आखिर विकास हो किसका रहा है?

क्या खनन से होने वाले प्राकृतिक विनाश की हम पूरी तरह से भरपाई कर पाएंगे?

On: Thursday 18 February 2021
 
छत्तीसगढ़ के सोनाखान इलाके में अपनी जमीन को खनन से बचाने के लिए गांवों के लोग हर संभव प्रयास कर रहे हैं। फोटो: तेजस्विता

तेजस्विता 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 120 कि.मी. की दूरी पर पिथौरा नाम का ब्लॉक है। इस क्षेत्र का एक बहुत बड़ा इलाका घने जंगलों से आबाद है। यह जंगल न केवल वनस्पति और जीवों से समृद्ध हैं, बल्कि यहां पर पिछले 70-80 साल से कईं छोटे-बड़े गांव भी बसे हैं। इसी जंगल में 24 गांव की 474 हेक्टेयर भूमि, सोनाखान क्षेत्र में आती है। घने जंगल से सटे होने के कारण बाघमारा का यह क्षेत्र पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र में आता है और प्रस्तावित खनन से सीधे-सीधे प्रभावित होगा। प्रस्तावित खनन क्षेत्र में जंगली जीवों का एक बड़ा समूह है, जिसमें बाइसन, भालू, तेंदुआ, बाघ, हिरण और कई अन्य वन्य प्राणी शामिल हैं; यह इलाका हाथियों के मुक्त आवागमन का क्षेत्र भी है।

सोनाखान में सोने के खनन के लिए चिह्नित क्षेत्र में 2 लाख से अधिक पेड़ हैं, जिनमें बांस, तेंदू, महुआ और कई अन्य छोटे वन उत्पाद और कई प्रकार की इमारती लकड़ी शामिल हैं। इन समृद्ध, घने जंगलों के विनाश से कीमती वन्य जीवों का विनाश होगा और मानव-पशु संघर्ष और ज्यादा बढ़ेगा। यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रहा है जो कि 18वीं सदी में शहीद वीर नारायण सिंह का जमींदारी क्षेत्र था। इस से यह बात तो स्पष्ट होती है कि वहां के बसे गांवों का वहां के जंगलों से कई पीढ़ियों पुराना रिश्ता है और संसाधनों से संपन्न अपनी प्रकृति के साथ लोग सौहार्दपूर्वक जीवन बिताते आए हैं।

आश्चर्य और विडंबना की बात पर यह है कि एक हाथ पर बीते कुछ सालों में इस (सोनाखान और उसके आसपास के) क्षेत्र में कुछ जगहों पर जमीन के नीचे सोना पाया गया है। फरवरी 2016 में खबर मिली कि वहां अब खनन करने का अधिकार वेदांता कंपनी को मिल गया है। लंबे समय तक प्रशासन ने इस बात को सिर्फ अफवाह बताया था, और बिना लोगों के चर्चा के ही सोनाखान में कंपनी को ये 474 हेक्टेयर जमीन में खुदाई की इजाजत दे दी। भारत में पहली बार सोने की खान की नीलामी यहीं की गई, जिसे खूब बढ़-चढ़ कर जीत की तरह बताया गया। छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार जिले के बाघमारा गांव में सोने की खदान के प्रोस्पेक्टिंग कम माइनिंग लाइसेंस वेदांता को दिए गए हैं, जिसमें केवल 2700 किलो सोना होने का अनुमान है। जिस हिस्से में खनन के लिए लाइसेंस दिया गया है वहां, उसमें से 414 हेक्टेयर तो वन्यजीव से बहुल वन क्षेत्र है।

सोनाखान इलाके में बसे लोगों का कहना है कि लम्बे समय तक नीलामी और होने वाली खनन की सूचना से लोग अंजान थे। जब लाइसेंस मिलने की बात खबरों में आई, तब जाकर लोगों को इसकी जानकारी मिली। 2016 में खदान की नीलामी और होने वाली खनन की सूचना के बाद से, सभी 24 प्रभावित गांवों के लोगों ने संयुक्त रूप से सरकार द्वारा खानों को लीज पर देने के कदम का विरोध किया है। कईं विरोध प्रदर्शन, 100 किलोमीटर लम्बी पदयात्रा और विभिन्न धरने भी गांव वालों ने आयोजित किए हैं। राज्य सरकार के बदलने से लोगों को उम्मीद थी/है कि वेदांता को दी गई लीज निरस्त की जाएगी। भूपेश सरकार ने 2019 में लीज पर रोक तो लगा दी, पर क्षेत्र में कंपनी की गतिविधियां और समय- समय पर दखल समाप्त नहीं हुआ है।

हाल ही में वन विभाग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में भी इस खनन पर आपत्ति जताई गई है, क्षेत्र में दुर्लभ वन सम्पदा के नष्ट होने के तर्ज पर। बात करने पर पता चला कि एक ओर अधिकांश लोग अपनी जमीन से बिलकुल हटना नहीं चाहते। परन्तु भूमिहीन परिवार अपने स्थिति से विवश हो कर व अन्य कुछ परिवार जो पंचायत स्तर पर प्रभावशाली हैं, उनके कारण बहुत से गांवों से विस्थापित होने को लेकर सहमती भी दिखाई/सुनाई पड़ती है।

