Wildlife & Biodiversity

चेतनशील अस्तित्व

क्या आप जानते हैं कि हमारी तरह पेड़ों में भी संवाद करने और याद रखने की की क्षमता होती है?

 
By Aditya Misra
Published: Thursday 15 June 2017

“जंगल की आत्मा” और “बोलने वाले पेड़” के बारे में हम बचपन से कहानियों, दंतकथाओं और फंतासी फिल्मों में सुनते रहे हैं। ये  बातें  वास्तव में काल्पनिक नहीं हैं। पुस्तक ‘हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज’ के अनुसार पेड़ न सिर्फ संवाद कर सकते हैं, बल्कि उनमें याददाश्त भी होती है।

किताब की प्रस्तावना में कहे अनुसार पुस्तक आपको उस जगह ले जाती है जो आपको आश्चर्य से भर दे। जंगल एक “सुपर आॅरगेनिज्म” है जहां पेड़ जड़ों और कवक के नेटवर्क के माध्यम से संसाधनों और जानकारियों का आदान-प्रदान करते हैं। वे एक जीव की तरह ही मदद के लिए या संकट के समय एक दूसरे को चेतावनी देते हैं। उदाहरण के लिये यदि एक पेड़ पड़ोस के पेड़ को पानी की कमी के बारे में सतर्क करना चाहता है तो उसके तने में कंपन होने लगता है।

पेड़ों में स्वाद, स्पर्श, गंध, सुनने और महसूस करने की विशेषताएं भी होती हैं और वे इसे अन्य जानवरों की तरह प्रदर्शित भी करते हैं। जिस तरह जीव-जंतु अपने ध्वनि ग्रंथि को जलकण की सहायता से कंपित कर ध्वनि उत्पन्न हैं, उसी तरह पेड़ के तने में कंपन जलकण की सहायता से होता है। और पेड़ सुनते कैसे हैं? इसके जबाव में लेखक पीटर वोहलेबेन एक प्रयोग का उदाहरण देते हैं, जिसमें अनाज के बीज के अंकुरण के समय उनकी जड़ों से उत्पन्न होने वाली अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों की ओर आसपास के अन्य अंकुरों की जड़ें मुड़ गई थीं।

पेड़ों के स्वाद की इन्द्रिय के बारे में हमें उनके रक्षा तंत्र के सक्रिय होने की प्रक्रिया से पता चलता है। जब कीट किसी पौधे या पेड़ की पत्ती को चबाता है, तो पत्ती कीट के लार का स्वाद महसूस करके उस कीट को खाने वाले जीव को आकर्षित करने वाले फेरोमोन छोड़ती हैं। बीच, फर और ओक के पेड़ की पत्तियां चबाए जाने पर दर्द महसूस करती हैं और बिलकुल जानवरों की तरह विद्युत आवेग भेजती हैं।  मिमोसास (जिनकी पत्तियां छुए जाने पर सिकुड़ जाती हैं) के पौधों पर किए गए प्रयोग दिखाते हैं कि पेड़-पौधे स्पर्श का भी अनुभव करते हैं और उनमें याद रखने की भी क्षमता होती है। प्रयोग के दौरान मिमोसास की पत्तियों पर जब पानी की बूंदें बार-बार छिड़की गईं, तो पौधों ने यह समझते हुए कि बूदें हानिकारक नहीं हैं, अपनी पत्तियों को सिकोड़ना बंद कर दिया। कई सप्ताह बाद दुहराए जाने पर भी यही परिणाम इस बात का संकेत देता है कि उनमें याददाश्त  भी होती है।

तारिक अजीज / सीएसई

ये तथ्य हमें आश्चर्य से भर देते हैं, क्योंकि हम बचपन से यही सच मानते हुए बड़े हुए हैं कि पेड़-पौधे सजीव तो हैं, लेकिन न तो वे सामाजिक होते हैं और न ही उनके बीच संवाद हो सकता है। पर वनस्पति जगत को लेकर हमारी यह धारणा सत्य के निकट नहीं है। संचार या संवाद की अवधारणा के अनुसार संवाद तब तक संभव नहीं हो सकता जबतक कि विचार पैदा करने के लिए मस्तिष्क और उसे व्यक्त करने के लिए एक भाषा न हो। पेड़ों की संरचना को जैसा हम जानते हैं, वह इन अवधारणाओं पर सटीक नहीं बैठती। यह पृथ्वी पर जीवन की दो सबसे बड़ी श्रेणियों—वनस्पति जगत और प्राणि जगत—के बीच के भेद को धुंधला करता है। क्योंकि मस्तिष्क और संचार पूरी तरह से पशु जगत का अधिकार-क्षेत्र है।

लेखक के अनुसार पेड़ भी सामाजिक प्राणि होते हैं और उसकी खुशी, उदासी और अकेलापन उनके आस-पास के परिवेश और पड़ोसी पेड़ के माध्यम से तय होता है। जो पेड़ अकेले होते हैं वे अपनी संवाद क्षमता खोकर “गूंगे और बहरे” हो सकते हैं। उनकी आयु भी कम हो जाती है। मानव द्वारा लगाए गए वनों के पेड़ एकाकी होते हैं और “अनाथ बच्चे” की तरह व्यवहार करते हैं, क्योंकि उनकी जड़ें क्षतिग्रस्त होती हैं और संवाद करने में सक्षम नहीं रह जातीं। कुछ पेड़ दबंग होते हैं और जरूरत से ज्यादा संसाधन खींचते हैं। लेकिन जो पेड़ अपने “जनक पेड़ों” से घिरे होते हैं, वे दूसरे पेड़ों की तुलना में ज्यादा खुशहाल होते हैं और उनकी आयु लंबी होती है। जनक पेड़, छोटे पेड़ों की देखभाल करते हैं। अलग-अलग प्रजाति के पेड़ भी एकदूसरे की सहायता करते हैं और अपने पड़ोसी पेड़ों के घावों के उपचार के लिए पोषक तत्व पहुंचाते हैं। लेखक ने इसके लिए जर्मनी के एक पेड़ के तने का उदाहरण दिया है, जिसको पड़ोसी पेड़ों ने तकरीबन आधी सहस्राब्दि तक जीवित रखने में मदद की है।

