हसदेव अरण्य: उच्च न्यायालय ने लगाई रोक, लेकिन इन सवालों का जवाब बाकी

भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने चार कोल ब्लॉक्स खोलने की सिफारिश की थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट और मंशा पर चार मुख्य सवाल पैदा होते हैं

By Satyam Shrivastava

On: Wednesday 15 December 2021
 
हसदेव अरण्य में भूमि अधिग्रहण पर छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने स्थगनादेश जारी किया है। फोटो: twitter @geofflaw144

बीते एक दशक से ज्यादा समय से छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खनन के खिलाफ चल रहे सतत संघर्ष में एक के बाद एक घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। 13 दिसंबर 2021 को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने उस मूल आपत्ति पर संज्ञान लेते हुए एक नियत अवधि तक कोयला खदान के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर रोक लगा दी जिसका हवाला हसदेव बचाओ संघर्ष समिति पिछले एक दशक से देते आ रही थी। 

13 दिसंबर को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने परसा ईस्ट कोल ब्लॉक के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ न्यायालय की शरण में गए साल्ही, फतेहपुर और हरिहरपुर के चार स्थानीय निवासियों को राहत दी है जिन्होंने यह याचिका लगाई थी कि हसदेव अरण्य संविधान की पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के तहत आता है और यहां पेसा कानून लागू है। इस लिहाज से यहां कोयला संधारित क्षेत्र कानून (कोल बेयरिंग एरिया एक्ट) के तहत जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता जिसमें सरकार को ग्राम सभाओं से सहमति या परामर्श करने की जरूरत नहीं होती। 

हालांकि यह स्टे या लंबन महज पांच व्यक्तियों की याचिका पर दिया गया है और महज एक कोल ब्लॉक के लिए है लेकिन फिलहाल यह एक राहत की बात है क्योंकि इसके बहाने दो केंद्रीय क़ानूनों में टकरावों और उनके कार्य-क्षेत्र को लेकर चली आ रही अस्पष्टता और विसंगतियों को सतह पर ला दिया है। 

13 दिसंबर 2021 को ही देश के 25 से ज्यादा प्रतिष्ठित वन्य जीव संरक्षणवादियों ने भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) और भारतीय वन अनुसंधान परिषद (आईसीएफआरई) की हाल ही में सार्वजनिक हुई रिपोर्ट्स में दर्ज गंभीर दुष्परिणामों और स्थानीय आदिवासी समुदायों को केंद्र में रखते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखा है जिसमें हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खदानें खोलने के निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया है। 

पेसा कानून, 1996 को खारिज करते हुए कोल बेयरिंग एरिया एक्ट (सीबीएए,1957) , का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता यह एक कानूनी और सांवैधानिक तथ्य है। ऐसे मामलों में 2013 में संसद से पारित भूमि अधिग्रहण कानून का इस्तेमाल ही किया जाना चाहिए जहां पेसा क्षेत्र के इलाकों की ग्राम सभाओं को भरोसे में लेते हुए उनकी सहमति को प्राथमिकता दिये जाने का स्पष्ट प्रावधान है। 

हसदेव अरण्य में कोयले के भंडारों पर देश के सबसे अमीर पूंजीपति का दर्जा पा चुके गौतम अडानी का एकाधिकार सुनिश्चित करने के लिए न केवल भाजपा नीत केंद्र सरकार बल्कि कांग्रेस शासित राजस्थान व छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारें भी पूरे मनोयोग से समर्पित हैं। उल्लेखनीय है कि हसदेव अरण्य में मौजूद कोल ब्लॉक्स राजस्थान राज्य विद्युत निगम को आबंटित हुए हैं। हाल ही में राजस्थान सरकार ने इस मामले में सक्रियता दिखाते हुए बार बार राजस्थान में कोयले की कमी के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा कोयले का उत्पादन शुरू न कर पाने को दोषी बताया है। 

इस बीच राजस्थान सरकार ने कई पत्र छत्तीसगढ़ सरकार को लिखे हैं। खबर है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में भी राजस्थान सरकार कोयले के उत्पादन में हो रही देरी के मामले को लेकर गयी है। हालांकि ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार इसमें कोई भी विलंब जान बूझकर कर रही है बल्कि हर संभव प्रयास कर रही है कि राजस्थान राज्य विद्युत निगम को हासिल उन कोल ब्लॉक्स को जल्द से जल्द शुरू करवा दे जिनके एमडीओ अडानी कंपनी को हासिल हैं। 

