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अंधेरे का अंत

अमूमन प्रकाश प्रदूषण को वायु प्रदूषण के समान हानिकारक नहीं माना जाता किन्तु यह नींद, प्रजनन, पाचन क्रिया, प्रवास और भोजन संबंधी सदियों पुरानी तारतम्यता को बिगाड़ सकता है। 

 
By Rakesh Kalshian
Published: Thursday 15 February 2018

तारिक अजीज / सीएसई

क्या आपको याद है कि आपने रात में आसमान में चमचमाते हुए तारों को आखिरी बार कब देखा था तथा समय और काल के गहरे अंतरालों से उन्हें अपने ओर देखते कब पाया था? आकाश गंगा, जिसका एक छोटा-सा भाग हमारी पृथ्वी है, अथवा बिना दूरबीन के दिखाई देने वाला सबसे चमकीला तारा बीटलज्यूस, अथवा बृहस्पति के चन्द्रमा और शनि के छल्लों को ही आखिरी बार कब देखा था? और जब स्वर्ग की बात आती है तो हम में से अधिकांश, खासकर शहरी लोग, कुएं के मेंढक बन जाते हैं (संभवत: जब इसकी रहस्यमयी गति को हम अपने भाग्य से जोड़ के देखते हैं)। लेकिन आज की चमचमाती शहरी जिंदगी में खगोलीय घटनाओं में दिलचस्पी रखने वालों के लिए ऐसे अंधेरे वाली जगहें बहुत कम बची हैं जहां से रात के आसमान को बिना रुकावट देखा जा सके।

सन 1994 की एक घटना इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी है जब लॉस एंजिलिस में तड़के भूकंप आने से बिजली चली गई तो लोगों ने बताया कि “आसमान कुछ अजीब-सा” डरावना लग रहा था। दरअसल वे तारों को देख रहे थे।

वैज्ञानिक इसे प्रकाश प्रदूषण कहते हैं, और पृथ्वी की सैटेलाइट से मिलने वाली तस्वीरों में यह अधिक स्पष्ट रूप से नजर आता है। साइंस एडवांसेस में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2012 से 2016 तक प्रत्येक अक्टूबर को खींची गई सैटेलाइट तस्वीरों से पता चलता है कि दुनिया सिर्फ गरम ही नहीं हो रही है बल्कि ज्यादा प्रकाशमय भी हो रही है। खासतौर से अमेरिका में यह चकाचौंध इतनी ज्यादा है कि वहां बढ़ने वाले बच्चे शायद कभी आकाशगंगा को न देख सकें। पश्चिमी यूरोप की कहानी भी इससे कुछ ज्यादा अलग नहीं है।  

रोशनी शेष विश्व को भी अपना गुलाम बना रही है। अध्ययन के अनुसार, रोशनी के क्षेत्र में अधिकांश वृद्धि विकासशील देशों में होती है। अफ्रीका में अब भी कई इलाके अंधेरे में हैं जबकि भारत और चीन रोशनी की बाढ़ सी आई हुई है। यह पहले के अध्ययनों के निष्कर्ष के अनुसार है कि रोशनी जीडीपी में वृद्धि के साथ बढ़ती है। इसलिए आने वाले समय में विश्व और प्रकाशमय होने वाला है।

जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश ईष्टतम अवस्था तक पहुंच चुके हैं। इस अध्ययन के लेखकों ने यह इंगित किया है कि रोशनी इससे अधिक हो सकती है क्योंकि इस अध्ययन में जिन सैटेलाइटों का इस्तेमाल किया गया है वे एलईडी की नीली रोशनी को पकड़ नहीं पाते। ये एलईडी लाइटें तेजी से पुराने सोडियम लैंपों की जगह ले रही हैं क्योंकि इनमें बिजली की खपत कम होती है और ये ज्यादा चलती हैं, तथा इसलिए कार्बन का उत्सर्जन कम होता है। आज बड़े शहरों में लगभग हर जगह ये लाइटें दिख जाती हैं– पार्कों में, घरों में, सड़कों पर, स्टेडियमों और मॉल आदि में। यह जेवॉन विरोधाभास का एक और उदाहरण है जो यह कहता है कि सामान्य सोच  के विपरीत, कम चीज से ज्यादा काम लेने से हमेशा बचत नहीं होती।

क्या हो अगर हमें आकाशगंगा की खूबसूरती देखने का मौका ही न मिले? क्या यह प्रगति के लिए बहुत छोटी कीमत नहीं है जिससे हमारे शहरों को अधिक सुरक्षित बनाया है? (प्रसंगवश, यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जस्टिस द्वारा 1997 में किए गए अध्ययन में अपराध और रात में रोशनी के बीच कोई ठोस संबंध नहीं पाया गया। इसलिए यह दावा विवादित है)। अमूमन प्रकाश प्रदूषण को वायु प्रदूषण के समान हानिकारक नहीं माना जाता किन्तु यह नींद, प्रजनन, पाचन क्रिया, प्रवास और भोजन संबंधी सदियों पुरानी तारतम्यता को बिगाड़ सकता है जिसे हमने रोशनी और अंधकार के प्राकृतिक चक्र के साथ मिलकर हजारों वर्षों में बनाया है। उदाहरण के लिए नेचर पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि अप्राकृतिक रोशनी रात्रिकालीन परागकणों को पौधों से दूर करती है। एक अन्य ब्रिटिश अध्ययन में यह पाया गया है कि जिन पेड़ों पर अप्राकृतिक रोशनी पड़ती है उनकी कलियां जल्दी झड़ जाती हैं। कई अन्य अध्ययन इस बात के साक्षी हैं कि किस तरह अप्राकृतिक रोशनी कीट पतंगों, प्रवासी पक्षियों, चमगादड़ और उल्लू जैसे निशाचरों तथा समुद्री जीवन पर विपरीत प्रभाव डाला है। जहां तक पौधों पर इसके प्रभाव का संबंध है, इस दिशा में अभी ज्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं।

