मानव-वन्यजीव संघर्ष: बढ़ते संघर्ष की भारी कीमत चुका रहे हैं भारत जैसे देश

आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्रों को देखें तो वहां एक गाय या बैल को इस मानव-वन्यजीव संघर्ष में खोने का मतलब है कि किसान ने अपने बच्चे की करीब 18 महीने की कैलोरी को खो दिया है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 28 February 2023
 
अपने मवेशियों को लेकर जाता एक किसान; फोटो: आईस्टॉक12jav.net12jav.net

क्या आप जानते हैं कि भारत, केन्या और यूगांडा जैसे विकासशील देश, विकसित देशों की तुलना में इंसानों और वन्यजीवों के बीच होते संघर्ष की कहीं ज्यादा भारी कीमत चुका रहे हैं। आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्रों को देखें तो वहां एक गाय या बैल को इस मानव-वन्यजीव संघर्ष में खोने का मतलब है कि किसान ने अपने बच्चे की करीब 18 महीने की कैलोरी को खो दिया है

इस बारे में किए एक नए अध्ययन के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देशों में एक पशुपालक स्वीडन, नॉर्वे या अमेरिका जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में रहने वाले पशुपालक की तुलना में आर्थिक रूप से आठ गुणा ज्यादा कमजोर है। ऐसे में जब उसका एक भी मवेशी इस संघर्ष की भेंट चढ़ता है तो उस पशुपालक के लिए यह आर्थिक रूप से काफी भारी पड़ता है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो मानव-वन्यजीव संघर्ष शाश्वत विकास के लिए सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। यह विशेष रूप से ऐसा मामला है जहां पारिस्थितिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण वन्यजीवन, मनुष्यों की जीविका को प्रभावित करते हैं। इस संघर्ष में कमजोर ग्रामीण समुदाय की जो पशुधन हानि होती है वो पहले ही हाशिए पर जीवन जीने को मजबूर इन परिवारों की कमर तोड़ देती है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक मवेशियों पर हमले की एक भी घटना किसी किसान परिवार की वार्षिक आय का दो-तिहाई हिस्सा खत्म कर सकती है। उदाहरण के लिए, मध्य भूटान में जिग्मे सिग्मे नेशनल पार्क के अंदर रहने वाले परिवार बाघ और तेंदुए के हमलों में औसतन अपनी वार्षिक प्रति व्यक्ति आय का 17 फीसदी हिस्सा खो देते हैं।

इसी तरह तंजानिया के सेरेन्गेटी नेशनल पार्क के किनारे रहने वाले परिवारों को हर साल तेंदुओं और शेरों के हमलों से 19 फीसदी से ज्यादा का नुकसान होता है। गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर करीब 75 से 100 करोड़ पशुपालक, भूमिहीन और सीमित पशुधन के स्वामी हैं। यह किसान दो डॉलर प्रति दिन से भी कम पर अपने जीवन का गुजारा कर रहे हैं।

देखा जाए तो पहले ही जलवायु परिवर्तन, सशस्त्र संघर्ष और बीमारी आदि से जूझ रहे इन पशुपालकों के लिए मानव-वन्यजीव संघर्ष इन किसानों को असमान रूप से  प्रभावित कर रहे हैं।

इस आर्थिक बोझ और विकसित एवं विकाशसील देशों के बीच इस मामले में मौजूद असमानता को समझने के लिए नॉर्दर्न एरिजोना यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ अर्थ एंड सस्टेनेबिलिटी से जुड़े शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है जिसके नतीजे जर्नल कम्युनिकेशन्स बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 133 देशों में 18 बड़े मांसाहारी वन्यजीवों के आसपास रहने वाले पशुपालकों और मानव-वन्यजीव संघर्ष का अध्य्यन किया है, जिससे यह समझा जा सके कि इन बड़े शिकारी जानवरों के साथ रहने वाले लोगों का जीवन कैसे प्रभावित होता है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डुआन बिग्स का कहना है कि अधिकांश किसानों के लिए भले ही पशुधन उनकी आय का एकमात्र स्रोत न हो फिर भी वो उनके लिए बहुत मायने रखते हैं। जब बड़े शिकारियों द्वारा इस पशुधन का शिकार किया जाता है तो वो इन लोगों को आर्थिक रूप से काफी भारी पड़ सकता है। देखा जाए तो इन देशों में यह मवेशी इन पशुपालकों के लिए केवल आय ही नहीं बल्कि पोषण और जीवन का सहारा होते हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक ग्लोबल साउथ की यह विकासशील अर्थव्यवस्थाएं संरक्षण की सबसे भारी कीमत चुका रही हैं। यह कीमत जंगलों की रक्षा करने और प्रदूषकों के लिए ऑफसेट वातावरण प्रदान करने के बजाय अक्सर शेरों या बाघों जैसी प्रजातियों के साथ रहने से जुड़ी हैं। यह वो प्रजातियां हैं जिन्हें दुनियभर में लोग पसंद करते हैं और उन्हें संरक्षित करना चाहते हैं।