छत्तीसगढ़ सरकार की सक्रियता को उसके द्वारा की गयी उन कार्यवाहियों के रूप में देखा जा सकता है जो विधि सम्मत नहीं हैं बल्कि जिन्हें एकतरफा अडानी के पक्ष में उठाए गए कदमों के रूप में देखा जा सकता है। ऐसी कई कार्यवाहियों में से एक तो पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में पेसा कानून लागू होते हुए भी भूमि अधिग्रहण के लिए कोल एरिया बेयरिंग एक्ट का इस्तेमाल किया जाना, ताकि कोयला खनन का विरोध कर रहे ग्रामीण समुदायों और ग्राम सभाओं से परामर्श की चुनौती से बचा जा सके।

गौरतलब है कि वर्ष 2015 से ही हसदेव अरण्य क्षेत्र की ग्राम सभाओं ने प्रधानमंत्री और भारत के कोयला मंत्रालय को पत्र लिखकर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके इस समृद्ध जैव विविधतता व सघन वन संपदा के क्षेत्र में मौजूद कोल ब्लॉक्स को नीलामी से बाहर रखा जाए, क्योंकि इस क्षेत्र की ग्राम सभाएं इसकी अनुमति नहीं देंगीं। माना जा सकता है कि यह भी एक बड़ी वजह रही है कि राज्य सरकार ने भूमि अधिग्रहण के लिए पेसा कानून की संवैधानिक शक्तियों को दरकिनार किया है।  

2 अक्तूबर से 13 अक्तूबर 2021 के बीच जब हसदेव अरण्य क्षेत्र के आदिवासी नागरिक जब कोयला खदानों के खिलाफ तीन सौ किलोमीटर की पदयात्रा कर रहे थे, तभी भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) की रिपोर्ट का मसौदा सामने आया। जिसमें कई विसंगतियां हैं लेकिन छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार ने उसके आधार पर चार कोल ब्लॉक्स के लिए वन स्वीकृति लेने की कार्यवाई कर दी। यहां आईसीएफआरई की रिपोर्ट के उस मसौदे के मुख्य बिन्दुओं को जानना भी जरूरी है। 

आईसीएफआरई ने एक अध्ययन 2014 में परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के संदर्भ में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेश पर शुरू किया था जिसमें इस कोल ब्लॉक की वन स्वीकृति पर रोक लगा दी गयी थी। हालांकि देश की न्याय व्यवस्था और पर्यावरण के प्रति देश के नीति नियंताओं की वैश्विक चिंताओं और वास्तविक स्थानीय सरोकारों के बीच चौड़ी खाई के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में इस मामले को समझा जाना चाहिए।

स्थिति यह है कि बिना किसी ऐसे अध्ययन के जिसकी जरूरत राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने अपने 2014 के आदेश में बतलाई थी, उस कोल ब्लॉक को न केवल बिना अध्ययन के अभाव में वन स्वीकृति निरस्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट का स्टे ऑर्डर यथावत बना रहा बल्कि उसकी क्षमता विस्तार भी 10 से 15 मिलियन टन वार्षिक हो गई।

इस ताजा  रिपोर्ट के आधार पर न सिर्फ उस संचालित खदान को वैधता देने की कोशिश है बल्कि 3 अन्य कॉल ब्लॉक्स के लिए रास्ता बनाया गया। यह बताना गैर जरूरी है कि इस खदान का संचालन अडानी कंपनी के द्वारा ही किया जा रहा है। बहरहाल...। 

अगर बात भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद की रिपोर्ट के उस मसौदे की करें, जिसके आधार पर राज्य सरकार ने भारत के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय से परसा कोल ब्लॉक के लिए वन स्वीकृति मांगी तो स्पष्ट हो जाता है कि छत्तीसगढ़ सरकार कैसे इस कोयले के खेल में प्राणपण से शामिल है।

भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद की रिपोर्ट के जारी हुये मसौदे में भी ठीक वहीं तथ्य और चिंताएं शाया होती हैं जो वन्य जीवों के अध्ययन के लिए देश के सर्वोच्च संस्थान भारतीय वन्य जीव संस्थान (डबल्यूआईआई) की रिपोर्ट में दर्ज हुए हैं। 

यह रिपोर्ट भी पुख्ता प्रमाणों और मजबूत तर्कों के साथ हसदेव अरण्य के संरक्षण पर जोर देती है और इस क्षेत्र में खनन के दूरगामी और स्थायी दुष्परिणामों के बारे में सचेत करती है। इसमें दर्ज किया गया है कि   

