Climate Change

गंभीर खतरा, सुस्त रवैया

चरम मौसमी घटनाओं के मामले में, भारत दुनिया का छठा जोखिम भरा देश है लेकिन क्या राज्यों के क्लाइमेट एक्शन प्लान इनसे निपटने में सक्षम हैं?

 
By Vineet Kumar
Published: Sunday 15 April 2018
भारत में फैली गरीबी व जनसंख्या के बड़े हिस्से की आजीविका के लिए जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों पर निर्भरता से यहां जलवायु परिवर्तन का जोखिम और बढ़ जाएगा (स्रोत: रॉयटर्स)

हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस का स्तर पिछले 8 लाख वर्षों में उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है और फरवरी, 2018 में तो यह 408 पीपीएम के रिकॉर्ड आंकड़े को पार कर गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एमिशन गैप रिपोर्ट 2017 कहती है कि पेरिस समझौते के अंतर्गत देशों की वर्तमान प्रतिबद्धताएं तापमान को 21वीं सदी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने में नाकाफी हैं।

विभिन्न अनुमानों के मुताबिक, हम लगभग 3 से 4  डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके परिणाम विनाशकारी होंगे। पहले ही 2015, 2016, 2017 पिछले सारे रिकॉर्ड को तोड़ते हुए अब तक के सबसे गर्म वर्ष घोषित हो चुके हैं।

भारत में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मुख्यत: कृषि, जल, जंगल, हिमखंड, समुद्र जल स्तर आदि पर अधिक पड़ने की संभावना है। साथ ही यहां चरम मौसमीय घटनाओं की आवृत्ति व तीव्रता भी बढ़ जाएगी। बड़े पैमाने पर भारत में फैली गरीबी व जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की आजीविका की निर्भरता जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों जैसे कृषि, जंगल, भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर होने की वजह से यहां जलवायु परिवर्तन का जोखिम और बढ़ जाएगा। ऐसी स्थिति में जलवायु परिवर्तन के वर्तमान व संभावित जोखिमों से निपटने की तैयारी अत्यंत आवश्यक है।

जर्मनवॉच क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2018 के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की वजह से चरम मौसमीय घटनाओं के मामले में, भारत दुनिया का छठा सबसे ज्यादा जोखिम भरा देश है। इन घटनाओं से 2016 में भारत में 2,119 लोग मारे गए और लगभग 21 बिलियन अमेरिकन डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट(सीएसई) के एक अध्ययन के मुताबिक, 1901 से 2017 के बीच, भारत का औसत वार्षिक तापमान लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।

पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन एग्रीकल्चर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, चरम मौसमीय घटनाओं की वजह से भारत को हर वर्ष लगभग 9-10 बिलियन अमेरिकन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है।

एशियन डेवलपमेंट बैंक के मुताबिक, अगर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को रोका नहीं गया तो भारत की आर्थिक हानि 2050 तक वार्षिक जीडीपी का 1.8 प्रतिशत और 2100 तक वार्षिक जीडीपी  का 8.7 प्रतिशत तक बढ़ सकती है।

एक अनुमान के मुताबिक, 21वीं सदी के अंत तक जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में कृषि  उत्पादकता 10 से 40 प्रतिशत तक घट जाने की आशंका है। भारत सरकार के आर्थिक सर्वे 2018 के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की औसत वार्षिक आय 15-18 प्रतिशत तक घटने की आशंका है व असिंचित क्षेत्रों में तो यह 20-25 प्रतिशत तक घट जाएगी।

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार के अनुमान के अनुसार, भारत के क्लाइमेट चेंज एक्शन को पूरा करने के लिए 2015 से 2030 के बीच में कम से कम 2.5 ट्रिलियन यूएस डॉलर की जरूरत पड़ेगी। कृषि, जंगल, जल संसाधन व पारिस्थितिकी तंत्र में 2015 से 2030 के बीच जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कार्य करने के लिए भारत को लगभग 206 बिलियन यूएस डॉलर चाहिए।  
          
भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद व अन्य के अध्ययन के अनुसार 2003-04 से 2014-15 के दौरान भारत में विकास व अनुकूलन क्षमता निर्माण से संबंधित कार्यों का बजट, कुल बजट की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ा है।

