Water

कहीं अतिशय बारिश, कहीं सूखा

बारिश में उतार-चढ़ाव या अनिश्चितता किसानों के लिए डरावनी हकीकत में तब्दील होती जा रही है। बारिश में यह तब्दीली जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखी जा रही है।  

 
By Bhagirath Srivas
Published: Monday 15 January 2018
निधि जामवाल

महाराष्ट्र में बेमौसम और अतिशय बारिश की मार से सबसे ज्यादा किसान बेहाल हैं। राज्य की अधिकांश कृषि बारिश के भरोसे है। किसान आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं। बारिश में उतार-चढ़ाव या अनिश्चितता किसानों के लिए डरावनी हकीकत में तब्दील होती जा रही है। महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा जैसे कुछ इलाके भयंकर सूखे की चपेट में है जबकि मुंबई और उसके आसपास के इलाके ज्यादा बारिश से बेहाल हो रहे हैं। बारिश में यह तब्दीली जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखी जा रही है। स्थानीय प्रतिनिधि इसे किस नजरिये से देखते हैं, यह जानने के लिए भागीरथ ने उनसे बातचीत की

ग्लोबल वार्मिंग हकीकत है और महाराष्ट्र में इसे लगातार महसूस भी किया जा रहा है। राज्य में ज्यादातर किसान खेती के लिए मानसून पर निर्भर है। यहां सिंचित जमीन कम है। इसका सबसे ज्यादा असर किसानों पर पड़ रहा है। मेरे इलाके में पिछले कुछ सालों से बारिश का ट्रेंड काफी बदल गया है। पहले 7 जून से बारिश शुरू होकर सितंबर तक होती थी। अब दिवाली के बाद तक भी बारिश का आना अनिश्चित है। इससे खेती प्रभावित हुई है।

किसान मुसीबत में है। ज्यादा बारिश से ओला और कम बारिश से सूखे के हालात पैदा हो रहे हैं। इस कारण खेती प्रभावित हो रही है। इससे महंगाई बढ़ रही है। महाराष्ट्र में बारिश अनिश्चित और खेती का नुकसान होने के कारण देश में सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्या हो रही है। यह महाराष्ट्र के लिए सबसे दुखद बात है। तत्काल राहत के लिए किसानों को जो नुकसान होता है, उसका मुआवजा देने के लिए केंद्र सरकार ने नीति में बदलाव किया है।

पहले 50 प्रतिशत नुकसान पर राहत मिलती थी। अब 33 प्रतिशत नुकसान पर भी राहत मिलती है। सरकार ओला और सूखे से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा देती है लेकिन प्रकृति के सामने आदमी और सरकार की मर्यादा है। प्रकृति आखिर प्रकृति है और उसकी फटकार मिलने से संवरना बहुत मुश्किल होता है। सरकार और लोग मिलकर सामना करें तो हम ग्लोबल वार्मिंग के संकट से निकलने का कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे।

इस देश में वातावरण का सही अंदाज देने के लिए हाइटेक और आधुनिक सैटेलाइट सेंटर जरूरी है। नदी का प्रदूषण और पेड़ कटाई, जंगल का खत्म होना और शहरीकरण का बढ़ना मुख्य समस्याएं हैं। हम शहरीकरण तो नहीं रोक सकते लेकिन जंगल का क्षेत्रफल बढ़ा सकते हैं। 2030 तक देश के सब वाहन बिजली से चलने लगें और पेट्रोल-डीजल का इस्तेमाल पूरी तरह बंद हो जाए, सरकार यह इस दिशा में काम कर रही है।

पुणे और इसके आसपास का इलाका विदर्भ और मराठवाड़ा की तरह सूखे जैसे हालातों से तो नहीं गुजर रहा है लेकिन बेमौसम बरसात जरूर परेशानी पैदा कर देती है। शायद यह ग्लोबल वार्मिंग का असर है। इसके लिए हम लोग खुद ही कसूरवार हैं। मुझे लगता है कि जिस रफ्तार से जंगलों व पेड़ों को काटा जा रहा है और कंक्रीट का जंगल तैयार होता जा रहा है, वह इसके लिए जिम्मेदार है।

साथ ही प्रदूषण भी काफी बढ़ गया है। पहले तालाब और नदियों को पानी पीने लायक होता था लेकिन अब उसमें स्नान तक नहीं कर सकते। इनका पानी इतना गंदा हो गया है कि लोग बीमार हो जाते हैं। कई नदियों और तालाबों में अब मछलियां तक नहीं होतीं। कुदरत से पहले इंसानों ने खेला और अब कुदरत इंसानों के साथ खेल रही है। कुदरत के इस खेल से सबसे ज्यादा नुकसान गरीब किसानों और उनकी फसलों को होता है। कई बार मार्च और अप्रैल में बारिश हो जाती है लेकिन जून में उतनी बारिश नहीं होती, जितनी जरूरी होती है।

अक्सर पर्याप्त बारिश न होने से मूंगफली ठीक से नहीं पक पाती। प्याज की फसल को भी इससे नुकसान पहुंचता है। उनमें सफेद रंग के कीड़े लग जाते हैं और प्याज का रस चूस लेते हैं। इन कीड़ों को मारने के लिए अक्सर दवाइयों का छिड़काव करना पड़ता है। यह बात सच है कि महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्र में हालात ठीक नहीं हैं। इसी कारण किसान अपनी जान भी दे रहे हैं।

हमारे गांव में भौगोलिक स्थिित इसे सूखे से बचा  लेती है, साथ ही प्रशासनिक और पंचायती स्तर पर किए गए विकास कार्यों के चलते बड़ी संख्या में चेकडैम बनाए गए हैं जिससे भूमिगत जलस्तर बढ़ गया है। महाराष्ट्र में जो क्षेत्र सूखाग्रस्त हैं, वे भी ऐसे कदम उठाकर सूखे का असर कुछ हद तक कम कर सकते हैं। हमारे गांव में पेड़ काटने की सख्त मनाही है। एक पेड़ काटने के बदले दस पेड़ लगाने पड़ते हैं। ऐसा सब जगह हो तो कुछ राहत मिल सकती है।

‘नीति राजनीति’ में हम किसी स्थानीय समस्या को लेकर संबंधित क्षेत्र के ग्राम प्रतिनिधि/पार्षद और लोकसभा/राज्यसभा सदस्य से बातचीत करेंगे। यह किसी समस्या को स्था नीय प्रतिनिधियों के नजरिए से देखने का प्रयास है।

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