झारखंड में खनन के लिए रिकॉर्ड से हटा दी 3 वाइल्ड लाइफ सेंचुरी

ये तीन वाइल्ड लाइफ सेंचुरी पश्चिमी सिंहभूम जिले में स्थित हैं, जिन्हें 40 साल पहले रिकॉर्ड में शामिल किया गया था

By Ishan Kukreti

On: Wednesday 04 March 2020
 
सारंडा में अनियमित तरीके से खनन किया जा रहा है। फोटो: इशान कुकरेती

वो इलाके, जो जंगली जानवरों से खुशहाल होने चाहिए और वो पशु-पक्षियों से भरे हुए होने चाहिए, उन्हें लौह अयस्क निकालने के लिए पूरी तरह से खोखला करके खुले खदान में बदल दिया गया है।

यह सब झारखंड के राज्य सरकार के हाथों किया गया। सरकार ने लौह अयस्क से समृद्ध पश्चिम सिंगभूम जिले में तीन वाइल्डलाइफ सेंचुरी (वन्यजीव अभयारण्यों) को अपने रिकॉर्ड से मिटा दिया। ये सेंचुरी हैं, सारंडा वन प्रभाग में सासंगदा-बुरु, कोल्हान वन प्रभाग में बमियाबुरु और पोरहाट डिवीजन में सोंगरा या तेबो।

इस योजना को इस कदर चालाकी से लागू किया गया कि इसकी जड़ तक पहुंचने के लिए किसी को 55 साल पुराने रिकार्ड्स खंगालने होंगे। इन सेंचुरी का जिक्र इंडियन बोर्ड फोर वाइल्डलाइफ (आइबीडब्लूएल) जो कि अब वजूद में नहीं है, द्वारा 24 नवम्बर 1965 को जारी एक रिपोर्ट में आया है। यह रिपोर्ट पर्यावरण संरक्षण के लिए बने एक अंतरराष्ट्रीय शिष्टमंडल के लिए तैयार की गई थी।

रिपोर्ट कहती है कि बिहार (विभाजन से पहले) में सात संरक्षित क्षेत्र हैं, जिनमें दो राष्ट्रीय उद्यान और पांच वाइल्ड लाइफ सेंचुरी हैं। वर्ष 1970 के वन अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट में भी इन वनों का जिक्र है।

लेखक पी. वेंकटस्वामी ने अपनी किताब में कहा है कि सोंगरा अभयारण्य को 1932 में बनाया गया था और बाकी दो को वर्ष 1936 में बनाया गया। इन दोनों सेंचुरी को वन्य जीव संरक्षण कानून 1972 के लागू होने के बाद से विलोपित कर दिया गया। इस कानून को लिखने वाले रिटायर्ड सरकारी अधिकारी एमके रणजीतसिंह कहते हैं,"अधिनियम कहता है कि इस कानून के आने से पहले अधिसूचित सेंचुरी को सेंचुरी माना जाएगा।"

बावजूद इसके वर्ष 1972 के बाद प्रकाशित सरकार के किसी भी दस्तावेज में बमियाबुरु और सोंगरा सेंचुरी का जिक्र नहीं आया। इन सेंचुरी के बारे में जानकारी इतनी कम है कि जानकर भी इनके स्थान का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लगा पा रहे। रणजीतसिंह कहते हैं कि अगर वे सेंचुरी वहां नहीं है तो इसका सीधा मतलब है कि उन्हें जानबूझकर गायब किया गया है। तीसरी सेंचुरी सासंगदाबुरु का जिक्र सारंडा वन क्षेत्र के कार्य योजना में वर्ष 1976-77 से 1995-96 में आया था।

इसमें कहा गया कि सारंडा और सासंगदा एक गेम सेंचुरी है और 314 वर्ग किलोमीटर में फैला हुई है। गेम सेंचुरी का मतलब, वो जगह जहां जंगली जीव आरक्षित रह सकें और खेल की तरह शिकार कर सकें। यह कार्ययोजना कहती है कि सेंचुरी को फरवरी 1968 में अधिसूचित किया गया और इसमें थोलकाबाद का 10,244 हेक्टेयर, करमपादा का 4,444 हेक्टेयर, कोडलीबाद का 2,224 हेक्टेयर, तगूदा का 56 हेक्टेयर,  कारूजगदबुरु का 34, सामता का 4,907 और तिरिपोसी का 9,586 हेक्टेयर वन क्षेत्र शामिल है। 

झारखंड के प्रधान मुख्य वन संरक्षक शशि नंद कुलियार कहते हैं कि वो दस्तावेजों के आधार पर तीनों सेंचुरी को खोजने की कोशिश कुछ वर्ष पहले कर चुके हैं, लेकिन नाकामी हाथ लगी।

स्टील के लिए छीन लिया जंगली जीवों का घर
जंगलों पर कानूनी अभियान चलाने वाले आरके सिंह मानते हैं कि 1996 के बाद सारंडा के दस्तावेजों को आगे जारी नहीं रखा गया क्योंकि वर्ष 2000 के आसपास स्टील अथॉरिटी इंडियन लिमिटेड (सेल) सहित कई लीज बढ़ाने का समय आ गया था। करमपादा जहां अभयारण्य होना था वहां 879 हेक्टेयर में लौह अयस्क के लिए सेल ने खोखला कर दिया। अब वह इलाका खुशहाल जंगल के बजाय लाल मिट्टी के गंदे नालों के जंजाल की तरह दिख रहा है। वन्य जीव संस्थान की 2016 की रिपोर्ट कहती है कि 300 प्रजाति के जीव के बजाय अब वहां सिर्फ 87 प्रजाति ही बचे हैं। वर्ष 2010 में 253 हाथी पाए गए थे जबकि 2016 में एक भी हाथी नहीं दिखा। 

ऐतिहासिक रूप से सारंडा के खदान बोकारो और रौरकेला जैसे इस्पात नगरियों के लिए स्टील देता रहा है। सरकार ने स्टील उत्पादन को लगातार बढ़ाया जिससे जंगल को काफी क्षति हुई। खनन की वजह से सिंहभूम जिले में 2001 से 2019 के बीच वन 3,366 वर्ग किलोमीटर से घटकर 361 वर्ग किलोमीटर रह गया।   

कानून से बचने के लिए गायब कर दिए जंगल
विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर यह इलाका रिकॉर्ड में अभयारण्य रहता तो खनन की अनुमति मिलना मुश्किल था। 14 फरवरी 2000 को सुप्रीम कोर्ट में टीएन गोदावर्मन केस में कहा गया था कि अभयारण्य में पड़ा एक पत्ता या घास का टुकड़ा भी नहीं खोदा जा सकता। 4 अगस्त 2006 को अदालत ने कहा था कि सेंचुरी के एक किलोमीटर के दायरे में खनन नहीं किया जा सकता। 4 दिसंबर 2006 में कोर्ट ने कहा था कि अभयारण्य के 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले प्रोजेक्ट की नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्डलाइफ से अनुमति लेनी होगी। सिंह कहते हैं कि इन आदेशों की तरफ देखें तो अभी के खदान गैरकानूनी हैं।

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