  • हसदेव अरण्य क्षेत्र इसके पादप भूगोल (phytogeography) और 33 विलुप्तप्राय वृक्ष प्रजातियों की मौजूदगी  के कारण बहुत महत्वपूर्ण हैं जो इसके ‘कोर क्षेत्र’ व कोयला खदानों की परिधि में  पाये गए हैं। “यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ में हाथियों व शेरों जैसे महत्वपूर्ण वन्य जीवों की आवाजाही के नैसर्गिक गलियारे/ कॉरीडोर हैं”।    
  • आईसीएफआरई ने यह भी निष्कर्ष दिये हैं कि खनन के लिए भूमि परिवर्तन के वन क्षेत्र, सघन वन के प्रकार, वनाच्छादन, वनों के विखंडन की वजह से गंभीर दुष्परिणाम होंगे। इसके अलावा वनों के विखंडन से गलियारों के बीच जुड़ाव/कनेक्टिविटी और पैचेज में कमी आएगी, इससे एज एफेक्ट बढ़ेंगे और अगर समुचित प्रबंध नहीं किए गए तो सूक्ष्म जलवायु में परिवर्तन होंगे और अनुचित प्रजातियां तेजी से बढ़ेंगीं जो इस पूरे वन क्षेत्र की नैसर्गिक प्रकृति को नष्ट कर देंगीं।
  • आईसीएफआरई चिंताजनक ढंग से इस बात का भी उल्लेख करती है कि मौजूदा परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान की परिधि में निम्न श्रेणी के वृक्ष पाये गए हैं जिसकी बड़ी वजह चुन चुन कर ऐसे पेड़ों का हटाया जाना है और खुली खदानों व इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों के दुष्प्रभाव हैं । डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि पीईकेबी की परिधि में अभी भी ऐसे महत्वपूर्ण जैव विविधतता का होना पाया गया है जो अनुसूची 1 में शामिल वृक्षों की जैव विविधता में सहयोगी साबित हो सकती हैं।  
  • हाथी-मानव संघर्ष पर आईसीएफआरई ने भी यह दर्ज किया है कि “इस वन क्षेत्र में विकास और खनन से अच्छे पर्यावास पर वनों के विखंडन के कारण बहुत नकारात्मक प्रभाव पैदा होंगे और इससे पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने में गंभीर अंतर बने रहेंगे”।  
  • आईसीएफआरई ने यह भी चेतावनी दी है कि भू-गर्भीय व जलीय संरचनाओं में बदलावों से विशेष रूप से नदी पर गंभीर असर देखे गए हैं और यह प्रभाव खनन के विस्तार से और भी बढ़ेंगे। यह रिपोर्ट दर्ज करती है कि सतही जल की गुणवत्ता और उसकी मात्रा पर हो रहे प्रभाव गंभीर चिंता का विषय है।
  • इस रिपोर्ट में यह भी दर्ज किया गया है कि खनन परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन के सबसे ज्यादा प्रभाव इस क्षेत्र में बसे समुदायों पर आजीविका, पहचान और संस्कृति पर होंगे।  

अडानी द्वारा पहले से संचालित परसा ईस्ट केते बासन को लेकर भी आईसीएफआरई ने कई ऐसे गंभीर कमियों पर भी बात की है जिससे इस क्षेत्र पर खनन के गंभीर परिणाम हो रहे हैं।

इंटेन्सिव खनन के विपरीत एक्स्टेंसिव खनन की वजह से एक साथ एक बड़ा क्षेत्र प्रभावित हुआ है जिसकी वजह से “भूमि की गुणवत्ता पर कई नकारात्मक असर हुए हैं और जो केवल अभी के लिए नहीं हैं बल्कि खदान की पूरी उम्र तक क्षरण की गति को बढ़ा देगी”।

पेड़ों के स्थानांतरण ट्रांसलोकेशन की प्रक्रिया मनमर्जी से अपनाई गयी है। केवल पेड़ों को ट्रांसलोकेट करने के दौरान और उसके बाद कुछ ही सावधानियां बरती गईं हैं। वनों के संरक्षण और अडानी के लापरवाह रवैये को रेखांकित करते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘खनन ऑपरेटर के तौर पर पर्यावरण स्वीकृति के समय तय हुई शर्तों का ठीक ढंग से निर्वाह नहीं किया जा रहा है’।

