छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के बहुप्रतीक्षित नियम लागू हुए पर मंशा पर सवाल बाकी

25 साल पहले संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में ‘स्व-शासन’ की स्थापना के लिए पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज का विस्तार) कानून पारित किया गया था

By Satyam Shrivastava

On: Wednesday 10 August 2022
 
फोटो: विकास चौधरी

कानून में ग्राम सभा सबसे ऊंची है लेकिन नियमों में कलेक्टर उससे भी ऊंचा है( पंचायत सचिव अब ग्राम सभा का सचिवालय भी देखेगा! अंतर्विरोधों से जूझते नियमों का दस्तावेज पेसा की नई नाकामी का भी दस्तावेज है
सत्यम श्रीवास्तव

24 दिसंबर 1996 को भारत की संसद से 25 साल पहले संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में ‘स्व-शासन’ की स्थापना के लिए पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज का विस्तार) कानून पारित किया गया था।

देश में ऐसे कुल 10 राज्य हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से संविधान के इस दायरे में आते हैं। ये क्षेत्र प्राथमिक रूप से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र हैं। जहां आदिवासी समुदाय अपनी रूढ़ियों, प्रथाओं व परंपरा के अनुसार जीवन जीते आए हैं।

ऐसे क्षेत्रों को ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान एक्सक्लुडेड एरियाज कहा जाता था। मोटे तौर पर जहां अंग्रेज सरकार सीधे तौर पर शासन नहीं करती थी।

ऐसे क्षेत्रों में पेसा कानून लागू होने के बाद भी स्व-शासन की संवैधानिक मंशा केवल इसलिए फलीभूत नहीं हो सकी, क्योंकि संबन्धित राज्य सरकारों ने इस ऐतिहासिक कानून के समुचित क्रियान्वयन के लिए नियम-कायदे ही नहीं बनाए।

अब तक पांच राज्यों ने हालांकि इस दिशा में कुछ पहलकदमी की और नियम कायदे बनाए, लेकिन भारत की प्रशासनिक व्यवस्था ने उन्हें तरजीह नहीं दी और आदिवासी समुदायों की विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुसार स्वशासन की स्थापना नहीं हो सकी।

9 अगस्त 2022, विश्व आदिवासी दिवस के दिन छत्तीसगढ़ राज्य ने इस महत्वपूर्ण कानून के लिए नियमों को राजपत्र में अधिसूचित किया है। छत्तीसगढ़ से पहले राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, महाराष्ट्र और संयुक्त आंध्र प्रदेश नियम लागू कर चुके हैं।

लेकिन क्या यह सधी हुई प्रतीकात्मक राजनीति का मुजाहिरा है।

उल्लेखनीय है कि छतीसगढ़ में पेसा कानून के उचित क्रियान्वयन के लिए इसके नियम बनाने के लिए हाल ही में अपने पद से इस्तीफा दे चुके पूर्व पंचायत व ग्रामीण विकास मंत्री टी. एस. सिंह देव ने लगभग दो सालों तक ऐसे सभी जिलों और गांवों में गहन विचार-विमर्श और परामर्श की प्रक्रिया संचालित की।

इसमें आदिवासी समुदायों के साथ गहन विचार विमर्श के अलावा विषय विशेषज्ञों, अधिकारियों और अन्य महत्वपूर्ण हितग्राहियों की अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित की।

इसी के समानान्तर छत्तीसगढ़ राज्य योजना आयोग ने एक कार्यबल का गठन किया था जिसके तहत रवि रेब्बा प्रगड़ा की अध्यक्षता में गठित एक उप -समूह ने भी पेसा नियमों पर अपनी सिफारिशें राज्य सरकार को दी थीं।
इन दोनों प्रक्रियाओं से हासिल सिफारिशों पर अंतत: राज्य सरकार की कैबिनेट ने इन नियमों को अंतिम रूप दिया, जिन्हें आज राजपत्र में प्रकाशित किया गया।

नियमों में क्या खास है?
इन नियमों के अधिसूचित होने से ग्राम सभा को गौण खनिज के हक़ और उन पर निर्णायक भूमिका को भी तवज्जो मिली है। अब ग्राम सभा की अनुमति और निर्णय के बगैर गौण खनिजों का दोहन नहीं किया जा सकता।

स्थानीय तौर पर मौजूद जल संरचनाओं पर नियंत्रण और ग्राम सभाओं की भूमिका को सुनिश्चित किया गया है। हालांकि यह प्रावधान पहली नजर में ही वनाधिकार कानून के प्रावधानों को संकुचित किए जाने का प्रयास दिखलाई पड़ता है।