जीवन के अन्य रूपों की बात छोड़ दीजिए क्योंकि उनके लिए वे आधुनिक सभ्यता का बहाना बना लेते हैं। हम तो यह जानने के भी इच्छुक नहीं हैं कि प्रकाश प्रदूषण किस प्रकार हमारी अपनी प्रजाति के जीवन का खतरे में डाल रहा है। यह सामान्य बात हो चुकी है कि आजकल की दिन रात भागती जिंदगी में नींद न आने की बीमारी पूरे विश्व में फैल चुकी है। इसके अलावा कैंसर, मोटापा, तनाव और डिमेंशिया के प्रकाश प्रदूषण से संबंध के सबूत मिले हैं।

हम केवल अप्राकृतिक रोशनी के जरिए ही उजाले और अंधकार के बीच की प्राकृतिक रेखा को नहीं बिगाड़ रहे हैं बल्कि लैपटॉप और स्मार्टफोनों के प्रति हमारी सनक भी इसे नुकसान पहुंचा रही है। वास्तव में पिछले वर्ष शरीर विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार तीन अमेरिकी वैज्ञानिकों को शरीर की आंतरिक घड़ी और बाहरी वातावरण के बीच जटिल संबंध को उजागर करने के लिए दिया गया था। कई लोगों का मानना है कि इसे हमारी जिंदगी में भुला दिए गए अंधेरे के महत्व को पुन: जागृत करने के आह्वान माना जाना चाहिए।


अंधकार के प्रति जिज्ञासा, विशेष रूप से नींद के संबंध में, बहुत पुरानी है। प्राचीन ग्रंथ मंडुक्य उपनिषद में तुरिया (चतुर्थ अवस्था) नामक चेनावस्था बताई गई है जो आधी रात के गहरे अंधेरे में होती है तथा अन्य तीन– जगने, स्वप्न देखने और स्वप्न मुक्त नींद तक पहुंचती है। अन्य संस्कृतियों में भी इस तरह की बातें मिलती हैं– इस्लाम में तहज्जुद अथवा रात की प्रार्थना, और यहूदी धर्म में चटजोट अथवा अर्धरात्रि सुधार। हालांकि अब यह बहुत दुर्लभ हो गए हैं क्योंकि अंधकार की जगह बिजली के लैंपों ने ले ली है।

लेकिन अंधकार से डर भी लगता है इसलिए एडीसन द्वारा बल्ब का इजाद करने से कई सौ साल पहले (लगभग 250,000 साल पहले) ही इंसान ने आग जलाना सीख लिया था। हार्वर्ड के मानवविज्ञानी रिचर्ड रेंघम अपनी किताब कैचिंग फायर में कहते हैं कि आग के आसपास इकट्ठा होना और भोजन करना ही हमें मनुष्य बनाता है। समय के साथ मनुष्य ने अंधेरे पर विजय पाने के और तरीके ढूंढ लिए जैसे मोमबत्ती, फिर तेल से जलने वाले लैंप, गैस से जलने वाली लाइटें और अब बिजली से जलने वाले लैंप। ये आज दुनिया के हर हिस्से में फैल चुकी हैं। 60 प्रतिशत से ज्यादा दुनिया तथा अमेरिका और यूरोप का लगभग 99 प्रतिशत भाग रोशनी से भरे गहरे काले आसमान के नीचे रहता है।

लेकिन आसमान में तारों को देखने या गहरी नींद का आनंद लेने के लिए कौन रोशनी का विरोध करेगा? पारसियों ने 18वीं सदी में लालटेन को समाप्त कर दिया था, बिजली के लैंपों के साथ ऐसा करना बहुत ही बेवकूफाना हरकत होगी। सच तो यह है कि हम रोशनी के बिना नहीं रह सकते।

जैसा कि पॉल बोगार्ड अपनी किताब द एंड ऑफ नाइट में लिखते हैं, “रात में रोशनी स्वागत का प्रतीक है लेकिन क्या कभी यह बहुत ज्यादा भी हो सकती है? अंधकार को दूर हटाते हुए हम क्या खोते जा रहे हैं?” बिजली के लैंप के बारे में 19वीं सदी के उर्दू शायद अकबर इलाहबादी का लिखा यह शेर इस विषय पर और रोशनी डालता है:

बर्क के लैंप से आंखों को बचाये अल्लाह
रोशनी आती है और नूर चला जाता है

ये पंक्तियां सोचने पर मजबूर करने वाली हैं। पर कैसा हो जब रात की परछाई को महसूस करने का आनंद भी मिले?

(यह मासिक खंड देश काल के अनुसार विज्ञान और पर्यावरण के विषय में आधुनिक विचारों के उलझाव को सुलझाने के लिए प्रयासरत है)

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