आदिवासियों पर ऐतिहासिक अन्यायों के अर्थ और अनर्थ

विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर भारत में आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय पर विशेष आलेख

By Ramesh Sharma

On: Monday 09 August 2021
 
Photo by Simon Williams

भारत में आदिवासियों के अधिकारों और उसकी स्वीकार्यता के अपने विरोधाभास हैं, जिसे महज 'ऐतिहासिक अन्याय' जैसे एक शब्द मात्र से नहीं समझा जा सकता है। वास्तव में ऐतिहासिक अन्याय के उस पूरे शब्दकोष का अध्ययन और आंकलन जरूरी है, जिसके बिना हम 'ऐतिहासिक न्याय' की भाषा और भावना दोनों ही नही गढ़ सकते।

भारत में ऐतिहासिक अन्याय की जड़ों को जंगल के कानून के साथ-साथ आए भू-राजनैतिक परिस्थितियों में परिवर्तन और उसके सामाजिक-आर्थिक परिणामों के बरअक्स देखा जाना चाहिए। वर्ष 1865 में घोषित भारत के प्रथम वन कानून का उद्देश्य महज राजस्व अर्जन से कहीं अधिक आदिवासियों के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र में आमूल-चूल परिवर्तन करना था, जहां एक सर्व-संपन्न समाज को हमेशा के लिये विपन्नता के राज्य निर्मित अंधेरे में धकेला जा सके।

ब्रितानिया हुक़ूमत के दस्तावेज बताते हैं कि वर्ष 1865 के पूर्व भारत के प्रथम (आदिवासी) समाज के अधीन देश के लगभग आधे जंगल-जमीन का स्वामित्व था। जो वर्ष 1927 के भारतीय वन अधिनियम के लागू होते-होते केवल 35 फीसदी रह गया। आजाद भारत में लागू - केंद्रीय वन संरक्षण कानून (1980) के आते-आते देश में वन-संसाधनों का क्षेत्र महज 21 फीसदी रह गया था। यदि वन-विभाग की स्थापना तथाकथित रूप से वनों और वन संसाधनों की सुरक्षा के लिए हुई थी तो फिर क्यों नहीं, वनों के संस्थागत विनाश का अभियोग वन विभाग पर चलाया जाना चाहिये?

जाहिर है ऐतिहासिक अन्याय का प्रथम प्रस्थान बिंदु - वन कानून और नीतियां ही हैं, जिसका प्रमाण भारतीय वन अधिनियम है। भारत के लगभग सभी वन कानूनों का बुनियादी चरित्र 'ग्राम सभा और उनके अधिकारों' के खिलाफ ही रहा है। भारतीय वन अधिनियम (1927) और केंद्रीय वन संरक्षण कानून (1980) में 'ग्राम सभा और उसके अधिकार' आज भी स्वीकार्य शब्द नहीं हैं। अर्थात आदिवासी समाज के आजा-पुरखा के अपने ‘जंगल-जमीन का पूर्ण संस्थागत अधिग्रहण’, राज्य पोषित वन विभाग ने किया है। इसीलिये ऐतिहासिक न्याय का मार्ग, मौजूदा वनकानूनों (वनाधिकार कानून को छोड़कर) और वन-विभाग के रहते न संभव था और न होगा।

भारत में उत्खनन कानून और उसके जमीनी परिणाम, ऐतिहासिक अन्यायों का दूसरा प्रमुख अध्याय है। भारत की अधिकांश खदानें आदिवासियों की अपनी भूमि पर हैं। ब्रितानिया हुकूमत ने अपने बनाये उत्खनन के औपनिवेशिक विधानों के माध्यम से यह स्थापित कर दिया कि भूमि स्वामी का अधिकार केवल ऊपरी सतह की भूमि पर है - सतह से नीचे के संसाधनों का सार्वभौमिक स्वामित्व तो राज्य का है। अर्थात उस भूमि पर रहने वाला आदिवासी, खनिज संसाधनों का स्वामी नहीं, बल्कि राज्य द्वारा इन संसाधनों के अधिग्रहण के बाद, महज मुआवजे का पात्र हो सकता है। जाहिर है, आदिवासियों की अपनी जन्मभूमि पर - उत्खनन कानूनों के संस्थागत प्रावधानों जरिये खनिज संसाधनों के उत्खनन (और अनियंत्रित दोहन) नें ऐतिहासिक अन्याय की बुनियाद को और अधिक गहरा ही किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के भारत के संदर्भ में वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स द्वारा वर्ष 2012 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आजादी के बाद से लगभग 6.5 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ है - जो दुनिया के किसी भी मुल्क में सबसे अधिक है। यह रिपोर्ट कहती है कि कुल विस्थापितों में लगभग 40 फीसदी (2.6 करोड़) आदिवासी समुदाय है। अर्थात आदिवासियों की कुल आबादी का लगभग एक-चौथाई (25 फीसदी) अब तक विस्थापित हो चुका है।