ग्राम सभा के गठन, संचालन और उसकी प्रशासनिक क्षमताओं को बढ़ाने के लिए इन नियमों में विस्तृत जगह मिली है।

वनाधिकार कानून को ध्यान में रखते हुए पेसा नियमों को उसके अनुकूल बनाने की भरसक कोशिश हुई है लेकिन इस कोशिश में 22 पन्नों में प्रकाशित दस्तावेज में व्यापक अंतर्विरोध हैं। हालांकि इन दोनों महत्वपूर्ण कानूनों के बीच संतुलन बनाने और एक दूसरे का पूरक बनाने के लिए भी गुंजाइश तलाश की गयी है।

लेकिन कुछ ऐसी आपत्तियां हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

मुख्य आपत्तियां
इन नियमों में पेसा कानून की पृष्ठभूमि यानी भूरिया समिति की सिफ़ारिशों, संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची, वनाधिकार कानून, पांचवीं अनुसूची, केंद्रीय पेसा कानून और 2013 में पारित हुए भूमि -अधिग्रहण, पुनर्स्थापन व पुनर्वास कानून के प्रावधानों के बीच बेतरतीब असंतुलन देखने को मिलता है।

छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के नियमों को बनाने की दोनों प्रक्रियाओं में करीब से जुड़े रहे वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और भारत जन आंदोलन से सम्बद्ध बिजय पांडा इसे एक बड़ा छल बताते हैं। 

बिजय पांडा बताते हैं कि “इन नियमों में सबसे पहले तो केंद्रीय कानून में परिभाषित गांव की अवधारणा को ही बदल दिया गया है। जैसे कि इसमें कहा गया है कि “ ऐसा गांव जिसमें साधारणतया आवास या आवासों का समूह अथवा छोटा गांव या छोटे गांव का समुह् होगा। इन नियमों के तहत ‘गठित किया जायेगा’ जिसका मतलब है कि जो समुदाय परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार अपने जीवन का संचालन वह एक सामूहिक प्रस्ताव पारित कर गांव बन सकता है। जिस प्रस्ताव को सरकारी व्यवस्था एक प्रक्रिया के तहत अपने अभिलेखों में दर्ज करेगी।

लेकिन वहीं अध्याय -2 की कंडिका 2 में इसे इस तरह लिखा गया है कि ‘जनसंख्या जो मूल पंचायत का एक तिहाई या 100 जो अधिक हो‘ ऐसा कह कर पेसा कानून की धारा 4 (ख ) का स्पष्ट हनन किया गया है। इसलिए क्योंकि पेसा कानून पारंपरिक गांव को मान्यता देता है जिसका पैमाना उस गांव की जनसंख्या कहीं नहीं है।

ऐसा कर देने से पेसा कानून मंशा के अनुरूप एक गांव, स्वशासी गांव न हो कर सरकारी सुविधा प्राप्त करने के लिए महज एक क्षेत्र में सिमट जाएगा।

इसी तरह ग्राम सभा की परिभाषा में भी जो इस कानून के मूल में है और एक स्वायत्त सरकार का दर्जा हासिल है उसके साथ भी खिलवाड़ किया गया है।

इन नियमों में अध्याय 1 की धारा 3 में ग्रामसभा की परिभाषा दी गयी है ”ऐसा निकाय...जो ..ग्राम स्तर पर या उसके ऐसे भाग में, जिसके लिए उसका गठन किया जायेगा“, लेकिन वहीं -2 नियम 5 (1) में लिखा है कि “.. परन्तु आवश्यकतानुसार ग्राम या ग्रामों के समूह ..., के लिए एक से अधिक ग्राम सभाओं का गठन किया जा सकेगा”।

यह भी पेसा कानून के विरुद्ध है। ग्रामों के समूह के लिए एक से अधिक ग्रामसभाओं का गठन कैसे किया जा सकेगा?

