केरल में अपनी ही जमीन से क्यों बेदखल किए जा रहे हैं ये आदिवासी

केरल के अट्टपाडी ब्लॉक के जनजातीय समुदायों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है, वह भी तब जब उनके हितों की रक्षा के लिए बाकायदा कानून बने हुए हैं

By Jeff Joseph

On: Wednesday 17 May 2023
 
एक ऊर्जा कंपनी ने अट्टापडी पहाड़ियों में आदिवासी भूमि पर अवैध रूप से पवन चक्कियां खड़ी कर दीं। राज्य सरकार ने कंपनी को वहां से हटने का आदेश दिया लेकिन उस आदेश पर अभी तक अमल नहीं हो सका है (फोटो : जेफ जोसेफ)

केरल के नीलगिरी की तराई में स्थित अट्टपाडी ब्लॉक अपनी खेती, उत्पादकता और आदिवासी समुदायों के लिए जाना जाता है। एकीकृत जनजातीय विकास परियोजना (आईटीडीपी) डेटा से पता चलता है कि ब्लॉक में 33,000 यानी राज्य की जनजातीय आबादी का 6 प्रतिशत हिस्सा रहता है। यह केरल का एकमात्र ब्लॉक भी है जहां आदिवासी समुदायों के पास ऐतिहासिक रूप से भूमि पर स्वामित्व है। हालांकि, अब उन्हें उनकी ही जमीन का “अतिक्रमणकारी” बताया जा रहा है। उनमें से कई आदिवासी परिवार गैर-आदिवासी के साथ कानूनी विवादों में उलझे हुए हैं। ये गैर-आदिवासी मुख्य रूप से केरल और पास के तमिलनाडु से हैं। उनका दावा है कि उनके पास जमीन बिक्री का सबूत है। हालांकि केरल के कानून ऐसी बिक्री को प्रतिबंधित करते हैं।

ऐसा ही एक मामला नानजियम्मा का है। नानजियम्मा ने जुलाई 2022 में अयप्पनम कोशियम फिल्म में अपने गीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था और उसके बाद उनकी एक पहचान बनी। ऐसे समय में जब उनके परिवार को इस जीत का जश्न मनाना चाहिए था, वे जमीन के अधिकार की लड़ाई में उलझे हुए थे। दो हफ्ते पहले पलक्कड़ के एडिशनल ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने 0.2 हेक्टेयर जमीन पर एक पेट्रोल पंप स्थापित करने की अनुमति दी थी, जो ऐतिहासिक रूप से नानजियम्मा के परिवार के स्वामित्व वाली भूमि का हिस्सा है और दशकों से इसके स्वामित्व को लेकर विवाद चल रहा है।

नानजियाम्मा के ससुर नागन ने 1962 में अपनी कुल 1.9 हेक्टेयर भूमि में से 0.5 हेक्टेयर भूमि तमिलनाडु के एक किसान मेरिबोयान को पट्टे पर दे दी थी। उसी साल सरकार ने अट्टपाडी को एक आदिवासी बहुल ब्लॉक घोषित किया और 1975 में केरल अनुसूचित जनजाति (भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध और अन्य भूमि बहाली पर प्रतिबंध) अधिनियम पारित किया। इससे गैर-आदिवासियों के हाथों आदिवासी भूमि की बिक्री पर रोक लग गई। तब तक, मेरिबोयान ने कथित तौर पर नागन द्वारा पट्टे पर दी गई भूमि से संबंधित एक नकली सेल डील तैयार कर लिया था। 1975 के अधिनियम के तहत नियम बनाए जाने के बाद 1986 में नागन ने मेरिबोयान के दावों को खारिज करने का अनुरोध किया।

