ऐसा नहीं है कि सिर्फ मध्य प्रदेश में ही किसान सड़कों पर हैं, समृद्ध और ज्यादा उत्पादक राज्यों में कृषि की हालत भी खराब है
मध्य प्रदेश में फायरिंग से 6 किसानों की मौत के बाद राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान कृषि की दयनीय हालत पर गया है। पुलिस फायरिंग में मारे गए किसान प्रदर्शन कर सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से ऊंची कीमत मांग रहे थे। ऐसा नहीं है कि सिर्फ मध्य प्रदेश में ही किसान सड़कों पर हैं। समृद्ध और ज्यादा उत्पादक राज्यों में कृषि की हालत भी खराब है। यहां उत्पादन लागत अधिक है, इस कारण किसान कर्जदार हैं।
किसानों का वर्तमान संकट अधिकता का है। इस साल अच्छी पैदावार हुई है। लेकिन किसान परेशान हैं क्योंकि इससे उनकी फसलों की कीमत कम हो गई है। कायदे से अच्छी फसल के बाद तो किसानों की हालत सुधरनी चाहिए थी और उन्हें कर्जा चुका देना चाहिए था। अब उनकी तकलीफ को देखते हुए हमें कदम उठाने ही होंगे।
दरअसल, किसानों के साथ कई समस्याएं हैं। पहला, देश किसानों को ऊंची कीमत कैसे अदा करे। हमें खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति को भी नियंत्रित रखना है क्योंकि ऊंची कीमत उपभोक्ताओं को नाराज कर देगी। यह भी तथ्य है कि भारत में बड़ी संख्या में गरीब हैं। सरकार किसानों से खाद्य पदार्थ खरीदती है और जनवितरण कार्यक्रमों के जरिए इसे लोगों को देती है। इससे देश अकाल जैसी परिस्थितियों से बचा रहता है।
सरकार इस समय दो पाटों के बीच फंसी हुई है। एक तरफ किसान हैं जिन्हें खाद्य उत्पादन के लिए सही कीमत देने की जरूरत है। दूसरी तरफ अन्य लोग हैं जो ज्यादा कीमत बर्दाश्त नहीं कर सकते। फिलहाल खाद्य प्रदान करने के लिए तो नीति है, लेकिन किसानों को भुगतान करने के लिए नहीं, इसी कारण एमएसपी है।
दूसरी चुनौती यह है कि कृषि उत्पादों के दाम कैसे तय करें। किसानों के लिए एमएसपी कीमतों की अस्थिरता की स्थिति में बीमा की तरह है। लेकिन एमएसपी केवल 22 फसलों के लिए ही है। इन फसलों में धान और गेहूं को सरकार प्राथमिकता के आधार पर खरीदती है। एमएसपी की प्रक्रिया पर फिर से काम करने की जरूरत है। साथ ही खाद्य पदार्थों के दाम तय करने वाली प्रक्रिया में भी खामियां हैं। इसे भी दुरुस्त करने की जरूरत है। इसे समग्रता में देखना होगा। हम यह जानते हैं कि लागत के चलते किसानों का मुनाफा कम होता जा रहा है। हम यह भी जानते हैं कि किसान मौसम की अनिश्चितता का भी सामना करते हैं। इससे उनकी फसलों को नुकसान पहुंचता है। इसलिए हमें पता ही नहीं चल पाता कि किसान हमें खाद्य उपलब्ध कराने के लिए कितना निवेश करता है।
सरकारें और बाजार के अर्थशास्त्री दलीलें देते हैं कि एमएसपी सालों साल बढ़ा है। वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि फसलों को खरीदने की प्रक्रिया की लागत में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन वे यह तथ्य भूल जाते हैं कि उत्पादन लागत की गणना महज इस आधार पर नहीं की जा सकती कि फसल उगाने पर कितना धन खर्च हुआ है। यह ध्यान में रखना होगा कि किसान कितना बड़ा खतरा मोल लेता है। मौसम की अनिश्चितता जैसे खतरे हर साल फसलों को बर्बाद करते हैं। ऐसी स्थिति में क्यों न फसलों को उगाने में लगी आधारभूत लागतों को भी जोड़ा जाए? भारतीय किसान प्राइवेट कंपनियों की ही तरह खेती के काम में बड़ी संख्या में निजी पूंजी भी लगाते हैं। सिंचाई की सुविधाओं के लिए उन्हें मूल्य चुकाना पड़ता है। आधी से ज्यादा सिंचित जमीन में भूजल को इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए करीब 190 लाख कुएं और ट्यूबवेल निजी पूंजी की बदौलत बनाए गए हैं।
खाद्य पदार्थों के दाम तय करते वक्त दो खतरनाक विकृतियों पर भी ध्यान देना होगा। पहला, किसानों को उसकी फसल का दिया गया दाम और आप व मेरे जैसे उपभोक्ताओं से लिया गया दाम। यह सर्वविदित है कि इन दामों के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। हमें यह भी पता है कि इसकी कई वजह हैं, जैसे कृषि उत्पादों की बिक्री से जुड़े कानून, सुविधाओं की कमी, कोल्ड स्टोरेज का अभाव और यातायात की दिक्कत आदि। ज्यादा बिचौलिए होने के कारण दामों में भारी अंतर दिखाई देता है। अगर हमें सस्ता भोजन चाहिए तो इस समस्या पर ध्यान देना होगा।
दूसरी विकृति है दामों को नियंत्रित करने के लिए आयात के दरवाजे खोलना। इससे किसानों पर दोहरी नहीं तीन तरफा मार पड़ती है। पहला, मौसम की मार से उन्हें नुकसान पहुंचता है। दूसरा, ज्यादा उत्पादन होने पर उन्हें फसलों के सही दाम नहीं मिल पाते। और तीसरा, जब कीमत ऊंची होती है तो आयात के सामने उन्हें घुटने टेकने पड़ते हैं। ऐसे हालात में भी किसान खेती कर रहे हैं, यह हैरानी से कम नहीं है।
विश्व व्यापार संगठनों के प्रावधानों के तहत दूसरे देश किसानों को अनुदान नहीं देते, यह सोचकर मूर्ख बनने की जरूरत नहीं है। बस अनुदान के तरीके बदल गए हैं, सच्चाई नहीं। यह सोचना भी मूर्खतापूर्ण है कि हमारे किसानों को बहुत अनुदान मिलता है। कृषि अनुदान का एक बड़ा हिस्सा फर्टिलाइजर कंपनियों को चला जाता है ताकि वे फर्टिलाइजर का उत्पादन और उसे सस्ते दाम पर किसानों को बेच सकें। जनवितरण कार्यक्रमों के लिए खाद्य उत्पादों की खरीद को हम बाकी का खाद्य अनुदान कह सकते हैं। हमारे यहां असमानता की गहरी खाई है। इसे समझने की जरूरत है। यह भोजन की सही लागत के बारे में सोचने का समय है। यह सोचने का भी समय है कि किसानों को लाभ कैसे पहुंचे जो हमारे लिए भोजन का बंदोबस्त करता है। यह ऐसा व्यवसाय है जिसे हम खोने की स्थिति में नहीं हैं।
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