईं पांडुलिपियां आज भी पुरातत्व संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। हरिद्वार के गुरुकल कांगड़ी विश्वविद्यालय में भी इस तरह का एक संग्रहालय है। ये दुर्लभ किस्म के पेड़ सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाते हैं।

माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन और पेड़ों के कटने से हिमालय में पायी जाने वाली कई वनस्पतियां खतरे की जद में आ गई हैं। भोजपत्र के पेड़ भी इसमें शामिल हैं। जो हिमालयी वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अस्सी के दशक में भोजपत्र के जंगल नाम मात्र को बचे थे।

हर्षवंती बिष्ट उस समय पर्वतारोहण किया करती थीं। 1981 में उन्होंने अपनी दो साथिनों रेखा शर्मा और चंद्रप्रभा एत्वाल के साथ नंदा देवी पर्वत (7,816 मीटर) की चढ़ाई की थी। इसके लिए वर्ष 1981 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार भी दिया गया था। वर्ष 1984 में भारत के एवरेस्ट अभियान दल की भी संस्थापक सदस्य रहीं। वर्ष 2013 में पर्यावरण को लेकर किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए सर एडमंड हिलेरी लीगेसी मेडल दिया गया। 

भोजबासा से 1.5 किमी आगे किया गया दूसरा पौधरोपण। फोटो: वर्षा सिंह

हर्षवंती का पूरा जीवन हिमालय संरक्षण से जुड़ा हुआ है। जिन भोजपत्रों के जंगल के नाम पर भोजवासा जगह का नाम पड़ा, उनके ठूंठ ही बाकी रह गए थे, ये देखकर उन्होंने वर्ष 1989 में सेव गंगोत्री प्रोजेक्ट शुरू किया। 1992 से 1996 तक दस हेक्टेअर में करीब साढ़े बारह हजार भोजपत्र की पौध लगाई। आज उनमें से ज्यादातर पेड़ बन गए हैं। वे नब्बे के दशक की तस्वीरें दिखाती हैं जब भोजवासा बंजर दिख रहा था लेकिन आज की तस्वीरों में वहां भोजपत्र के हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे हैं। वे कहती हैं कि जो पेड़ हमने गंवाए थे, अब फिर बस गए।

वे बताती हैं कि भोजबासा में पेड़ों की तीन प्रजातियां हैं, जिसमें भोज, भांगली और पहाड़ी पीपल शामिल है। इतनी ऊंचाई पर अन्य प्रजातियों के पेड़ों का जीना कठिन हो जाता है। जब तीर्थयात्री और कावंड़िए गोमुख तक आते थे तो पेड़ काटकर चाय या खाना बनाया जाता था। यहीं पर लालबाबा का आश्रम और कुछ अन्य बसावटें भी हैं। जहां तीर्थयात्रियों के ठहरने का इंतज़ाम होता है। आश्रम में चालीस-पचास गाएं रहती थीं तो उनके चारे के लिए भी पेड़ काटा जाता था। जिससे यहां बहुत नुकसान हुआ। हर्षवंती कहती हैं कि मेरे पास ऐसी तस्वीरें हैं कि जिनमें भोज के पेड़ दिखते हैं, उनमें थोड़ी-थोड़ी पत्तियां हैं, फिर वे धीरे-धीरे कटते गये और लापता हो चले।

हर्षवंती कहती हैं कि शुरू से ही मेरा ध्यान गौमुख पर था। गौमुख तक पर्यटन से इकोनॉमिकली तो हमको फायदा मिल रहा था, लेकिन इकोलॉजिकल संकट भी दिखाई दे रहा था। हम अपने जंगल गंवा रहे थे। उसे व्यवस्थित नहीं कर रहे थे। मेरा लक्ष्य था कि इन पेड़ों को वापस लाना है। आज वे पेड़ वापस भी आए और अब उनमें बीज लगने शुरू हो गए हैं।

जलवायु परिवर्तन भी इन पेड़ों के विलुप्त होने के पीछे एक बड़ी वजह रहा। हर्षवंती अपने अनुभवों से  बताती हैं कि गौमुख लगातार पीछे खिसक रहा है। वे सन 1966 की एक तस्वीर का जिक्र करती हैं, जहां गौमुख था, वहां पेड़ नहीं थे, लेकिन आज वहां खुद-ब-खुद पेड़ उग आए हैं। यानी वहां गर्मी बढ़ रही है, इसलिए पेड़ वहां तक पहुंच गए।

हिमालय और उसके ग्लेशियर को लेकर कई शोध हो चुके हैं जो भविष्य के लिहाज़ से बेहद खतरनाक हैं। हर्षवंती बिष्ट कहती हैं कि सिर्फ चिंता करके नहीं, बल्कि ठोस कार्य करके ही हम हिमालय को सुरक्षित बना सकते हैं। हमें ये तय करना होगा कि कैसे कार्बन डाई ऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है। इसके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर करना होगा। आज घर के हर सदस्य के पास उसकी अपनी गाड़ी है। सड़कों पर गाड़ियों का भार बढ़ता जा रहा है।

वे ग्लोबल वॉर्मिंग को हिमालय के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती हैं। आइसलैंड के ओकजोकुल ग्लेशियर के उदाहरण से हमें चेताती हैं, जो अपना अस्तित्व खोने वाला दुनिया का पहला ग्लेशियर बन गया है। अब वहां बर्फ़ के कुछ टुकड़े ही बचे हैं। हर्षवंती कहती हैं कि कहीं ऐसा हमारी ओर भी न हो, इसलिए अभी संभलना चाहिए। हम अपनी जरूरतों को नियंत्रित करें, जिससे मौसम अनुकूल रहे।

 

Subscribe to our daily hindi newsletter