आश्चर्यजनक ढंग से, डब्ल्यूआईआई द्वारा दिये गए निष्कर्षों और खुद के निष्कर्षों व विश्लेषणों के विपरीत जाकर आईसीएफआरई अपने रिपोर्ट के मसौदे में क्रमश: चार कोयला खदानें, तारा, परसा, परसा ईस्ट और केते बासन को खोले जाने की सहमति भी देती है। यह रिपोर्ट सिफारिश करती है कि चार कोयला खदानें तारा, परसा, परसा ईस्ट और केते बासन को खनन के लिए विचार किया जा सकता है लेकिन इन्हें सख्त पर्यावरणीय सुरक्षा, के साथ काम करना होगा जिसमें सतही जल और जैव विविधतता के ऊपर होने वाले दुष्प्रभावों से निपटने के लिए उचित सुरक्षा मानक अपनाने होंगे। इन चार कोयला खदानों को खोलने के पीछे केवल एक लचर तर्क यह दिया गया है कि ‘देश में कोयले की जरूरत है’ और इसलिए इस इलाके के सामाजिक-आर्थिक और औद्योगिक विकास के लिए खनन के परिचालन पर विचार किया जा सकता है। 

अब दिलचस्प बात यह है कि ये सिफारिशें करना आईसीएफआरई के अध्ययन क्षेत्र में ही नहीं है।  उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने केवल यह जानना चाहा था कि इस क्षेत्र के संरक्षण मूल्य पर अध्ययन किया जाये। किसी भी तरह से, आईसीएफआरई ने डब्ल्यूआईआई की उन आपत्तियों का कोई तार्किक जवाब नहीं दिया है जिसमें वो कहती है कि मौजूदा संचालित हो रही परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान को छोड़कर किसी भी नयी खदान को नहीं खोला जाना चाहिए। 

ऐसे में जब नयी कोयला खदानों को शुरू करने की सिफारिशें न केवल भ्रामक हैं बल्कि अंतर्विरोधी हैं जिसमें खुद यह रिपोर्ट बताती है कि कोयला खनन से इस नैसर्गिक और समृद्ध वन क्षेत्र पर अपरिवर्तनीय दुष्प्रभाव पैदा होंगे शायद यह अतर्विरोधी सिफारिशें करने का औचित्य आईसीएफआरई द्वारा राज्य वन विभाग व परियोजना के प्रस्तावकों व संचालकों से हुए परामर्श से हासिल हुआ है। दिलचस्प है कि डब्ल्यूआईआई ने अपना सर्वे-अध्ययन  स्वतंत्र सर्वेक्षकों व समुदाय के लोगों के साथ आयोजित किए परामर्श के आधार पर तैयार किया है।

इन दोनों रिपोर्ट्स को सार्वजनिक हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ है लेकिन इनमें दर्ज तथ्यों की पुष्टि हाल ही में कटघोरा वन क्षेत्र के मोरगा से लगे जंगल में कई जगह बाघ के पैरों के निशानों ने कर दी है। इस क्षेत्र में बाघ की मौजूदगी और उसके विचरण से राज्य सरकार के वन विभाग ने भी इंकार नहीं किया है बल्कि तत्परता से बाघ की मौजूदगी को ट्रेस करने की कार्य-योजना बनाने पर जोर दिया है। इस नए प्रमाण से जहां राज्य सरकार द्वारा भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों को नजरअंदाज किए जाने की चयनित लापरवाही का पता चलता है बल्कि भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद की रिपोर्ट में विसंगत तरीके से चार कोल ब्लॉक्स खोलने की सिफाइर्श के पीछे के राजनैतिक दबावों की भी पुष्टि होती है।   