इसी तरह अगर नियम 7 (1) को देखें तो इसमें लिखा गया है कि “ग्रामसभा अपने अध्यक्ष का ‘निर्वाचन’ करेगी”। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि जब ग्रामसभा अपनी पारंपरिक व्यवस्था का अनुशरण करते हुए कार्य करेगी और जहां चुनाव की कोई व्यवस्था नहीं दी गयी है तब ऐसे में निर्वाचन शब्द का उपयोग न करते हुए पारंपरिक व्यवस्था को मान्य करना ही कानून सम्मत है। जिसका स्पष्ट उल्लेख पेसा कानून की धारा 4 (क )एवं 4 (घ) में दिया गया है।

आधे-अधूरे अधिकार
लघु जल संरचनाओं को लेकर इन नियमों में स्पष्टता के साथ यह लिखा गया है कि “गांव की सीमा में 10 हेक्टेयर तक की जो भी जल संरचनाएं होंगीं उन पर सम्पूर्ण नियंत्रण ग्रामसभा का होगा”।

यह प्रावधान वन अधिकार (मान्यता) कानून, 2006 में दिये जा चुके अधिकारों का हनन है। वनधिकार कानून की धारा 5 में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि गांव की पारंपरिक सीमा में आने वाले सारे संसाधन तथा सीमा से लगे हुए जलागम क्षेत्र, जलस्रोतों पर ग्राम सभा का सम्पूर्ण अधिकार होगा।

इस प्रावधान को सीमित किया जाना न तो पेसा कानून का पालन है और न ही वनाधिकार कानून का। यह पेसा कानून की धारा 4 (घ) एवं 4 (ढ ) का हनन है।

साहूकारी प्रथा पर लचर प्रस्ताव
साहूकारी प्रथा को लेकर भी इन नियमों में भारी विसंगतियां हैं। छत्तीसगढ़ साहूकारी अधिनियम,1934 को संविधान का पांचवीं अनुसूची के अनुच्छेद 5 (2)(क),(ख),(ग) में सुसंगत संशोधन दरकार हैं। इसका मतलब है कि साहूकारी में समस्त निजी व सरकारी लेनदेन को शामिल करते हुए अनुसूचित क्षेत्र में भू-हस्तांतरण की तमाम संभावनाओं को रोकना सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। जो इन नियमों में नहीं किया गया है।

विरोधाभास

नियम 5 (5) में नई ग्रामसभा के गठन के संबंध में विहित अधिकारी को’ विनिश्चय करने का अधिकार“ देना पेसा कानून के स्वशासी चरित्र के विपरीत है। नए गांव के गठन में कोई शिकायत का निराकरण ग्रामसभाओं सम्मिलित सभा में लिया जा सकता है जिसके लिए विहित अधिकारी संयुक्त ग्रामसभा का आयोजन करते हुए भूमिका निभाएंगे।

जब तक अधिकारियों के हाथ में निर्णय लेने की क्षमता होगी तब तक गांव या ग्रामसभा कानून सम्मत ढंग से स्वशासी नहीं हो सकते हैं।

इसी तरह नियम 6 (क) में जिस तरह की भाषा बरती गयी है वह प्रशासनिक ठगी का बेहतर उदाहरण तो हो सकता है लेकिन इससे पेसा कानून की मूल मंशा पर गंभीर आघात लगते हुए देखा जा सकता है।

‘जब पेसा कानून की धारा 4, राज्य सरकार को पेसा कानून से असंगत कोई विधि या नियम बनाने के लिए अधिकृत नहीं करता है तब ग्रामसभा कैसे उस गलत आदेश को मान्य करेगी जो राज्य सरकार द्वारा जारी किया जाएगा?

इसके लिए कायदे से पहले छत्तीसगढ़ पंचायती राज अधिनियम,1993 को पहले पेसा के अनुकूल बदले जाने की जरूरत थी।

ग्राम सभा के अधिकार क्षेत्र और सीमा में मौजूद भूमि संसाधनों को लेकर ये नियम एक ही पैराग्राफ में दो अंतर्विरोधी बातें कहते हैं। नियम 6(9) में ग्राम सभाओं की सांवैधानिक शक्तियों को जिला प्रशासन के सामने बौना साबित कर दिया है। भूमि-अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की सहमति के प्रावधान को परामर्श तक सीमित कर दिया गया है। जबकि वनाधिकार मान्यता कानून, भूमि-अधिग्रहण के लिए 2013 के कानून में भी ग्राम सभाओं की सहमति को तवज्जो दी गयी है।

ग्राम सभा के निर्णय के विरुद्ध अपील करने के अधिकार जिला कलेक्टर को दे दिया गया है। जबकि जिला कलेक्टर खुद भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया का संचालन करने के लिए जिम्मेदार है।

