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गंगा की सफाई : दावे और हकीकत

 नितिन गडकरी का दावा है कि गंगा मार्च, 2019 तक 70 से 80 प्रतिशत तक साफ हो जाएगी। लेकिन क्या यह वास्तव में संभव है?

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Friday 11 May 2018
फोटो : विकास चौधरी / सीएसई

जुलाई, 2016 में तत्कालीन केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने जोर देकर कहा था कि 2018 तक लोग स्वच्छ-शांत गंगा की अविरल धारा देख सकेंगे। लगभग दो साल बाद अब उनके उत्तराधिकारी नितिन गडकरी का दावा है कि गंगा मार्च, 2019 तक 70 से 80 प्रतिशत तक साफ हो जाएगी। तब उमा भारती के दावे को जल संसाधन सचिव यू. पी. सिंह ने प्रमाणित किया था। 2015-17 की अवधि के लिए सीपीसीबी के जल गुणवत्ता निगरानी डेटा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 2016 की तुलना में 2017 में पानी की गुणवत्ता (80 स्थानों पर निगरानी) में सुधार हुआ है। डीओ (विघटित ऑक्सीजन) के स्तर में 33 स्थानों पर सुधार हुआ है, 26 स्थानों पर बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) स्तर और कोलिफोर्म बैक्टीरिया 30 स्थानों पर कम हो गए हैं। लेकिन क्या यह सुनिश्चित करता है कि मार्च, 201 9 तक गंगा 70-80 फीसदी स्वच्छ होगी? अब जमीनी स्थिति का जायजा लेने का समय है।

एक साल पहले, दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने गंगा नदी के बहने वाले राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के 10 कस्बों और शहरों का दौरा किया और पाया कि कस्बों को अपने फिकल (मलमूत्र) भार का प्रबंधन करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत, सरकार ने नदी में सीवेज के प्रवाह को रोकने पर काफी हद तक ध्यान केंद्रित किया, लेकिन फिकल कीचड़ के प्रबंधन पर नहीं।

स्वच्छ भारत मिशन के तहत, नदी के किनारे गांवों और कस्बों में अधिक से अधिक शौचालय बनाए जा रहे हैं। 2 अक्टूबर, 2019 तक भारत को खुले में शौच मुक्त करने के लिए, सरकार गंगा के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में 1.52 मिलियन शौचालय और नदी के किनारे स्थित शहरों में 1.45 मिलियन शौचालय (निजी और सार्वजनिक) बनाने की प्रक्रिया में है। सीएसई का कहना है कि इन शौचालयों में सेप्टिक टैंक और गड्ढे का निर्माण होगा, जिससे 180 एमएलडी फिकल कीचड़ और सेप्टेज उत्पन्न होगा। पर्याप्त उपचार सुविधा नहीं होने की स्थिति में यह गंगा में मिल जाएगा।

इन राज्यों में कई उदाहरण हैं, जहां एसटीपी स्थापित हैं और यहां तक ​​कि सीवर नेटवर्क भी उपलब्ध है, लेकिन अधिकांश घर उस नेटवर्क से ही जुड़े नहीं हैं। सरकार अधिक से अधिक शौचालय बना रही है (और इसलिए, अधिक फीकल कीचड़ पैदा हो रहा) लेकिन सुरक्षित संग्रह, वाहन और उपचार सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं हैं। इससे फिकल कीचड़ नदी में बहता है। इसके अलावा, ज्यादातर मामलों में, एसटीपी फिकल कीचड़ और सेप्टेज का उपचार करने में असमर्थ हैं। एक स्वच्छता विशेषज्ञ कहते हैं, “बुनियादी ढांचा रखने से हमेशा यह सुनिश्चित नहीं होता है कि इसका प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा रहा है।” वास्तव में नमामि गंगे आधिकारिक वेबसाइट में उपलब्ध परियोजना रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि गंगा किनारे स्थित 97 कस्बों से अनुमानित सीवेज 2,953 एमएलडी है, उपलब्ध उपचार क्षमता केवल 1,584 एमएलडी है।  2035 तक, सीवेज 3,603 एमएलडी तक बढ़ जाएगा।

दूसरी ओर केंद्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले अक्टूबर 2017 में भी कहा था कि हम गंगा अस्सी फीसदी साफ करके दिखाएंगे। तब उमा भारती ने बयान जारी कर कहा था कि हम गंगा को सौ फीसदी साफ कर दिखाएंगे लेकिन गडकरी ने जब जल संसाधन मंत्रालय का कार्यभार संभाला और पूर्व मंत्री के बयान का आकलन किया तो उन्होंने इसमें सुधार करते हुए अस्सी फीसदी कहा। उन्होंने दावा किया है कि 195 में से अब तक केवल 24 परियोजनाओं को ही पूरा किया गया है। यह देखने वाली बात है गंगा में मिलने वाले सभी बड़े नालों के डीपीआर बनाने में ही केंद्र सरकार ने तीन से चार साल लगा दिए। ऐसे में सवाल उठता है जब डीपीआर बनने में इतना वक्त ले लिया है तो उसका क्रियान्वयन कब तक पूरा होगा। मंत्रालय के उच्च पदस्थ अधिकारी ने बताया कि मंत्री महोदय जो कहते हैं पूरा कर दिखाते हैं। हालांकि उन्होंने जोड़ा कि इसमें सबसे अहम है आम जनता को काम दिखना चाहिए। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह पूरा हुआ कि नहीं। उदाहरण के लिए एनएच 24 का काम तेजी से पूरा किया गया और इसका असर पूर्वी दिल्ली वासी आसानी से महसूस कर सकते हैं कि अब उस क्षेत्र में जाम नहीं लगता है लेकिन सवाल है कि यह हाइवे पूरा कब होगा। मंत्रालय के एक अन्य अधिकारी ने दबी जुबान कहा कि सरकार हर हाल में अपनी तमाम बड़ी परियोजनाओं में बस यह दिखाना चाहती है कि यह काम युद्ध स्तर पर हो रहा है और इस योजना का कुछ हिस्सा पूरा कर आम जनता को देखने को मिल जाता है। इससे उसे विश्वास हो जाता है कि यह काम सरकार जल्दी ही पूरा कर लेगी लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।  