वास्तविकता यह भी है कि इनमें से लगभग दो-तिहाई से अधिक लोगों का अब तक पुनर्वास हुआ ही नहीं। दिल्ली के सीमापुरी की एक झुग्गीबस्ती में पहचान-विहीन रहने को मजबूर निर्मल कुजूर अब याद नहीं करना चाहते कि किस तरह कोरबा के कोयला खदानों से उनके बाप-दादा को अवैध नागरिक की तरह बेदखल कर दिया गया।

पूना के झुग्गी बस्ती दत्तावाड़ी में रहने वाली पुष्पा टेटे की भी यही कहानी है। जब सुंदरगढ़ में उसकी बस्ती को खदान के नाम पर नेस्तनाबूद कर दिया गया। जाहिर है, उत्खनन कानूनों की बदौलत इन बेदौलत हुये आदिवासी समाज को न्याय तब तक मयस्सर नहीं हो सकता, जब तक ‘राज्य’ स्वयं आदिवासियों के हक में समर्थ रूप से खड़ा नहीं होता।

लेकिन, क्या राज्य सचमुच आदिवासियों के अधिकारों के पक्ष में खड़ा हो सकता है ? इस काल्पनिक सवाल का यथार्थपरक उत्तर अब तक तो 'नहीं' ही है।

वर्ष 1947-50 के दौरान जब संविधान सभा में आदिवासियों के अधिकारों पर बहसें हो रहीं थीं तब बहुमत के आगे मात्र 5 आदिवासी सदस्यों की आवाजें नक्कारखाने में तूती बनकर रह गयी। यही नहीं, संविधान सभा के अंतर्गत गठित 22 प्रमुख समितियों में से एक का भी अध्यक्षीय दायित्व आदिवासी सदस्यों को नहीं दिया गया।

संविधान के वायदों के बावजूद अधिसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समाज और उनके जल, जंगल, जमीन के अधिकारों के लिये वैधानिक प्रावधान तय करने में भारत के भाग्य विधाताओं को पूरे 48 बरस लग गये। लेकिन विडंबना ही है कि जिस पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून को 1996 में भारत की संसद नें पारित किया और जिसे आदिवासियों के हक़-हुक़ूक़ और हुक़ूमत के लिये ऐतिहासिक मार्ग बताया, उसकी राह में भारत का कोई भी राज्य एक क़दम भी नहीं चल पाया।

सच तो यह है कि भारत के किसी भी राज्य में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून की नियमावली बनाने, उसे लागू करने और मान्यता देने का नैतिक-राजनैतिक साहस है ही नही । इसलिये राज्य घोषित और पोषित विधानों और नीतियों में पांचवीं अनुसूची में दर्ज आदिवासियों के अधिकार केवल सुनहरे हर्फ़ हैं जिन्हें देखकर ख़ुशफ़हमी तो हो सकती है कि - विशेष पिछड़ी जनजातियां और अन्य अनुसूचित जनजातियां अधिकार-संपन्न हैं लेकिन, सत्य तो यह है कि अधिकारों का यह संवैधानिक आवरण केवल एक राजनैतिक जुमला भर साबित हुआ है।

वनाधिकार कानून का आना निश्चित ही ऐतिहासिक न्याय की दिशा में पहला क़दम रहा है। भारत सरकार (आदिवासी मामलों का मंत्रालय, 2021) के आंकड़े कहते हैं कि लगभग 15 बरसों के बाद आज तक लगभग 20 फीसदी तथाकथित पात्र लोगों को उनके आधे-अधूरे वनाधिकार मिले हैं।