नियम 7 (5) के संदर्भ में भी देखें तो जब पेसा कानून ग्राम स्तर पर पारंपरिक व्यवस्था को मान्य करने की बात करता है, तब अध्यक्ष पद के लिए रोटेशनल व्यवस्था किए जाने का भी कोई औचित्य नहीं है। यह राज्य सरकार द्वारा ग्रामसभा (ग्राम सरकार ) जैसी सांवैधानिक इकाई के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया जाना है। जो पेसा कानून की मूल मंशा के खिलाफ है।

नियम 8 (1) में प्रावधान किया गया है कि ग्राम पंचायत का सचिव ही ग्रामसभा का भी सचिव होगा तो ग्रामसभा कैसे संविधान सम्मत और पेसा कानून की धारा 4 (घ) के अनुसार स्वशासी एवं संप्रभु हो पाएगी?

इस एक नियम के कारण ग्राम सभा की स्वायत्ता अंतत: कार्यपालिका और जिला प्रशासन के नियंत्रण में ही एक दंतविहीन इकाई बनकर रह जाएगी। यह प्रावधान न केवल गैर कानूनी है, बल्कि संविधान के 73वें संशोधन और उससे संविधान में जोड़ी गयी 11वीं अनुसूची के मकसद के साथ छल होगा।

उल्लेखनीय है कि ग्राम पंचायत के सचिव की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है और जिसे जिला प्रशासन के विस्तार के रूप में ही देखा जाता है।

कलेक्टर का दर्जा बढ़ाया
नियम 36 में लिखा गया है कि ‘भूमि-अधिग्रहण/शासकीय क्रय/हस्तांतरण से पहले ग्रामसभा की सहमति के संदर्भ में इस नियम की कंडिका 1 में कह दिया गया है कि भूमि-अधिग्रहण से पूर्व ग्रामसभा के साथ परामर्श किया जाएगा।

वहीं कंडिका 5 में बता दिया गया है कि भूमि-अधिग्रहण पर ग्राम सभा के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने के लिए जिला कलेक्टर सक्षम होगा। इसका व्यावहारिक पहलू यह है कि जहां जिला कलेक्टर भूमि अधिग्रहण के लिए सक्षम अधिकारी है और जो इससे संबन्धित प्रक्रियाएं संचालित करता है, ग्राम सभा के निर्णय के खिलाफ कोई शिकायत आने पर उस पर निर्णय लेगा। अंतत: जिला कलेक्टर ग्राम सभा के निर्णय को पलट सकता है।

बिजय पांडा कहते हैं कि इन नियमों का असल मकसद आदिवासियों के पास मौजूद संसाधनों को कोरपोरेट्स को देने का ही लगता है।

योजना आयोग द्वारा गठित कार्य-बल के समूह के अध्यक्ष रवि रेब्बा प्रगड़ा कहते हैं कि “हमने सिफ़ारिश की थी कि पेसा कानून अकेले कुछ नहीं है बल्कि इसके लिए तमाम मौजूदा क़ानूनों में आमूल बदलाव किए जाने की जरूरत को रेखांकित किया था। लेकिन इन नियमों को देखकर लगता नहीं कि हमारे उस कार्यबल की सिफ़ारिशों को पढ़ा भी गया है”।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक सदस्य आलोक शुक्ला कहते हैं कि “पेसा कानून का मूल मकसद सत्ता का विकेंद्रीकरण है जिसमे ग्रामसभा को स्वायत्त संस्था के रूप मान्यता दी गई है जिसमे कार्यपालिका और विधायिका के समान अधिकार होंगे। यह वास्तविक रूप में गांधी जी के ग्राम स्वराज या स्वशासन को धरातल पर उतारने का कानून है। लेकिन दुखद रूप से राज्य मेन सत्तारूढ़ कांग्रेस की सरकार ही गांधी के खिलाफ काम कर रही है। वो आशंका व्यक्त करते हैं कि “ये नियम कारपोरेट लूट को आगे बढ़ाने की दिशा में ही कार्य करेंगे”।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और सर्व आदिवासी समाज के सदस्य अरविंद नेताम इन नियमों को लेकर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि “किसी भी तरह से अगर पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में ग्राम सभा की शक्तियों और उसके अधिकारों पर कोई आघात होता है तो ये नियम पेसा कानून के क्रियान्वयन के लिए नहीं हैं बल्कि इनका असल मकसद कुछ है”। अफसोस कि ये नियम ग्राम सभा की स्वायत्तता को गंभीर चोट पहुंचाते हैं। आदिवासी समाज इनका स्वागत नहीं कर सकता”।

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