अगर हम हाल ही की स्थिति पर नजर दौड़ाएं तो भारत के 2014-15 के बजट में 2130 बिलियन रुपए जलवायु परिवर्तन अनुकूलन से संबंधित विकास कार्य पर खर्च किया गया, जो कि कुल बजट का 12 प्रतिशत था तथा जीडीपी का 2 प्रतिशत। इस अनुकूलन राशि का बड़ा हिस्सा ग्रामीण विकास मंत्रालय (26 प्रतिशत), कृषि मंत्रालय (13 प्रतिशत), भोजन व सार्वजनिक वितरण (12 प्रतिशत) आदि पर खर्च हुआ।

लड़ने की तैयारी में जुटे राज्य

देश में राष्ट्रीय स्तर पर 2008 में नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज बनाया गया, जिसके अन्तर्गत 8 मिशन है। देश के अब तक 32 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों (दिल्ली गोवा आदि को छोड़कर) ने स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एसएपीसीसी) तैयार कर चुके हैं, जो राज्य स्तर पर जलवायु परिवर्तन की योजना बनाने में पहला समग्र प्रयास है।

दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने 32 एसएपीसीसी में से विभिन्न एग्रोक्लाइमेटिक जोन के 8 राज्यों ( गुजरात, मध्य प्रदेश, मिजोरम, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड ) के एसएपीसीसी का अध्ययन कर वर्तमान स्थिति व चुनौतियों को समझने की कोशिश की।

एसएपीसीसी बनाने में राज्यों को बहुत सारी बाधाओं का सामना करना पड़ा है तथा अभी बहुत सारी चुनौतियों है, जिनमें से मुख्यत: ये हैं-

तकनीकी रूप से दक्ष व समर्पित अधिकारियों की कमी, समय व संसाधनों का अभाव : राज्यों के सामने एक अच्छी कार्य योजना बनाने में सबसे बड़ी समस्या, ऐसे समर्पित अधिकारियों का अभाव है, जो जलवायु परिवर्तन जैसे तकनीकी विषय को समझते हों।

अध्ययन में यह पाया गया कि जिन राज्यों में तकनीकी रूप से कुशल, जिम्मेदार, सक्रिय व सामर्थ्यवान अधिकारियों ने जिम्मेदारी ली, उन राज्यों में तुलनात्मक रूप से अच्छी कार्ययोजना बनी। इसके विपरीत, अन्य राज्यों में निम्न गुणवत्ता की कार्य योजना बनी। राज्यों ने एक अच्छा एसएपीसीसी न बना पाने के लिए समय व संसाधनों के अभाव को भी जिम्मेदार ठहराया ।
 
राज्य व केंद्र में तालमेल का अभाव: राज्य व केंद्र में कई मुद्दों जैसे धन की व्यवस्था, तकनीकी सहायता व व्यवस्था आदि के बारे में तालमेल का अभाव रहा। राज्यों का कहना है कि उनको जलवायु परिवर्तन से संबंधित राज्य स्तर पर प्रभाव और जोखिम मूल्यांकन करने के लिए कोई खाका या मानक प्रोटोकॉल के रूप में सही तरह से केंद्र से मार्गदर्शन नहीं मिला, जिसके चलते वे एक अच्छी कार्य योजना नहीं बना पाए।
 
राज्यों के विभागों की प्राथमिकताओं में जलवायु परिवर्तन नहीं : यद्यपि हर विभाग में राज्यों ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक नोडल अधिकारी का प्रावधान किया है, लेकिन इन अधिकारियों के लिए जलवायु परिवर्तन के कार्य प्राथमिकता में नहीं है। इनका कहना है कि वह पहले ही अन्य कई जिम्मेदारियों के बोझ के चलते जलवायु परिवर्तन से संबंधित कार्यों पर ध्यान नहीं दे पाते।

स्थानीय व राज्य स्तर पर जलवायु परिवर्तन का विस्तृत प्रभाव और जोखिम मूल्यांकन का अभाव : क्लाइमेट चेंज एक्शन प्लान बनाने के लिए राज्य स्तर पर जोखिम मूल्यांकन करना एक पहला जरूरी कदम है। ज्यादातर राज्यों जैसे पंजाब, गुजरात, तमिलनाडु, मिजोरम ने अभी तक एक विस्तृत जोखिम मूल्यांकन तैयार नहीं किया है। कुछ राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि ने जलवायु परिवर्तन जोखिम मूल्यांकन तैयार किया है, लेकिन वह नाकाफी है।