बाद में इस तरह के और मामले सामने आए। इसके बाद राजस्व विभागीय अधिकारी (आरडीओ), ओट्टापलम, पलक्कड़ ने 1995 में अट्टपाडी के 4,300 हेक्टेयर जनजातीय भूमि की बहाली का आदेश दिया। नागन को भी एक आदेश प्राप्त हुआ जिसमें जमीन पर मेरिबोयान के दावे को रद्द कर दिया गया था लेकिन उनके बेटे कंदास्वामी बोयान ने इस आदेश को चुनौती दी। नानजियम्मा कहती हैं,“मेरे ससुर और मेरे पति नानजन जमीन पर अधिकार की लड़ाई लड़ते हुए इस दुनिया से चले गए। बोयान की भी मौत हो गई है लेकिन उसका परिवार अभी भी इस जमीन पर अपना दावा बनाए हुए है।”

1999 में भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध, 1975 के अधिनियम को बदल कर एक नया कानून लाया गया। यह नया कानून गैर-आदिवासियों के पास अगर 2 हेक्टेयर से कम जमीन हो तो आदिवासी भूमि खरीदने की अनुमति देता है। इस वजह से आरडीओ ने 2020 में बोयान के परिवार की दलील की समीक्षा की और उनके पक्ष में आदेश दिया। नानजियम्मा ने आरडीओ के आदेश को चुनौती दी।

0.5 हेक्टेयर जमीन विवादित है लेकिन फिर भी इसकी खरीद-बिक्री जारी रही। 2009 में इब्राहिम, जो खुद को कंदास्वामी का बेटा होने का दावा करता है (आधिकारिक रिकॉर्ड में उसके पिता की पहचान में विसंगतियां हैं), ने एक गैर-आदिवासी केवी मैथ्यू के हाथों 5 लाख रुपए में जमीन बेच दी। फरवरी 2010 में मैथ्यू को स्वामित्व से जुड़ा कानूनी आदेश मिला। बाद में मैथ्यू ने दिसंबर 2017 में एक अन्य गैर-आदिवासी व्यक्ति जोसेफ कुरियन को 0.5 हेक्टेयर जमीन में से 0.2 हेक्टेयर जमीन बेच दी। यही जमीन पेट्रोल पंप के लिए स्वीकृत भूमि है। कुरियन कहते हैं, “कानून के अनुसार, जमीन पर मेरा पूरा अधिकार है। मैं इसे तब तक नहीं छोड़ूंगा जब तक कि अदालत इसका आदेश न दे।“

हर बार, कोर्ट से नोटिस मिलाने के बाद ही नानजियम्मा को जमीन स्वामित्व में बदलाव के बारे में जानकारी मिली, वह भी काफी देर से। लेकिन नानजियम्मा ने उम्मीद नहीं खोई है। वह कहती हैं, “मैं अगली पीढ़ी के लिए अपनी जमीन वापस पाने से पहले नहीं मरूंगी।”

नानजियाम्मा का मामला कोई अपवाद नहीं है। दशकों से अट्टपाडी में आदिवासी भूमि को लेकर इस तरह के अनेक मामले सामने आए हैं। आईटीडीपी-अट्टपाडी द्वारा 1982 में प्रकाशित “सर्वे रिपोर्ट ऑफा ट्राइबल लैंड्स एंड कलेक्शन ऑफ डाटा ऑफ द ट्राइबल, वॉल्यूम-II” के अनुसार, 1960 से 1977 के बीच आदिवासी समुदायों को लगभग 4,064 हेक्टेयर जमीन का नुकसान हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, 1940 के दशक से अट्टपाडी में बसे तमिलनाडु और केरल की गैर-आदिवासी आबादी ने आदिवासी समुदायों से जमीन लीज पर ली और बाद में जाली स्वामित्व वाले कागजों के सहारे या उनसे सादे कागज पर हस्ताक्षर करवा या कम कीमत चुकाकर बिक्री दस्तावेज हासिल कर लिए।