दूसरी तरफ इस जंगल क्षेत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा- 245 वर्ग किमी क्षेत्र, 01 जुलाई 1975 में बारनवापारा वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी के नाम से अधिसूचित कर दिया गया था। और वहां के जानवरों और जंगल की सुरक्षा के नाते, लोगों को क्षेत्र से विस्थापित करने के लिए आज तक भी कार्रवाई चल रही है। वन्यप्राणियों की संख्या में बढ़ोतरी का हवाला देते हुए बात यह तक उठी कि सोनाखान क्षेत्र को भी सैंक्चुअरी का हिस्सा बनाया जाए।

क्षेत्र को समझने के लिए जब हम बारनवापारा वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी घूमने निकले तो हमने तय किया जंगल की सफारी सैर करने का। खूब उपाय लगाने के बाद, किसी तरह 1800 रूपए जमा कर जब सफारी की टिकट मिली तो सभी ख़ुशी से झूम उठे। जीप में अपनी-अपनी सीट पकड़ कर गाइड और ड्राईवर भईया से एक ही अनुरोध था, कि सफारी पर निकले हैं, तो जानवर भी जरूर दिखा दें।

सुरेश** 2008 से पर्यटक गाइड की नौकरी कर रहे हैं। वह स्वयं बार गांव के रहने वाले हैं। बार गांव तो सैंक्चुअरी के कोर क्षेत्र में आता है। बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा के बीचों-बीच बसे इस बार गांव निवासियों को भी अब विस्थापित हो किसी दूसरी जगह जाना है। दूर की नजर वाले गाइड भईया जो बहुत ही आसानी से पहचान लिए कहाँ चीतल का झुण्ड खड़ा है, बोलते हैं कि जंगल, वनोपज और खेती होते हुए भी, हाथियों के कहर से परेशान लोग अब नई जिन्दगी शुरू करना चाहते हैं।

हाथी का भय और वन विभाग की उपस्थिति और नोकझोंक से परेशान, उनको आशा है कि विस्थापन पैकेज में मिल रहे मुआवजे से उनको परेशानियों से छुटकारा मिलेगा और अपनी स्थिति सुधारने का मौका मिलेगा। बातचीत से यह भी लगा की वन विभाग को आज भी गांवों में बहुत अच्छा और ऊँचे ओहदा का मानने वाले यह अकेले इंसान नहीं हैं। आज भी जंगल को वन विभाग का मानना ही आम धारणा बनी हुई है। क्योंकि वह स्वयं गाइड है, तो ऐसे प्रावधान भी हैं कि उनको सैंक्चुअरी में ही जमीन मिल जाए, पर ऐसा करने की उनकी इच्छा नहीं है।

सफारी के बाद, वहाँ से हम लोग राजकुमार भाई से मिलने रामपुर गांव के लिए निकल गए। सैंक्चुअरी क्षेत्र में आने वाले 25 गांव में से पहले चरण के विस्थापन में तीन गांव अधिसूचित किए गए थे, जिसमें से एक रामपुर गांव भी था। शुरू हुई विस्थापन प्रक्रिया में रामपुर गांव के 10 परिवारों को छोड़ कर बाकी तीनों गांवों को विस्थापित कर, दूसरी जमीनों पर बसाया गया।, यह 10 परिवार इसलिए विस्थापित नहीं हुए क्यूंकि इन्होने दी गई नई जमीन को बंजर बताते हुए पैकेज लेने से इंकार करा।

विस्थापित न होने के निर्णय से सभी परिवारों को प्रशासनिक कार्रवाई और लगातार दबाव का सामना करना पड़ा। हालत यह हो गई थी की क्षेत्र के हर नाके से गुजर रही गाड़ी को भी 50 रूपए फीस देनी अनिवार्य हो गया था। और तो और सूखी लकड़ी लाना, वनोपज इकठ्ठा करने में वनविभाग का दखल लगातार बढता ही रहा। वन विभाग द्वारा आदिवासी परिवारों को बेदखल करने और सामुदायिक संसाधनों (उबाऊ और देवस्थल) को नष्ट करने की कार्रवाई न केवल वन अधिकार अधिनियम की मूल भावना का सीधा-सीधा उल्लंघन है बल्कि यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, के तहत भी अपराध के रूप में दर्ज होता है।

स्थिति हाथ से तब निकली जब रामपुर गांव के ही निवासी, राजकुमार को जबरन गिरफ्तार किया गया और रेंजर द्वारा उसकी पिटाई की गई। ऐसे में क्षेत्र के गांवों और दलित आदिवासी मंच नाम के संगठन ने मिलकर 42 दिन तक धरना-प्रदर्शन किया। धरना को मजबूत होते देख नौबत यह भी आ गई थी कि क्षेत्र में संगठन और आम लोगों के विरोध में पहली बार वनविभाग द्वारा रैली निकाली गई थी। पर उन 10 परिवारों का दृढ़ निश्चय, और सभी गांव वालों और संगठन के प्रयासों से, उनका संघर्ष सफल हुआ और अंत में एसडीएम ने लोगों की मांगों पर हामी भरी।