ज्यादातर राज्यों के पास स्थानीय व क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के वर्तमान व संभावित प्रभावों का अनुमान विशेष समय अवधि के लिए नहीं है, जिससे वे स्थानीय स्तर पर उचित योजना का निर्णय लेने में असमर्थ हैं। मेघालय के एडिशनल प्रिंसिपल चीफ कंजरवेटर ऑफ फारेस्ट सुभाष आशुतोष ने बताया कि 5 वर्ग किमी पर जलवायु परिवर्तन जोखिम मूल्यांकन करने वाला मेघालय देश का पहला राज्य बन गया है।

हितधारकों के साथ सीमित परामर्श : एसएपीसीसी बनाने में हितधारकों के साथ बहुत ही सीमित या नगण्य परामर्श किया गया। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अनेक हितधारकों विशेष रूप से स्थानीय समुदाय का पारम्परिक ज्ञान व अनुभव मुख्य हथियार है, इसलिए इनको कार्य योजना बनाने में, प्राथमिकता तय करने में, कार्यान्वयन की प्रक्रिया में सम्मिलित करना बहुत महत्वपूर्ण है।

राज्यों का कहना है कि इस बारे में उन्हें केंद्र से उचित कार्यप्रणाली, दिशा-निर्देश व मार्गदर्शन नहीं मिल पाया। जहां ज्यादातर राज्यों जैसे पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, मिजोरम आदि राज्यों ने एसएपीसीसी बनाने में बहुत ही कम हितधारक परामर्श किया, वहीं मध्य प्रदेश जैसे राज्य ने तुलनात्मक रूप से अच्छा हितधारक परामर्श किया, लेकिन वह भी पूरी तरह से पर्याप्त नहीं है।

एसएपीसीसी के लिए धन राशि, विशेष कार्य व मॉनिटरिंग की स्पष्टता नहीं: राज्यों को एसएपीसीसी बनाते समय लगा कि उनको इसके लिए केंद्र सरकार से या अंतरराष्ट्रीय स्तर के जलवायु परिवर्तन निधि से कुछ पैसा मिलेगा। इसलिए धन के लालच व स्पष्टता के अभाव में कुछ राज्यों ने एसएपीसीसी में जलवायु परिवर्तन से संबंधित कार्यो के अलावा भी बहुत सारी मांगें रख दीं।

इसका परिणाम ये हुआ कि अलग-अलग राज्यों के बीच प्रस्तावित बजट में बहुत भारी अंतर देखने को मिला। जहां मध्य प्रदेश जैसे राज्य ने एसएपीसीसी बजट में सिर्फ 5 हजार करोड़ रुपए का प्रस्ताव किया, वहीं तमिलनाडु जैसे राज्य ने 4 लाख करोड़ रुपए तक का बजट का प्रस्ताव बना दिया। (देखें: बजट में भारी असमानताएं)

स्रोत:  एसएपीसीसी

राज्य यह समझने में असफल रहे कि जलवायु परिवर्तन के लिए सामान्य विकास कार्यों के अलावा उन्हें “अलग” से अतिरिक्त क्या करना चाहिए। उन्होंने सिर्फ जलवायु परिवर्तन पर ध्यान देने की बजाय सामान्य विकास कार्यों की एक लम्बी चौड़ी इच्छा सूची बना दी। एसएपीसीसी जलवायु परिवर्तन के कार्यों की निगरानी के लिए एक प्रभावी निगरानी एवं मूल्यांकन तंत्र बनाने में भी विफल रहे।

एसएपीसीसी के प्रस्तावित बजट व अनुकूलन रणनीति में विसंगतिया: विभिन्न राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रों में प्रस्तावित बजट में काफी विसंगतियां हैं। सेक्टर के जोखिम के हिसाब से उसका बजट नहीं रखा गया है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है और यहां के किसान प्राकृतिक आपदाओं के रूप में पहले ही बहुत मार झेल रहे हैं।

