Science & Technology

कम प्रदूषण वाली तकनीक से दूर ईंट भट्टे

दिल्ली-एनसीआर ईंट भट्टे स्वच्छ दहन प्रौद्योगिकी से दूर हैं। पूरी आशंका है कि ये भट्टे तय समयसीमा के अंदर खुद को नहीं बदल पाएंगे

 
By Saujanya Shrivastav
Published: Tuesday 30 October 2018
दिल्ली-एनसीआर के 3,823 भट्टों में से 74 प्रतिशत ने अब तक तकनीक में बदलाव नहीं किया है (राहुल सिंह / सीएसई)

हरियाणा के झज्जर जिले में स्थित राज कुमार यादव की ईंट भट्टी बाहर से देखने पर जिगजैग प्रौद्योगिकी पर आधारित सामान्य सी इकाई लगती है। जिगजैग भट्टी का नाम ईंटों को जलाने के लिए अपनाई जाने वाली प्रभावी फायरिंग तकनीकी के आधार पर रखा गया है जिसमें आयताकार दीवार होती है। हालांकि नजदीकी से देखने पर पता चलता है कि यादव ने भट्टी की दीवार को हाल ही में बदलकर इसे आयाताकार बनाया है। ये अभी भी परंपरागत और अत्यधिक प्रदूषक फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न (एफसीबीटीके) प्रौद्योगिकी पर चल रही है जिसमें ईंटों को पंक्तिबद्ध करके उनमें आग लगा दी जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, जिगजैग भट्टियां एफसीबीटीके के तुलना में कोयले की 25 प्रतिशत कम खपत करती हैं और 70 प्रतिशत कम प्रदूषक उत्सर्जित करती हैं।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित समिति केंद्रीय प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण ने मई, 2017 में यह आदेश दिया था कि 2018 में भट्टियों के दोबारा शुरू होने (भट्टियां बारिश के मौसम में बंद हो जाती हैं और आमतौर पर सर्दियों के दौरान काम शुरू करती हैं) से पहले दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में सभी भट्टियों को जिगजैग प्रौद्योगिकी में परिवर्तित करना होगा। किन्तु दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जुलाई में प्रकाशित सर्वेक्षण में बताया गया है कि समय-सीमा पास आने के बावजूद दिल्ली-एनसीआर के 3,823 भट्टों में से 74 प्रतिशत भट्टों ने अभी तक यह बदलाव नहीं किया है। इस सर्वेक्षण में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के 13 जिलों के 76 भट्टों को शामिल किया गया था जिसमें यह पाया गया कि लगभग 15 प्रतिशत ईंट भट्टे जिगजैग प्रौद्योगिकी अपनाने के बावजूद एक सीध में ईंटें जलाकर व्यवस्था को बेवकूफ बना रहे थे। इससे प्रौद्योगिकी में परिवर्तन का उद्देश्य सार्थक नहीं होता क्योंकि एक सीध में ईंटों को जलाने से प्रदूषण कम नहीं होता है। यह बिना पकी ईंटों और गर्म हवा के निकलने के रास्ते की व्यवस्था है जो भट्टी की दक्षता को बढ़ाती है। सीएसई के उप-महानिदेशक चंद्र भूषण कहते हैं “हालांकि एफसीबीटीके को जिगजैग प्रौद्योगिकी में बदला जा रहा है, फिर भी इस बदलाव की गुणवत्ता पर संदेह बना हुआ है। यह बदलाव करने वाली केवल आधी भट्टियों ने ही ऐसे कदम उठाए हैं जिससे उत्सर्जन में 30-50 प्रतिशत की कमी आएगी।”

इस सर्वेक्षण में कई अन्य उल्लंघनों का भी पता चला। सर्वेक्षण में शामिल लगभग 60 प्रतिशत भट्टों में मियान जो चिमनी की नली के रूप में काम करने वाली मुख्य संरचना है, का डिजाइन और दिशा गलत पाई गई। इससे हवा की आवाजाही में बाधा पहुंचती है तथा भट्टी की ईंधन दक्षता में कमी आती है। लगभग 70 प्रतिशत भट्टों की बाहरी दीवार में दरारें थीं। इससे जमीन से ताप में कमी आती है तथा भट्टी की ऊर्जा दक्षता प्रभावित होती है।

सर्वेक्षण में शामिल 88 प्रतिशत भट्टों में उत्सर्जन निगरानी सुविधा का अभाव पाया गया जबकि सभी भट्टों के लिए इसका होना कानूनन अनिवार्य है। 30 प्रतिशत से अधिक भट्टे ऐसे थे जहां खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों का इस्तेमाल किया जा रहा था जैसे पायरालिसिस संयंत्र में कार्बन, रबड़ अपशिष्ट और ईंधन के रूप में प्लास्टिक के टुकड़े।

सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि ईंट के भट्टे ईंधन के भंडारण संबंधी मानदंडों के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं। कुछ भट्टों में यह देखा गया कि भट्टे के मालिकों द्वारा ईंधन को प्लास्टिक की चादरों से ढंका भी नहीं जा रहा। राजस्थान में केवल तीन भट्टे ऐसे थे जहां भट्टे के मालिकों द्वारा ईंधन के भंडारण के लिए एक निश्चित जगह बनाई गई थी।

अनुपालन में विलंब क्यों

अखिल भारतीय भट्टा और टाइल विनिर्माता महासंघ (आईबीटीएमएफ) के अध्यक्ष विजय गोयल का कहना है, “कामकाज की शुरुआत से पहले दिल्ली-एनसीआर के सभी भट्टा मालिकों का ईंट के भट्टों को जिगजैग प्रौद्योगिकी में बदल पाना मुश्किल लगता है।‘ महासंघ के सदस्यों के अनुसार जिगजैग प्रौद्योगिकी में अंतरण की राह में सबसे बड़ी बाधा श्रमिकों का अभाव है। हरियाणा के फरीदाबाद में एक ईंट भट्टे के मालिक रमेश मित्तल कहते हैं, “प्रौद्योगिकी में बदलाव करने के लिए मुझे मजदूर ही नहीं मिल पा रहे हैं। जो मजदूर मिल भी रहे हैं वे इस काम को करने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं।”

एआईबीटीएमएफ के खजांची मनीष गुप्ता बताते हैं, “मजदूरों के अलावा एक और समस्या यह है कि जिगजैग प्रौद्योगिकी में बदलाव के लिए 25-30 लाख रुपए की जरूरत है। यह बहुत ज्यादा है और इस बदलाव के लिए दिया गया समय बहुत कम है।”

लेकिन इन कारणों में बहुत ज्यादा वजन नहीं है। स्वच्छ ऊर्जा पर अनुसंधान करने और परामर्श देने वाली दिल्ली स्थित फर्म ग्रीन-टेक नॉलेज सॉल्यूशंस के निदेशक समीन मैथेल इन कारणों का विरोध करते हुए बताते हैं, “ईंट के भट्टों के लिए जिगजैग प्रौद्योगिकी का उपयोग 1970 से हो रहा है तथा यह जांची-परखी गई प्रौद्योगिकी है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल के 2,500-3,000 ईंट भट्टा मालिक बिना किसी सरकारी आदेश की प्रतीक्षा किए वर्षों से इस प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं।” बिहार भी वर्ष 2016 से अपने भट्टों में जिगजैग प्रौद्योगिकी को अपनाने का प्रयास कर रहा है। राज्य सरकार द्वारा 30 अगस्त 2018 को जारी अंतिम आदेश के अनुसार, सभी भट्टों को 31 अगस्त 2019 तक स्वच्छ प्रौद्योगिकी अपनानी होगी। मैथेल कहते हैं, “राज्य के करीब 6500 ईंट के भट्टों में से अब तक 450-500 ने जिगजैग प्रौद्योगिकी को अपना लिया है। लेकिन लागत और मजदूरों की उपलब्धता जैसी समस्याओं के बावजूद अधिकांश भट्टों के मालिक पुरानी प्रौद्योगिकी के बदले जिगजैग प्रौद्योगिकी अपनाने के इच्छुक हैं। हमने पटना के आसपास सर्वेक्षण किया जिसमें यह पाया कि जिगजैग प्रौद्योगिकी अपनाने वाले लगभग 65 प्रतिशत लोगों ने यह माना कि यह अधिक ईंधन दक्ष थी तथा इससे निर्मित ईंटों की गुणवत्ता बेहतर थी।”

क्या करे सरकार?

विनियामक इस तथ्य से थोड़ी तसल्ली पा सकते हैं कि दिल्ली-एनसीआर के लगभग 1,500 ईंट भट्टों के मालिक यह हलफनामा दे चुके हैं कि वे इस वर्ष काम शुरू करने से पहले जिगजैग प्रौद्योगिकी अपना रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो लगभग 65 प्रतिशत भट्टे जिगजैग प्रौद्योगिकी में बदल चुके होंगे। लेकिन ऐसा होना मुश्किल लगता है।

सीएसई सर्वेक्षण में यह सिफारिश की गई है कि सरकार भट्टा मालिकों को जिगजैग प्रौद्योगिकी से परिचित कराने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करे जिससे उन्हें इसे काम में लाने में तथा विनियामकों को निगरानी करने में मदद मिलेगी। सरकार को भट्टों की निगरानी के लिए जिला अथवा राज्य स्तर पर विशेषज्ञ समिति का गठन करना चाहिए। सीपीसीबी जिगजैग भट्टों के निर्धारण के लिए दिशानिर्देश बनाए। इससे अधिकारियों को अनुपालन सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

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