 

एनजीटी कर रुख

ध्यान रहे कि केंद्र सरकार की उच्च प्राथमिकता वाली नमामि गंगे परियोजना की सफलता पर अब सवाल उठ रहे हैं। परियोजना के साढ़े तीन साल पूरे होने के बाद इसका हासिल स्पष्ट नहीं है। अब गंगा नदी के पिछले सफाई अभियानों की असफलता का साया इस पर भी मंडरा रहा है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने गत वर्ष 13 जुलाई 2017 को गंगा की सफाई पर फैसला देते हुए कहा कि सरकार ने गंगा को शुद्ध करने के लिए बीते दो साल में 7,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं, लेकिन गंगा नदी की गुणवत्ता के मामले में रत्तीभर सुधार नहीं दिखा है। एनजीटी ने फैसले में कहा कि यह एक गंभीर पर्यावरण मुद्दा है। ऐसा तब है जब यह योजना केंद्र की कार्यसूची में पहली प्राथमिकता पर है। एनजीटी का यह आदेश इसलिए अभूतपूर्व है क्योंकि एनजीटी ने आदेश में यह स्पष्ट किया है कि इतना खर्च और ध्यान देने के बावजूद नदी अब और अधिक प्रदूषित हो गई है। फैसले में एनजीटी ने कहा, “आगे अब और इंतजार करने की कोई गुंजाइश नहीं बची है।” एनजीटी ने कहा, मार्च, 2017 तक 7304.64 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद केंद्र, राज्य सरकारें और उत्तर प्रदेश राज्य के स्थानीय प्राधिकरण, गंगा नदी की गुणवत्ता के मामले में सुधार कर पाने में असफल रहे। एनजीटी ने नदी के 100 मीटर के भीतर सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने सहित नदी से 500 मीटर की दूरी के भीतर कचरा डालने पर भी प्रतिबंध लगा दिया और आदेश दिया कि ऐसा करने वालों पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाए।


बदलते अधिकारी

किसी योजना की सफलता का दारोमदार बहुत कुछ परियोजना के निदेशक पर निर्भर करता है। लेकिन इस मामले में नमामि अपवाद है। क्योंकि नमामि परियोजना शुरू हुए साढ़े साल हुए हैं और इस दौरान इसके छह-छह निदेशक बदले गए। जल संसाधन मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि इसका एक बड़ा कारण यह था कि कोई भी निदेशक इस परियोजना से जुड़े सभी राज्यों को साथ ला पाने में सफल नहीं हो पा रहा था। इसके कारण नमामि के निदेशकों को इस योजना के क्रियान्यवन में भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। कोई भी केंद्र सरकार जब यह देखेगी कि उसके द्वारा नियुक्त निदेशक राज्यों के साथ काम ही नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें बदलना ही पड़ेगा। इसके अलावा आखिरी जो निदेशक बदले गए, उनका मंत्री के साथ सामंजस्य नहीं बैठा। हिमालयन एनवायरमेंट स्टडीज एंड कनजरवेशन ऑर्गनाइजेशन के अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं, “निदेशकों से साथ समन्वय में नाकाम रहने का कारण केंद्र सरकार का रवैया जिम्मेदार है। केंद्र ने योजना ही ऐसी बनाई है जिसमें राज्यों की भागीदारी को न्यूनतम कर दिया। ऐसे में राज्य सरकार से सक्रिय सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है। नमामि गंगे योजना की सफलता पांच राज्यों के समन्वय पर टिकी हुई है। लेकिन जब से यह योजना शुरू हुई तब से राज्य व केंद्र सरकार के बीच लगातार गतिरोध बना रहा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि जब तक गाद का प्रबंधन नहीं होगा यह योजना सफल नहीं होगी (डाउन टू अर्थ, जुलाई 2017)। तीन दशकों से बनारस के पास कैथी गांव में गंगा की सफाई करने वाले 62 साल के नारायाणदास गोस्वामी कहते हैं कि अभी तक नमामि का लक्ष्य 2020 है । लेकिन मुझे नहीं लगता है कि यह तय समय-सीमा पर अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगी क्योंकि पिछले दो साल में जितना भी नमामि गंगे के तहत काम हुआ है वह बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। जहां तक नदी में गिरने वाले सीवेज के लिए एसटीपी बनाए जाने की बात है तो इसके लिए अभी तक निविदाएं ही जारी हो रही हैं। कानपुर में सीवेज लाइन बिछा दी गई लेकिन उससे कोई कनेक्शन नहीं ले रहा है। सरकार की योजना अच्छी है लेकिन इसे लागू करवाने का तंत्र नाकाम हो रहा है।  

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