बैगा आदिवासियों के दिल्ली वाले बाबा नहीं रहे !

प्रभुदत्त खेड़ा बैगा आदिवासियों के बीच शिक्षा बांटते रहे हालांकि वे हमेशा यही कहते थे कि बैगाओं को पर्यावरण और वनस्पतियों का ज्ञान किसी शिक्षक से भी ज्यादा है

By Purushottam Thakur

On: Monday 23 September 2019
 

Photo : Purshottam Thakur

छत्तीसगढ़ में बैगा आदिवासियों के बीच अपने जीवन का बड़ा हिस्सा देने वाले 90 वर्षीय प्रभुदत्त खेडा नहीं रहे। उनकी पहचान “दिल्ली वाले बाबा” के तौर पर थी। सोमवार सुबह उनका निधन हो गया। करीब 35 साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से बतौर प्रोफेसर रिटायर होने के बाद उन्होंंने अचानकमार अभ्यारण्य के एक छोटे से गाँव लमनी में अपना ठिकाना बनाया था। बेहद साधारण और प्रचार से दूर प्रभुदत्त खेड़ा बैगा आदिवासियों की बेहतरी को लेकर ही चिंतित रहे।  

बैगा आदिवासियों के बीच उनके ही जैसे एक कमरे के कुटिया ( मिटटी और खपरैल के घर ) में वह रहते थे। आदिवासियों की सेवा में जीवन की अंतिम सांस तक लगे रहे। आखिर उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय छोड़कर ऐसा क्यों किया?

बकौल प्रभुदत्त खेड़ा का कहना था - “ समाजिक विज्ञान में फील्ड विजिट एक अहम् हिस्सा है, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को भारत के दूरदराज के आदिवासी क्षेत्रों में लेकर जाता था। इसी सिलसिले में यहाँ भी कई बार आया और मुझे लगा की यहाँ मेरी जरूरत है। मैं यहाँ रहकर बैगाओं के लिए काम करना शुरू किया।”

बैगा आदिवासी भी प्रभुदत्त खेड़ा को  दिल्ली वाले बाबा के नाम से बुलाते थे। खेड़ा के मन में आदिवासियों के प्रति बहुत सम्मान था, क्योंकि वह मानते थे कि, “आदिवासियों का प्रकृति, परिवेश और पर्यावरण के बारे में जानकारी हम लोगों से बहुत पुख्ता है, यहाँ के बच्चों को भी स्थानीय वनस्पतियों और जीव जंतुओं के बारे में जितना ज्ञान है वह शिक्षकों के पास भी नहीं है।”

वह लमनी से 20 किमी दूर छपरवा में एक हाई स्कूल का संचालन भी करते थे। यहाँ से कई बच्चे पढ़ लिखकर आगे बढे हैं। यही नहीं उस स्कूल से पढ़े तीन शिक्षक भी कार्यरत हैं। उनका कहना था कि बाहर से आने वाले शिक्षक नियमित भी नहीं होते, वह स्थानीय बच्चे और परिवेश को भी नहीं समझते लेकिन ये शिक्षक जो यहीं पढ़े हैं वह ज्यादा बेहतर हैं। खेडा स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते थे। अपनी पेंशन से स्कूल में कई जरूरी खर्चे वह पूरा करते थे यहाँ तक की उसी पैसे से हाई स्कूल के छात्र-छात्राओं को मिड डे मील भी खिलाते थे।

ज्यादातर  पैदल चलते थे और 20 किमी दूर स्कूल जाने के लिए उसी बस का उपयोग करते थे जो स्थानीय लोग करते थे। उनका यह भी कहना था कि आप समाजिक विज्ञान कक्षा के अंदर नहीं पढ़ा सकते और मैं भी यहाँ कोई समाज सेवा करने नहीं आया हूँ बल्कि मैं इस बैगा आदिवासी समाज से बहुत कुछ निरंतर सीख रहा हूँ। यहाँ आकर मेरा पुनर्जन्म हुआ है।

प्रभुदत्त खेड़ा स्थानीय बैगाओं के भविष्य और बाघ अभ्यारण्य होने के कारण बैगाओं के विस्थापन को लेकर काफी चिन्तित थे।  इसे लेकर वे सरकार को पत्र भी लिखते रहे। उनके चले जाने से स्थानीय आदिवासी और खासकर के बच्चों में मायूसी छा गई है। 

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