इस सबके बावजूद प्रस्तावित बजट का सिर्फ 0.2 प्रतिशत ही कृषि क्षेत्र के लिए रखा गया है, जो कि हास्यास्पद है। इसी तरह अन्य एक उदाहरण में तमिलनाडु जैसे राज्य ने जलवायु परिवर्तन संवेदनशील क्षेत्रों कृषि और जल को प्रस्तािवत बजट का सिर्फ 6 प्रतिशत और 3 प्रतिशत हिस्सा ही दिया। जबकि, अन्य सेक्टरों जैसे सस्टेनेबल  हैबिटेट मिशन (51 प्रतिशत) व ऊर्जा (38 प्रतिशत) को बजट का अधिकतर हिस्सा दे दिया।

इसी तरह कृषि क्षेत्र के लिए प्रस्तावित अनुकूलन रणनीति व जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभाव व जोखिमों में समन्वय का अभाव है। कई स्थितियों में राज्यों द्वारा प्रस्तावित जलवायु परिवर्तन रणनीति, उनके द्वारा ही पहचाने गए खतरों को बिल्कुल नजरअंदाज कर देती हैं। इसीिलए वर्तमान में सुझाई गई कार्ययोजना बिलकुल नाकाफी है।
 
क्या एसएपीसीसी जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में सक्षम है

इसका स्पष्ट जवाब है–नहीं। एसएपीसीसी प्रभावी तरीके से राज्यों के जलवायु परिवर्तन के अनेक जोखिमों को सम्मिलित करने में विफल रहे। उदाहरणत: गुजरात में राज्य का सबसे लम्बा समुद्र तट है, जिसमें गुजरात की 37 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है और ये आर्थिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसको जलवायु परिवर्तन से होने वाले कई खतरे जैसे बढ़ता समुद्री जल स्तर, जलप्लावन, चक्रवाती तूफान की स्थिति में बाढ़, खारे पानी की घुसपैठ आदि है। लेकिन, इन सबके बावजूद भी तटीय क्षेत्र प्रबंधन को राज्य के एसएपीसीसी में सही तरह से सम्मिलित नहीं किया गया और लगभग पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। अन्य उदाहरण पहले से ही संकटग्रस्त व आंदोलनरत किसानों का है।

जलवायु परिवर्तन के चलते देश का किसान पहले ही बहुत बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है तथा हाल ही के अध्ययनों के मुताबिक आगे और भी ज्यादा प्रभावित होगा। ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या राज्यों के द्वारा बनाये गए एसएपीसीसी किसान की जलवायु परिवर्तन अनुकूलन क्षमता बढ़ा पाएंगे? इसका जवाब है- नहीं। ज्यादातर राज्यों के एसएपीसीसी में कृषि व किसानों के लिए एक समग्र अनुकूलन रणनीति नहीं बनाई है, और कृषि क्षेत्र का प्रस्तावित बजट भी अन्य क्षेत्रों के मुकाबले काफी कम रखा है।

केंद्र सरकार ने हाल ही में सभी राज्यों को एसएपीसीसी को दोबारा से बनाने को कहा है।

ऐसे में राज्यों को ये ध्यान देने की जरूरत है कि वर्तमान एसएपीसीसी में जो खामियां रह गई हैं, वो नए एसएपीसीसी में न हों। स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए, जमीनी स्तर की सच्चाइयों को ध्यान में रखते हुए समग्र व प्रभावी एक्शन प्लान बनाना चाहिए, तभी प्रभावी तरीके से जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटा जा सकेगा।

क्लाइमेट स्मार्ट गांवों की जमीनी हकीकत
 

नेशनल अडॉप्टेशन फण्ड ऑन क्लाइमेट चेंज के अंतर्गत अभी तक विभिन्न राज्यों में 27 प्रोजेक्ट्स नाबार्ड ने मंजूर किये हैं। इन प्रोजेक्ट्स में एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र से सम्बंधित है। कृषि में भी हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर के प्रोजेक्ट मंजूर हुए हैं। क्लाइमेट स्मार्ट गांव (एग्रीकल्चर) के प्रोजेक्ट पूर्वी व पश्चिमी अफ्रीका, दक्षिण व दक्षिण पूर्व एशिया, लैटिन अमेरिका में भी पायलट स्तर पर चल रहे हैं।  भारत में ये पायलट प्रोजेक्ट पिछले कुछ सालों से पंजाब, हरियाणा, तेलंगाना, बिहार व महाराष्ट्र आदि राज्यों में कंसल्टीव ग्रुप ऑफ इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च द्वारा चलाए जा रहे हैं।

