भाषा के साथ खत्म होती हैं अनुभूतियां

जरूरी नहीं है कि लिखित भाषाएं ही परिपक्व हों, हमारी बहुत सी भाषाएं वाचिक साहित्य का हिस्सा हैं - अन्विता अब्बी

By Anvita Abbi

On: Friday 02 July 2021
 

जब से शिक्षा नीति में एक या सिर्फ दो ही भाषाओं को प्राथमिकता दी गई, तब से हमारी अन्य बोली जाने वाली भाषाएं हाशिए पर खिसकती गईं और उनका अस्तित्व धीरे-धीरे मिटने लगा। आज देश में 197 परिपक्व भाषाएं मृत्यु की कगार पर खड़ी हैं। ये भाषाएं किसी भी रूप में हीन नहीं हैं वरन देश की बाकी भाषाओं से अधिक सक्षम हैं। विडंबना यह है कि हमारे आधुनिक समाज ने इन भाषाओं को हमारी शिक्षा, न्यायिक और राजनीतिक पद्धति से दूर रखा। सरकार का रवैया कुछ ऐसा रहा कि हिंदी भाषा के अंतर्गत 57 भाषाओं को बोलियों में समावेशित कर दिया गया। यानी इन 57 भाषाओं को भाषा दर्जा ही नहीं दिया गया, चाहे वह समृद्ध भाषा अवधि हो या ब्रज या राजस्थानी। सरकार तो 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाने भाषा की गणना भी नहीं करती।

हमारी ज्यादातर भाषाएं वाचिक साहित्य का हिस्सा हैं। ये भाषाएं एक सामूहिक दस्तावेज हैं जो समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलता है। सारा समुदाय इनको सुनता, गाता और मनन करता है। वाचिक साहित्य में एक धारा की भांति बहने की प्रवृत्ति होती है जो लिखित साहित्य में नहीं है। वह गद्य, पद्य, नाच, गान को अलग इकाई के रूप में न देखकर सभी विधाओं को संपूर्ण इकाई के रूप में देखता है। और फिर समाज, उसकी सोच, उसके अनुभवों और उसकी विश्व दृष्टि से जोड़ने की कोशिश करता है। सामाजिक समावेशिता के कारण वाचिक साहित्य जीवन के हर अंग, हर मोड़, हर सुख, हर दुख को पूर्ण रूप से परिलक्षित करता है। बच्चे के जन्म से लेकर मनुष्य की मृत्यु तक के हर पड़ाव से जोड़ते हुए गीत हमारे पास हैं।

हर सुख-दुख के पल के लिए गीत और कवित्त हमारे पास हैं। ये खूबी लिखित साहित्य में कहां? इसीलिए वाचिक साहित्य को कभी मरने मत दीजिए। चूंकि मातृभाषा हमारी सोच की, हमारी अनुभूति की, हमारे अनुभव की, हमारे दर्शन की, हमारी विश्व दृष्टि का नतीजा होती है, इसलिए हमें स्कूलों में मातृभाषा में ही शिक्षा देनी चाहिए। बच्चों के पहले चरण की पढ़ाई मातृभाषा में होनी चाहिए ताकि वह अपनी अनुभूति को शब्द दे सके। आज देश में 2011 की जनगणना के हिसाब से 1,369 मातृभाषाएं हैं जिनमें 800 भाषाएं वाचिक रूप में मौजूद हैं। इन सबको बोलने वाले दूर दराज के जंगलों या पर्वतों में रहने वालों को छोड़कर सभी बहुभाषी या एक से अधिक बोलियां बोलने वाले हैं।

दुनियाभर में अलग-अलग संस्थान अलग-अलग से ढंग भाषा की परिपक्वता पर अपना सूचकांक बनाती हैं, जैसे युनेस्को और एथनोलॉग का अपना इंडेक्स है। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में हम भाषाविज्ञानियों ने दोनों इंडेक्स में काफी बदलाव किए हैं। दरअसल, इन संस्थाओं का सूचकांक इस बात पर निर्भर करता है कि भाषा लिखी जाती है या नहीं। इस बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि हिंदुस्तान में 800 भाषाएं ऐसी हैं जो कभी नहीं लिखी गईं। ये हजारों सालों से ऐसे ही चली आ रही है।

ये बहुत परिपक्व हैं। ये जरूरी नहीं है कि लिखित भाषाएं हीं मजबूत हैं। बहुत सी भाषाएं चिरकाल से इसीलिए चली आ रही हैं क्योंकि वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हो रही हैं। इससे भाषाओं में नए आयाम आते हैं। अगर हम युनेस्को या एथनोलॉग की दृष्टि से देखें तो इनमें से अधिकांश भाषाएं मरने वाली हैं। इसीलिए हमारे मापदंड और होने चाहिए। हम पश्चिम की नकल क्यों करें? हम वाचिक साहित्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि जिस भाषा की लिपि नहीं होती है, वह कमजोर होती है। यह भ्रम है।

जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं है जिसे भाषा न छूती हो। जब भाषा मरती है तो उसके साथ-साथ हमारा बहुभाषिता खत्म हो जाती है। असल में सारा का सारा समाज ही खत्म हो जाता है। वातावरण के साथ सब तरह का ज्ञान खत्म हो जाता है। पर्यावरण और भाषा में गहन और अटूट संबंध है। ग्रेट अंडमानी लोगों के पास गंध के कई शब्द थे। उन गंधों के नाम अलग थे। हमने ऐसी 17-18 गंधों के नाम पता किए। अब इन गंधों की जानकारी खत्म हो गई है। इसी तरह समुद्र के तट के ही चार शब्द हैं। बालू के हिस्से को अलग, गीले हिस्से को अलग, टखने तक के पानी वाले हिस्से को अलग और घुटने तक पानी वाले हिस्से के लिए अलग शब्द हैं। बीच समुद्र का अलग नाम है। मैंने ग्रेट अंडमानी भाषा में 97 शब्द चिड़ियों के पता लगाए थे। एक अंडमानी लड़के ने मुझे चिड़ियों के ज्ञान और उनके नामों से परिचित कराया।

अब ग्रेट अंडमानी समाज के लोग इन नामों और चिड़ियों की पहचान से अनभिज्ञ हैं। इसीलिए मैं कहती हूं कि भाषा हमारी अनुभूतियों से जुड़ी रहती है। इसके मैं दो उदाहरण दूंगी। दक्षिण अमेरिका में बोली जाने वाली माया भाषा में तितलियों को नीले रंग के नौ तरह के शब्द थे। वहां स्पेनिश भाषा आने पर वो शब्द तीन शब्दों में सिमट गए। इस तरह अगली पीढ़ी की अनुभूति भी तीन रंगों में सिमट गई। इस तरह रंगों की उनकी अनुभूति खत्म हो गई। इसी तरह ओडिशा कोरोपुट में हरित क्रांति से पहले 1,800 किस्म के चावल बोए जाते थे, लेकिन अब वे शब्द खत्म हो चुके हैं। चावल की तीन-चार चुनिंदा किस्में ही बची हैं। उन नामों के साथ चावल को खाने वाले स्वाद के नाम भी खत्म हो गए। लोग बताते हैं कि अब पहले वाला स्वाद खत्म हो गया है। उन्हें उन स्वाद का नाम भी याद नहीं है। जब हम विविधता खत्म करके एकरूपता लाते हैं तो यही परिणाम सामने आता है। इसीलिए हम सकते हैं कि भाषा हमारी अनुभूति को पकड़ती है। भाषा के मरने ये अनुभूति भी मर जाती है।

(भागीरथ से बातचीत पर आधारित)

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