कागज की जालसाजी

जानकारी के बाद भी जमीन पर मालिकाना हक के झूठे दावों की पहचान करने में काफी दिक्कतें है। नाम न छापने की शर्त पर अगाली स्थित सब-रजिस्ट्रार कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “हम केवल यह देखते हैं कि जमीन बेचने वाला व्यक्ति कानूनी रूप से ऐसा करने के लिए अधिकृत है या नहीं, क्या उसकी पहचान सत्यापित है और हम प्रस्तुत किए गए सभी कागजात की सत्यता की जांच करते हैं।” अधिकारी का कहना है कि ऐसी जनजातीय भूमि के सर्वेक्षण और सीमांकन की आवश्यकता है जिसका लेन-देन नहीं किया जा सकता है या गैर-आदिवासियों को बेचा नहीं जा सकता है। नाम न छापने की शर्त पर आईटीडीपी-अट्टपाडी के एक अधिकारी बताते हैं कि जमीन सौदों के लिए अनापत्ति प्राप्त करने का भी कोई प्रावधान नहीं है।

तमिलनाडु के कोयंबटूर में आदिवासी अधिकारों पर काम करने वाले एक स्वतंत्र शोधकर्ता सीआर बिजॉय कहते हैं कि भारत में भूमि के स्वामित्व के साथ मूलभूत समस्या यह है कि इसे साबित करने के लिए कोई अकेला दस्तावेज नहीं है। वह कहते हैं, “स्वामित्व का मसला अदालत में सहायक दस्तावेजों के आधार पर तय किया जाता है।” इनमें भूमि कर रसीदें और कब्जे के प्रमाणपत्र शामिल हैं, जिन्हें जाली तरीके से अदालत में पेश कर आदिवासियों को उनकी ही जमीन पर अतिक्रमणकारी बता कर हटाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

ऐसा ही एक उदाहरण अगाली के बूथीवाझी के उन्नीकृष्णन मारुथन का है। उनके पास 2.02 हेक्टेयर जमीन है। तमिलनाडु के एक गैर-आदिवासी माइलासामी एन और उनका परिवार अब इस जमीन पर मालिकाना हक पेश कर रहा है। उन्नीकृष्णन कहते हैं, “उनके रिकॉर्ड से पता चलता है कि 1965 से 1969 के बीच मेरे चाचा और दादी ने उन्हें यह जमीन बेची थी। ओल्ड मद्रास रजिस्ट्री के अनुसार, जमीन मेरे दादा के नाम पर है। अन्य सभी रिकॉर्ड भी दिखाते हैं कि यह हमारी जमीन थी।” इसी आधार पर उन्नीकृष्णन के पिता मरुथन ने माइलासामी के दावों को चुनौती दी और उन्हें 1975 के अधिनियम के तहत उसके मालिकाना हक को रद्द करवा दिया। लेकिन उस आदेश पर अभी तक अमल नहीं हो सका है और जमीन पर मालिकाना हक अभी भी माइलासामी के परिवार के पास है।

उन्नीकृष्णन का दावा है कि 1999 के अधिनियम के अनुसार भी ओट्टापलम के आरडीओ और जिला कलेक्टर ने माना था कि माइलासामी जमीन पर अपना स्वामित्व साबित नहीं कर सके। इसके बाद माइलासामी एन और उनके परिवार ने हाई कोर्ट का रुख किया, जिसने ऐसे मामलों में आरडीओ और कलेक्टर के आदेश के खिलाफ फैसला सुनाया। उन्नीकृष्णन ने इसके खिलाफ अपील की जो उच्च न्यायालय में लंबित है। वह कहते हैं, “दावेदारों ने आपसी सहमति से समझौते के लिए मेरे पिता की जमीन वापस करने की पेशकश की है।” इसे स्वीकार करने का अर्थ होगा कि मेरे चाचा के हाथ से जमीन निकल जाएगी।

ताकतवर संस्थाओं की एंट्री

आदिवासी समुदाय अभी भी पुराने मामलों पर फैसले के इंतजार में है और दूसरी तरफ तमिलनाडु के कोयम्बटूर में रियल एस्टेट सेक्टर में आई तेजी के कारण अट्टपाडी में बड़ी कॉर्पोरेट संस्थाओं का प्रवेश उनके संकट को बढ़ा रहा है। उदाहरण के लिए, 2010 में राज्य सरकार ने पाया कि एनर्जी प्लेयर सुजलॉन ने अट्टपाडी पहाड़ियों में आदिवासी भूमि पर अवैध रूप से पवन चक्कियां खड़ी कर दीं। आखिरकार राज्य सरकार ने कंपनी को वहां से हटने का आदेश दिया लेकिन उस आदेश पर अभी तक अमल नहीं हो सका है। एक अन्य मामले में अट्टपाडी के कोट्टाथारा गांव की चेल्लम्मा पी भी अपने 1.58 हेक्टेयर जमीन के स्वामित्व के लिए मुंबई की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से संघर्ष कर रही हैं।