यदि सरकारें सचमुच में संजीदां होतीं तो वनाधिकार के ऐतिहासिक न्याय के नारों के रास्ते आदिवासी क्षेत्रों में बरसों से स्थायी हो चुकी विपन्नता को समाप्त किया जा सकता था। लेकिन वनाधिकार कानून की महज मुट्ठीभर सफ़लता यही साबित करती है कि अन्याय की जड़ें, राज्य-व्यवस्था में कहीं अधिक गहरी हैं।

दुर्भाग्य ही है कि वनाधिकार कानून के दायरे में संवैधानिक रूप से संरक्षित एक विशेष पिछड़ी जनजाति के बैगा, डोंगरिया कंध, सहरिया और पहाड़िया को यह साबित करना ही होगा कि वह वर्ष 2005 से पहले उसी जल-जंगल और जमीन पर काबिज था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि भारत के संविधान में पांचवी अनुसूची में वर्णित आदिवासी समाज की वैधानिक हैसियत को चुनौती दी जा सकती है। अर्थात उस (तथाकथित) अधिकारसंपन्न आदिवासी को आवेदक बनाकर अपमानित किया जा सकता है; और यह साबित करने के लिये बाध्य किया जा सकता है कि वह अधिसूचित क्षेत्र का मूल निवासी आदिवासी है - और जंगल-जमीन पर वह काबिज था/है।

लेकिन, इन्हीं पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में बहुसंख्यक 'विशेष पिछड़ी जनजातियों के अधिकारों को खारिज’ करने का अर्थ यह भी है कि इन क्षेत्रों में हुये मानवविज्ञान, इतिहास, भूगोल और समाजशास्त्र के तमाम अध्ययन बेमानी हैं -जो यह साबित करते हैं कि आदिवासी उन क्षेत्रों के मूल निवासी हैं और उनकी संस्कृति और आजीविका उन जंगलों पर निर्भर रही है। वास्तव में यह शर्मनाक है, जहां सदियों से जंगल जमीन के संरक्षक रहे और संवैधानिक रूप से सुरक्षा प्राप्त अधिकारसंपन्न 'विशेष पिछड़ी जनजातियों' को कानून और व्यवस्था दोनों नें महज एक 'आवेदक' के रूप में अपघटित कर दिया ।

वर्ष 2005 में वनाधिकार कानून की संसदीय समिति के समक्ष एकता परिषद ने यह सुझाव रखा था कि कम से कम पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में तो संवैधानिक रूप से अधिकारसंपन्न सभी 'विशेष पिछड़ी जनजातियों' को तो आवेदन की प्रक्रिया से मुक्त करते हुये सीधे राज्य द्वारा सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर वनाधिकार संपन्न बनाना चाहिये। वास्तव में ऐतिहासिक न्याय का एक सीधा-सरल मार्ग यही होता। लेकिन सत्य तो यह है कि सभी सरकारों ने इस प्रस्ताव को तब और अब खारिज ही किया है।

भारत की आजादी से पहले और बाद में जारी ऐतिहासिक अन्यायों के दृष्टिगत - आदिवासी हितों के ‘सर्वोच्च संवैधानिक संरक्षक राज्य’ द्वारा आदिवासी समाज को दिये गये अधिकारों, और फिर उन दिये गये अधिकारों को हासिल करने के लिये दशकों से संघर्षरत जनांदोलनों - दोनों की ही सामूहिक पराजय का प्रतिबिंब है, आज के आदिवासी समाज की त्रासदी।

भारत की स्वाधीनता के लगभग 75 बरसों बाद भी देश के प्रथम समाज को उनके जंगल-जमीन का स्वामित्व न दिया जा सकना - पूरे जनतंत्र की नैतिक-राजनैतिक पराजय माना ही जाना चाहिये। लेकिन, निर्मल कुजूर और सुनीता टेटे के लिये जनतंत्र के इस चौसर पर अब तो जीतने-हारने का सम्मोहन ही समाप्त हो चुका है। उनकी कहानियों का अंतिम दुखांत यही है कि आज पूरे आदिवासी समाज के लिये ऐतिहासिक न्याय के सपने, उनके अधिकारों के लिये राज्य द्वारा घोषित और पोषित विधानों के आधे-अधूरेपन में शनैः शनैः धूमिल होते जा रहे हैं।

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

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