राजिम केटवास के नेतृत्व में, लोगों द्वारा बनाया गया संगठन- दलित आदिवासी मंच, क्षेत्र के दलित-आदिवासी समुदायों के साथ समुदायों के प्राकृतिक संसाधन और जल, जंगल, ज़मीन के अधिकारों पर पिछले 20 सालों से संगठित होकर काम कर रहा है। संगठन ने पिछले कुछ सालों में जंगल में रह रहे समुदायों के लिए पुरजोर आवाज उठाई है – जिसमें वन विभाग द्वारा समुदायों का शोषण, उनके जीवन-यापन करने में दखल जैसे मुद्दों को उजागर किया है तो कभी महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा, तस्करी पर पुलिस और न्यायालय से कानूनी मदद ली है, साथ ही साथ घरेलू श्रम मजदूरी, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संगठन आवाज़ उठाता रहा है।

राजकुमार भाई के खेत में बनी मचान पर बैठे, आग सेकते हुए, राजिम दीदी ने हमको क्षेत्र के इस संघर्ष और सफलता के बारे में बताया। गांव के ही एक बुजुर्ग निवासी बताते हैं कि अब इन 10 परिवार और उनके रिश्तेदारों को कोई वाहन फीस नहीं देनी पड़ती। वह बाबा स्वयं 15 साल कि उम्र के थे जब उनके बाप-दादा रामपुर गांव आकर बसे थे। बचपन की बातें याद कर वह बताते हैं कैसे वनविभाग और बड़े राजा-महाराजा क्षेत्र में आकार गांव वासियों की बैल-जोड़ी भाड़े पे लेते थे, बाघ के शिकार के लिए। तब भाड़ा 2 रुपए जोड़ा हुआ करता था। वह बताते हैं की सालों से वन विभाग के दखल से परेशान, इस संघर्ष के बाद गांव में रहना आसान हुआ है। अपने निर्णय पर डटे गांव निवासी आज बाकी सारे विस्थापित हो रहे गांवों के लिए एक अहम उदाहरण और आशा के रूप में उभर कर आए हैं।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि खनन-विस्थापन के पैकेज से क्या लोग वापिस वही रिश्ता अपनी जमीन और जंगल से बना पाएंगे, जिनके साथ वह बीती पीड़ियों से रहते आए हैं? क्या खनन से होने वाले प्राकृतिक विनाश की हम पूरी तरह से भरपाई कर पाएंगे? पिछले अनुभवों से तो ये भी साफ़ होता है कि कंपनियों के ऊपर क्षेत्र का सुधारीकरण करने की जिम्मेदारी होते हुए भी, उस पर निगरानी रखने और कंपनी को जवाबदेही बनाने में सरकार ने कभी कोई भूमिका नहीं निभाई है। सरकार द्वारा दिए गए तर्कों में हैरानी की बात यह भी है कि अगर एक तरफ खनन होना है, तो सटे हुए सैंक्चुअरी के इलाके में कैसे प्रभाव नहीं पड़ेगा? सैंक्चुअरी में बसे आए लोगों को दिए जा रहे पैकेज क्या पूरी तरह से न्यायोचित हैं?

विकास के घोड़े पर भागती हुई सरकार, जमीन के टुकड़े पर एक तरफ सैंक्चुअरी बनाना चाहती है, और क्षेत्र में ईको-टूरिज्म को बढ़ावा देना चाहती है, पर उसी जमीन के टुकड़े पर दूसरी ओर खनन कर सोना निकालना चाहती है। इस पूरी प्रक्रिया में नुकसान हो रहा है। वहां की प्राकृतिक संपदा और उसको बचा कर रखने वाले इंसानों का जिनको इस विकास से दो-तरफा चोट आई है। इस पूरी प्रक्रिया में पीढ़ियों से बसे आए लोग विस्थापित किए जा रहे हैं। तो एक मासूम सवाल मन में आता है– आखिर विकास हो किसका रहा है?

पर लड़ाई अभी लंबी और कई स्तरों की है। मामला इसलिए भी पेचीदा है, क्योंकि विस्थापन और पुनर्वास पैकेज तक ही लड़ाई सीमित नही है। हक-अधिकारों के इस संघर्ष में वन अधिकार कानून का न्यायोचित कार्यान्वयन एक जरिया है जिस से लोगों की जमीन से बेदखली होनी रोकी जा सकती है। साथ ही साथ होने वाले खनन और सैंक्चुअरी की वजह से प्रकृति और पर्यावरण में असंतुलन पर रोकथाम लगाने में भी यह कानून न केवल लोगों के लिए हितकारी साबित होगा, बल्कि जंगल और वन संपदा को भी बचाने में एक बड़ी भूमिका निभाएगा।

लेखिका सोसायटी फॉर रूरल, अर्बन एंड ट्राइबल इनिशिएटिव से जुड़ी हैं। इस लेख में दी जानकारी व विचार उनके अपने हैं।

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