अकाल की राजनीति में उलझे एक आदर्शवादी प्रशासनिक अधिकारी के संघर्ष पर केंद्रित यूआर अनंतमूर्ति का उपन्यास ‘बारा’ आज भी बेहद प्रासंगिक है
लोकतंत्र में प्रभावशाली ढंग से काम करने के लिए केवल नेकनीयत ही पर्याप्त नहीं है। कोई क्रांति लाने के लिए केवल विचारधारा का होना ही काफी नहीं है। लेखक यूआर अनंतमूर्ति का उपन्यास ’बारा’ ऐसे ही आविर्भावों से परिपूर्ण है। यह एक सच्चे और ईमानदार जिला आयुक्त (सतीश) की कहानी है जो एक जिले को सूखाग्रस्त घोषित करने में असफल रहता है। जैसे-जैसे नायक राजनीति के शिकंजे में फंसता है, खुद के विचारों में उसका विश्वास कमजोर होने लगता है। भूख से बिलखती आबादी को बचाने के लिए अपनी पावर का इस्तेमाल करने की उसकी मंशा दमनकारी सत्ता द्वारा झिंझोड़ दी जाती है।
हालांकि इस लघु उपन्यास में 70 के दशक की युगचेतना को व्यक्त किया गया है, तथापि इसमें वर्णित राजनैतिक दांव-पेच सभी दशकों के लिए समकालीन प्रतीत होते हैं। इसमें एक ऐसे मुख्यमंत्री का चित्रण किया गया है जो सूखाग्रस्त क्षेत्र के लोगों को सिर्फ इस डर से मदद नहीं करता कि कहीं इससे उसके राजनैतिक विरोधियों को लोगों का समर्थन हासिल करने में मदद न मिल जाए। जबकि यही मंत्री अनाज की कमी का फायदा उठाने वाले अवैध जमाखोरों और कालाबाजारियों के प्रति वफादार बना रहता है। चूंकि ये उसके समर्थक हैं।
एक ऐसे जिले में जहां चारों ओर मवेशियों के कंकाल पड़े हैं, पेड़े-पौधे सूख चुके हैं, सतीश ईमानदारी की जगह कुटिल राजनीति के बढ़ते प्रभाव को देखकर घबरा जाता है। वह महसूस करता है, “राजनीति कुचक्र में शामिल हुए बगैर अर्थात भ्रष्ट हुए बिना कुछ भी कर पाना अत्यंत कठिन है।”
हालांकि, मंत्री रूद्रप्पा सतीश को “सरकार का एक स्तंभ” बताते है, फिर भी सरकारी संस्थानों की निष्क्रियता और शक्तिशाली राजनैतिक ताकतों के दांव-पेंच उसे परेशान कर डालते हैं। सूखाग्रस्त जिले के निस्सहाय लोग उसकी तरफ ऐसे देखते हैं जैसे वह स्वयं सरकार हो। उन्हें सतीश के नेक इरादों पर तो पूरा भरोसा है परंतु उन्हें किसी तरह की राहत पहुंचाने की उसकी क्षमताओं पर नहीं।
अनाज वितरण केंद्रों के बाहर लगी लंबी-लंबी कतारों को देखकर और भुखमरी व पीड़ा की भयावहता का अनुभव कर सतीश अंदर तक हिल जाता है। वह स्वीकार करता है, “ये सारी पंक्तियां मुझे इसलिए नजर आ रही हैं क्योंकि मैं कतार में शामिल नहीं हूं।” लेखक के अनुसार, लोगों के लिए सतीश के मन में यह सहानुभूति सहज मानवतावाद है क्योंकि “बुद्धिजीवियों की संवेदनशीलता एक तरह का रूढ़िवाद” और “अपने हाथ मैले किए बगैर जीने की चाहत भरी कायरता थी।”
जिला आयुक्त के रूप में सतीश एक समझदार नौकरशाह है जो अभी भी बुर्जुआ मूल्यों से जुड़ा हुआ है। वह न तो यथास्थिति को स्वीकार कर सकता है और न ही खूंखार क्रांतिकारी ही बन सकता है। वह दो नावों में सवार हो जाता हैः एक ओर जहां इतिहास मलबे के ढेरों में तब्दील हो चुका है और दूसरा, जहां मुगल शैली की संगमरमर की नक्काशी अभी भी किसी बंगले के गलियारों को सुशोभित करती हैं; एक ओर जहां सूखे हलक वाले लोग आसमान की ओर टकटकी लगाए हुए हैं जबकि दूसरी तरफ तीन व्यक्ति एक ‘बड़े सुगंधित केक’ और व्हिस्की का लुत्फ उठाते हैं।
‘बारा’ में अनेक अंतर्विरोधी ताकतें दिखाई पड़ती हैं। कई स्तरों पर द्वंद्व है, जैसे एक कुटिल राजनीतिज्ञ (भीमोजी) और एक आदर्शवादी व्यक्ति के बीच, स्थानीय वास्तविकताओं तथा सैद्धांतिक ज्ञान के बीच तथा एक मोहभंग व्यक्ति और विक्षिप्त लोगों के बीच। बेतरतीब मकानों से लेकर बंजर मैदानों और दम तोड़ते मवेशियों से लेकर कंपकपाते हाथों से हल जोतते किसानों व बंजर जमीन की पीड़ा ‘बारा’ में सब तरफ व्याप्त है। यहां मानवता का अकाल साफ दिखाई देता है, जिसके चलते सरकारी व्यवस्था में शामिल लोग भूखी-गरीब जनता के लिए आए खाने के पैकेट भी बेइमानी से डकार जाते हैं।
‘बारा’ नौकरशाहों के पैरों में बेड़ियां डालकर विश्वास का संकट खड़ा करने वाली संरक्षणवादी राजनीति और शासन में निरंकुशता पर बहस खड़ी करती है। यह “निराशाजनक स्थितियों में मानवीय स्वतंत्रता की संभावनाओं तथा सीमाओं” को समझने का एक प्रयास है। कहानी के अंत में जिले के गरीब और अनाज के दाने-दाने से मोहताज लोग कानून अपने हाथों में लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं। एक कटोरी चावल के लिए उनका ‘सत्याग्रह’ तुरंत ही सांप्रदायिक दंगों के रूप में धधक उठता है। अनंतमूर्ति जैसे घोषित धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए यह संभवत: उनके सबसे खौफनाक भय की अभिव्यक्ति है।
‘सूखे की खबर सहानुभूमि पैदा नहीं करती’
यूआर अनंतमूर्ति के उपन्यास ‘बारा’ के अनुवादक चंदन गौड़ा से बातचीत
कर्नाटक के लोग राज्य में लगातार तीन साल पड़े सूखे को किस तरह देखते हैं?