हरियाणा के करनाल के 27 गांवों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर के पायलट प्रोजेक्ट को सफल मानते हुए हरियाणा सरकार ने इसको  10 जिलों के 250 गांवों सहित बाद में पूरे हरियाणा में लागू करने का फैसला लिया। इस पायलट प्रोजेक्ट की सफलता की कहानियां राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित की गईं। हालांकि, जब सीएसई ने इसकी पड़ताल जमीनी स्तर पर जाकर की तो पता चला कि ऐसे कई किसान जिनकी सफलता की कहानियां प्रचारित की गई हैं, उन्होंने अब दिक्कतों के चलते क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर को छोड़ दिया है। इसके तहत कई तरह की कृषि तकनीकी व विधियां जैसे जीरो टिलेज फार्मिंग, डायरेक्ट सीडिंग राइस आदि को बढ़ावा दिया जाता है।

हालांकि किसानों व वैज्ञानिकों ने यह बताया कि ये विधियां बिना खरपतवारनाशी रासायनिक दवाइयों के संभव ही नहीं हैं। ऐसे में किसान को अनिवार्य रूप से जहरीले खरपतवार नाशी जैसे राउंडअप खेत में इस्तेमाल करने ही पड़ेंगे, जिससे मिट्टी व  मनुष्य के स्वास्थ्य, पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर खतरा है। उदाहरणत:, जिन किसानों ने डायरेक्ट सीडिंग राइस तकनीकी का इस्तेमाल किया, उन्हें इसमें बहुत ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ा। जैसे-खेत में अनियंत्रित खरपतवार, कम उपज, घटती आय, जहरीले रसायन के इस्तेमाल से खेती व स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव। साथ ही इन तकनीकियों को अपनाने के लिए किसानों को भारी व महंगी मशीनों के इस्तेमाल पर निर्भरता बढ़ेगी, जिससे खेती की इनपुट लागत बढ़ जाती है।

लेकिन कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों में ज्यादा प्रचलित खरपतवार नाशी जैसे मोनसेंटो कंपनी के राउंडअप को स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभावों से जोड़ा जा रहा है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलूरु ने अपने अध्ययन में राउंडअप के नकारात्मक प्रभाव से पीयूष व अधिवृक्क ग्रंथि की गंभीर हार्मोनल समस्याओं को जुड़ा पाया। अन्य अध्ययनों में ग्लाइफोसेट, जो कि राउंडअप का मुख्य घटक है, को कैंसर के कारणों से जोड़कर देखा जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया जैसे राज्य इसको कैंसर से जोड़कर देख रहे हैं और इससे सम्बंधित केस कोर्ट में चल रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार यूरोपियन यूनियन में भी ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल को जारी रखने की इजाजत पर फिर से विचार विमर्श चल रहा है।

विश्व स्वास्थय संगठन की एजेंसी इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरएसी) के ग्लाइफोसेट को मनुष्य से सम्बंधित कैंसर से जोड़े जाने की खबरों को लेकर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी विवाद हो गया है। भारतीय किसान यूनियन के हरियाणा के प्रदेश अध्यक्ष रतन सिंह मान का कहना है कि इस तरह के प्रोजेक्ट्स किसानों का फायदा करने की बजाय, उल्टा और ज्यादा नुकसान कर बड़ी समस्या खड़ी कर देंगे।

सरकार को इस तरह के कार्यक्रम किसानों पर थोपने से पहले, जमीनी स्तर पर किसानों से सलाह-मशविरा करना चाहिए, ताकि एक सही समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सके और किसानों के लिए जलवायु परिवर्तन निधि सही दिशा में सदुपयोग किया जा सके। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 350 से ज्यादा किसान संगठन (विआ कम्पेसिना आदि ) व अन्य सिविल सोसायटी संगठन भी क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर का विरोध कर रहे हैं, उनका कहना है कि क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर जलवायु परिवर्तन का सही समाधान नहीं है और इसके माध्यम से फर्टिलाइजर, पेस्टसाइड व बीज कम्पनियां अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रही हैं।

ऐसे में राज्यों को विशेष रूप से सचेत रहने की जरूरत है, जिससे जलवायु परिवर्तन के नाम पर किसी गलत मॉडल को बढ़ावा न मिले व एक स्थायी व टिकाऊ समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

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