इससे आईसीएफआरई की रिपोर्ट और उसकी मंशा पर चार मुख्य सवाल पैदा होते हैं-  

  • आईसीएफआरई के पास कौन से ऐसे ठोस सबूत हैं जिनके बल पर डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट को खारिज किया गया है? जिसमें डब्ल्यूआईआई ने यह स्पष्ट सिफारिश की है कि इस क्षेत्र में किसी भी खनन परियोजना को स्वीकृति नहीं दी जाना चाहिए? तब जबकि आईसीएफआरई खुद अपने विश्लेषण और निष्कर्षों में वह डब्ल्यूआईआई रिपोर्ट की ही पुनरावृत्ति करती नजर आती है कि इस क्षेत्र में खनन के स्थायी और अपरिवर्तनीय दुष्प्रभाव होंगे।
  • आईसीएफआरई कोले की मांग के तर्क पर विचार कर रही है जबकि यह इसके अध्ययन और कार्य-क्षेत्र शर्तों के दायरे में है ही नहीं? जब आईसीएफआरई ने अपने दायरे से बाहर जाते हुए कोयले की मांग की तर्क के आधार पर चार कोयला खदानें खोलने की सिफारिशें की हैं तब क्या उसने कोल इंडिया लिमिटेड  की अपनी रिपोर्ट ‘कोल -विजन, 2030’ पर भी विचार किया है जो खुद मानती है कि देश में कोयले की कोई तात्कालिक जरूरत नहीं है बल्कि पर्याप्त कोयला मौजूद है। और कोई नयी कोयला खदान शुरू किए जाने की जरूरत नहीं है।
  • आईसीएफआरई ने अपनी इस सिफारिश का आधार छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के वन विभाग और परियोजना प्रस्तावकों के साथ हुए परामर्श को बताया है जिससे खुद अपनी ही सिफारिशों व निष्कर्षों के विपरीत जाने का तर्क समझ में आता है। किसी भी तरह से इस अंतिम सिफारिश का फायदा किसे मिलेगा कहना मुश्किल नहीं है। यह भी दर्ज किया जाना जरूरी है कि आईसीएफआरई टीम जो इस अध्ययन में शामिल रही उसने अडानी कंपनी द्वारा प्रदान की गयी सुविधाओं का फायदा लिया है।
  • दिलचस्प है कि एक तरफ आईसीएफआरई मौजूदा संचालित परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान की संरक्षण योजना को अपर्याप्त बताती है लेकिन दूसरी तरफ उसी ऑपरेटर पर यह भरोसा भी जताती है कि नयी कोयला खदानों को इसी शर्त पर अनुमति दी जा सकती है कि इसके ऑपरेटर सतही जल और जैव विविधतता के संरक्षण के लिए सख्त पर्यावरणीय सुरक्षा मानकों का पालन करेगी। ये सिफारिश करते वक़्त भी मौजूदा खदान के ऑपरेटर को पेड़ों के ट्रांसलोकेशन के दौरान अपनाई जाने वाली तय मानक प्रक्रियाओं के प्रति लापरवाही और वन्य जीवों के प्रबंधन को लेकर बनाई गयी योजना को बुनियादी व सामान्य बताती है।

इस पूरे मामले में राज्य सरकार की भूमिका को लेकर भी  गंभीर सवाल पैदा होते हैं जो परसा कोयला खदान की स्वीकृति को लेकर अपनाई गयी प्रक्रिया को लेकर हैं-

  • क्या राज्य सरकार बताएगी कि इन दोनों रिपोर्ट्स के आधार पर हसदेव अरण्य पर होने वाले दुष्प्रभावों को लेकर किस स्तर पर और कितने परामर्श या चर्चाएं हुईं? क्या राज्य सरकार ने ऊपर आए उन चार महत्वपूर्ण सवालों को आईसीएफआरई से पूछा? यदि नहीं तो क्यों नहीं?
  • राज्य सरकार ने आईसीएफआरई और डब्ल्यूआईआई की दोनों रिपोर्ट्स को गहन चर्चा और विमर्श के लिए सार्वजनिक क्यों नहीं किया? तब जबकि इन रिपोर्ट्स का महत्व राज्य व देश के हर नागरिक के लिए है और राज्य में इस क्षेत्र में खनन को लेकर पर्यावरणविद और स्थानीय समुदाय लगातार दशकों से विरोध कर रहे हैं?
  • आईसीएफआरई की अंतिम रिपोर्ट का इंतजार क्यों नहीं किया गया जिसमें वह इस क्षेत्र की जैव विविधतता के आंकलन पर अंतिम निष्कर्ष देती जो इस अध्ययन और मसौदे का मूल आधार था? राज्य सरकार को इतना जल्दी क्यों थी?  
  • क्या राज्य सरकार को अडानी पर यह भरोसा है कि वो डब्ल्यूआईआई और आईसीएफआरई की रिपोर्ट्स में सुझाए गए सख्त व विस्तृत पर्यावरण संरक्षण के सुरक्षा मानक अपनाएगा तब जबकि वह इसमें पूरी तरह विफल रहे हैं और जिसका विशेष उल्लेख दोनों ही रिपोर्ट में किया गया है और इन्हें बेसिक और सामान्य दर्जे का बतलाया गया है?
  • क्या राज्य सरकार के अडानी के हित  संरक्षण या आदिवासियों के अधिकारों से भी ज्यादा सर्वोपरि हैं जिसके लिए इन विशेषज्ञ संस्थानों की चेतावनियों को नजरअंदाज किया जा रहा है? ?  

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