अध्ययन के मुताबिक यह मुद्दा विकासशील देशों के लिए कहीं ज्यादा गंभीर है क्योंकि इन क्षेत्रों में पशुपालक पहले ही कम उत्पादन को लेकर चिंतित हैं। पता चला है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में इन देशों में एक पशुपालक प्रति पशु औसतन 31 फीसदी कम मांस का उत्पादन करता है।

रिसर्च के मुताबिक यदि आर्थिक रूप से सबसे कमजोर क्षेत्रों को देखें तो वहां एक गाय या बैल को इस संघर्ष में खोने का मतलब है कि पशुपालक ने अपने बच्चे की करीब 18 महीने की कैलोरी के बराबर खो दिया है।

जलवायु में आते बदलावों से कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा संघर्ष

इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक मांसाहारी जीवों की 82 फीसदी रेंज संरक्षित क्षेत्रों के बाहर है। वहीं पांच खतरे में पड़े मांसाहारी जीवों की एक तिहाई से ज्यादा रेंज आर्थिक रूप से संवेदनशील संघर्ष क्षेत्रों में स्थित हैं। जो पशुपालकों के लिए बड़ा खतरा है।

देखा जाए तो यह समस्या इसलिए भी गंभीर है क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर इन देशों में किसान जहां तरफ पहले ही जलवायु में आते बदलावों की मार झेल रहे हैं वहीं अनुमान है कि जलवायु में आते इन बदलावों के चलते मानव-वन्यजीवों के बीच होता संघर्ष कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा। ऐसे में जहां बदलती जलवायु कृषि पर असर डालेगी साथ ही उनके मानव-वन्यजीव संघर्ष के रूप में उनके मवेशियों पर भी खतरा कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा।

देखा जाए तो यह निष्कर्ष जहां एक तरफ मानव-वन्यजीव संघर्ष के असमान बोझ को उजागर करते हैं। वहीं कई मामलों में यह सतत विकास के लक्ष्यों के लिए भी खतरा हैं।

हजारों वर्षों से इंसान प्रकृति और वन्यजीवों के साथ सामंजस्य के साथ रहता आया है। लेकिन अब जिस तरह संसाधनों का दोहन हो रहा है और विकास के नाम पर विनाश किया जा रहा है उसकी वजह से यह संघर्ष कहीं ज्यादा बढ़ता जा रहा है। जहां मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा के लिए जंगलों का दोहन कर रहे है वहीं जंगली जीव भी अपनी प्राकृतिक सीमाओं को छोड़ आसपास के गांवों और मवेशियों को अपना निशाना बना रहे हैं।

ऐसे में यह जरूरी है कि इसका ऐसा समाधान निकाला जाए जिससे वन्यजीवों के साथ-साथ गरीबी और भूख से जूझ रहे लोगों का विकास संभव हो सके। इस बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता सोफी गिल्बर्ट का कहना है कि प्रकृति के प्रति सकारात्मक बनने के लिए हमें वन्यजीवन के फायदे और लागत दोनों पर विचार करने की जरूरत है।

उनके अनुसार यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जो लोग वन्यजीवों के साथ रहने का बोझ उठा रहे हैं। उन्हें आर्थिक एवं अन्य रूप से बेहतर समर्थन दिया जाए। उनका मानना है कि स्थानीय लोगों और वन्यजीवों के आपसी सामंजस्य के साथ रहने से ही बड़े मांसाहारी जीवों के संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयास सफल होंगें।

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