चार दशकों के सबसे भीषण सूखे की खबर भी बेंगलुरू और मैसूर के लोंगों को उनकी अपनी समस्या नहीं लगती है। उनके लिए यह दूर-दराज की खबर है। देखा जाए तो सूखा प्रभावित लोगों के कटु अनुभव मुख्यधारा के मीडिया में ज्यादा से ज्यादा उजागर होने चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है बारिश और फसलों की बर्बादी के आंकड़ों से भरी खबरें भी लोगों में सहानुभूति पैदा कर पाने में नाकाम रहती हैं।
क्या आप कर्नाटक के सूखे को स्थानीय एजेंसियों के बीच योजना एवं समन्वय की विफलता से जोड़कर देखते हैं?
लगातार तीन वर्षों तक बारिश न होना तथा भूजल-स्तर में लगातार गिरावट एक बड़ी समस्या है। उत्तरी कर्नाटक के भीषण सूखाग्रस्त जिलों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अलमट्टी बांध में पानी की बेहद कमी है। जैसा कि सभी जानते हैं कि अकाल की समस्या प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ सामाजिक व राजनैतिक कारकों की वजह से भी उत्पन्न होती है। राज्य सरकार ने भीषण अकाल की मार झेल रहे गांवों में टैकरों से जलापूर्ति के प्रयास किए हैं। लेकिन गांववासियों की शिकायत यह है कि जलापूर्ति पर्याप्त नहीं है। राहत के तात्कालिक उपायों के साथ-साथ सरकार को भूजल-स्तर में सुधार के लिए दीर्घकालीन कदम उठाने की जरूरत है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यूआर अनंतमूर्ति का कर्नाटक की राजनैतिक स्थितियों से मोहभंग हो गया है और उन्होंने आधुनिक विश्व प्रणाली के विरूद्ध किसी तरह के प्रतिरोध की बात कही। वे जिस प्रतिरोध के बारे में बात करते थे उसके बारे में आपका ख्याल है?
आधुनिक विश्व तंत्र का प्रतिरोध उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण था। भारतीय भाषाओं में ज्ञानवर्धन इसका एक तरीका था। इसके अलावा उग्र सुधारवादी राजनीति की हमारी परिकल्पना में पश्चिम के दबदबे से उबरना एक दूसरा उपाय था। आधुनिकता को संदेह की नजरों से देखने का अभिप्राय प्रत्येक पश्चिमी अथवा आधुनिक चीज को नकारना कदापि नहीं है। उन्होंने भारतीय संविधान, जो मूल अधिकारों और स्वतंत्रता की पश्चिमी अवधारणाओं पर आधारित है, पर कभी संदेह नहीं किया। गांधी जी और लोहिया जी के विचार उनके लिए बहुत मायने रखते थे।
विकास के बारे में उनके क्या विचार थे? क्या आप यह मानते हैं कि ‘बारा’ ऐसे नौकरशाहों के वैचारिक निर्धारण पर कुठाराघात है जो उन्हें सामाजिक वास्तविकताओं से दूर धकेल देता है?
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मुद्दों के बारे में गांधी जी के सर्वोदय के विचार ने उनका मार्गदर्शन किया। अंतिम कुछेक दशकों में वह कुछ सरोकारों को निरंतर साझा करते रहे जैसे- हमारे राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन में विकेंद्रीकरण की महत्ता, समाज के सभी वर्गों के बच्चों को दखिला देने वाले कॉमन स्कूल बनाने की आवश्यकता तथा पर्यावरण के लिए नीतिगत पहल। वे भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच बिगड़ते संबंधों को लेकर भी अत्यंत चिंतित थे। उन्होंने मेधा पाटेकर, अरुणा राय और तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा किए जा रहे कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। ‘बारा’ हमें इस बारे में सतर्क करता है कि कैसे सुशासन के मामलों में स्थानीय लोग उन पर शासन करने वाले नौकरशाहों की तुलना में ज्यादा समझदार हो सकते हैं। औपनिवेशिक दौर से चली आ रही नौकरशाही में जिला आयुक्त को मिली व्यापक शक्तियां भी जरूरत से ज्यादा और अलोकतांत्रिक प्रतीत होती हैं। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं ‘बारा’ में एक शिक्षित, मध्यमवर्गीय एवं उदार भारतीयों की स्थिति को रेखांकित करने के लिए एक आईएएस अधिकारी के पात्र का इस्तेमाल किया गया है।
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