उसका संघर्ष 2015 में तब शुरू हुआ जब मैथ्यू कचपल्ली के नेतृत्व में गैर-आदिवासियों के एक समूह ने उसकी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की। इनका कहना था कि चेल्लम्मा के पिता ने उनके हाथों यह जमीन बेच दी थी। चेल्लम्मा का परिवार ऐसी किसी भी बिक्री या दावेदारों से मिलने तक से भी इनकार करता है। चेल्लम्मा ने इस दावे के खिलाफ अट्टपाडी सेटलमेंट रजिस्टर से रिकॉर्ड निकाल कर दिया, जिसे आखिरी बार 1962-64 में अपडेट किया गया था और जिसमें उनके दादा को जमीन मालिक के रूप में दिखाया गया था। 2019 में कंपनी ने कचपल्ली से जमीन खरीदने का दावा करते हुए मामला दर्ज कराया। चेल्लम्मा ने इस अवैध डील के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की है।

उलझी राजनीति

मलयालम अखबार मध्यमाम के पत्रकार आर सुनील कहते हैं, “अट्टपाडी में बड़े पैमाने पर जनजातीय भूमि का विवाद देखा जा सकता है।” उनका कहना है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण यह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। एक तो राज्य की आबादी का 1.5 प्रतिशत से भी कम यह आदिवासी समुदाय राजनीतिक रूप से ताकतवर नहीं हैं और दूसरी तरफ जमीन पर नजर गड़ाए लोगों की राज्य की राजनीति में गहरी पैठ है। रेवोलुशनरी मार्क्सवादी पार्टी से जुड़े केरल विधानसभा के सदस्य केके रेमा कहते हैं, “अट्टपाडी में आदिवासी भूमिहीन नहीं हैं। उनके पास स्वामित्व दिखाने के लिए दस्तावेज हैं लेकिन उनके पास अपने अधिकारों को लागू करने का कोई साधन नहीं है। सरकारी विभागों ने सर्वेक्षण से इनकार कर दिया और उन्हें टाइटल जारी कर दिया जबकि अन्य लोग खुले तौर पर उनकी जमीन हड़प लेते हैं।” उन्होंने पिछले साल जब इस मुद्दे को उठाया था तब राज्य के राजस्व मंत्री से आश्वासन मिला कि भूमि राजस्व आयुक्त से जांच कराई जाएगी। रिपोर्ट इस साल 28 जनवरी को सौंपी गई थी। इस रिपोर्ट में अकेले अट्टपाडी में 22 आदिवासी भूमि हस्तांतरण के मामलों को सूचीबद्ध किया गया है, लेकिन सिर्फ नानजियम्मा के मामले पर इसमें विस्तार से बात की गई है। इसमें नानजियम्मा की पुश्तैनी जमीन के लेन-देन की जांच करने और अवैध पाए जाने पर उसे रद्द करने की जरूरत का जिक्र है। रिपोर्ट ने जनजातीय भूमि की बहाली के लिए 1999 अधिनियम के सभी प्रावधानों के निष्पादन की सिफारिश की है। नानजियम्मा कहती हैं, “सवाल सिर्फ मेरी जमीन का नहीं है। अट्टपाडी के सभी आदिवासी लोगों की यही दुर्दशा है। हम चाहते हैं कि हमारी जमीनें हमें फिर से दी जाएं।”

(जेफ जोसेफ लैंड कंफ्लिक्ट वॉच के शोधकर्ता हैं। यह भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और नेचुरल रिसोर्स गवर्नेंस का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है)

Subscribe to our daily hindi newsletter