क्या पेड़ एक बुद्धिमान प्राणि है? लेखक की माने तो पेड़ों की जड़ों में मस्तिष्क जैसी संरचनाएं होती हैं जो उन्हें यह तय करने में मदद करती हैं कि यदि उनके रास्ते में कोई अवरोध या विषाक्त पदार्थ आए तो उन्हें क्या करना है। हालांकि वनस्पति विज्ञान के ज्यादातर शोधकर्ता लेखक की इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते कि पेड़-पौधों में “बुद्धिमत्ता का भंडार” है।

लेखक के अनुसार, “अन्य बातों के अलावा शोधकर्ता प्राणियों और वनस्पति के बीच घटती इस सीमा को नकारने की कोशिश में लगे हैं।” लेकिन लेखक का मानना है कि जैसे-जसी प्राणियों और वनस्पतियों के बीच की दूरी घटेगी, मनुष्य पेड़ों के संरक्षण के प्रति ज्यादा गंभीर होंगे।

लेकिन पेड़ों को सामाजिक होने की जरूरत क्यों है? क्योंकि मानव समाज की तरह ही पेड़ों का एक साथ मिलकर रहना उनके लिए लाभदायक है। अकेला पेड़ लगातार स्थानीय जलवायु को बनाए नहीं रख सकता है। लेकिन कई पेड़ एक साथ मिलकर संरक्षित वातावरण का निर्माण करते हैं और  एकदूसरे को हवा और मौसम के प्रभाव से बचाते हैं। वोहलेबेन कहते हैं, “यदि हर पेड़ सिर्फ अपना अस्तित्व बनाए रखने के बारे में सोचेगा तो उनमें से कुछ ही बुढ़ापे तक पहुंच पाएंगे।” वास्तव में जिस स्नेह के साथ वह पेड़ों और जंगल के बारे में बात करते हैं, उल्लेखनीय है। “दरअसल जब आप जान जाते हैं कि पेड़ों को दर्द का अहसास होता है और उनका भी अपना परिवार होता है तो आप उनके अस्तित्व को बड़ी मशीनों की सहायता से समाप्त करने से पहले सोचने पर मजबूर होते हैं।”

इसलिए अगली बार बिना सोचे-समझे किसी पत्ती को तोड़ने से पहले या किसी वनस्पति की झाड़ी को कुचलने से पहले सावधान रहें। आपका यह कृत्य अनदेखा नहीं होगा और उसके गवाह आपस में संवाद कर सकते हैं। कौन जानता है कि आपको रोकने के लिए अगली बार वह आप पर अपना कौन सा
जादू चला दें!

समीक्षक डाउन टू अर्थ के अंग्रेजी संस्करण में सहायक संपादक हैं 

‘पेड़ हाथियों की तरह होते हैं’
 
जर्मनी के पूर्व वनपाल पीटर वॉहलेबेन ने वनों पर कई किताबें लिखी हैं। उनके साथ एक साक्षात्कार के अंश

पेड़ों की भाषा को हम अभी तक कितना समझ पाए हैं?

मुझे लगता है कि पेड़ की भाषा का अधिकांश हिस्सा अज्ञात है। हमने यह ढूंढा है कि कीट के हमलों या सूखे का सामना करते समय वे क्या संवाद करते हैं—हम यह जानते हैं कि जब उनपर कोई खतरा होता है, तो वे “बात” करते हैं। लेकिन हमें नहीं पता कि अगर वे सहज या खुश महसूस करते हैं तो वे क्या संवाद करते हैं।

विभिन्न देशों / महाद्वीपों में पेड़ों के प्रति दृष्टिकोण में क्या अंतर है?

यह मेरे लिए सबसे बड़े अचरज की बात थी कि पेड़ों के ऊपर लिखी गई एक जर्मन किताब दुनियाभर में पढ़ी जा रही है। वास्तव में विभिन्न देशों/महाद्वीपों में पेड़ों के प्रति दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं है। जब से इनका पृथ्वी पर अस्तित्व है, ये मानव जाति से संबंध रखते हैं; अंतर केवल वनों के बारे में मिथकों और कहानियों में हैं।

आजकल के अकादमिक कार्य प्रकृति को मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से परे देख रहे हैं। आपका लेखन भी पेड़ों के प्रति इसी नए दृष्टिकोण से प्रेरित दिखता है। क्या आपने ऐसा जानबूझकर किया?

मैंने 25 वर्षों तक अपने जंगल में पर्यटकों के लिए यात्राएं आयोजित कीं।  प्रतिभागी ही मेरे शिक्षक थे। जब मेरी कहानी उबाऊ होती थी तो मुझे तुरंत पता चल जाता था। इसलिए मैंने पेड़ों के इर्द-गिर्द ऐसी कहानियां बुनीं कि तथ्यों को आसानी से समझा जा सके और प्रतिभागियों में पेड़ों के प्रति सहानुभूति विकसित हो। बाद में, वे अक्सर मुझसे पूछते थे कि पेड़ों के बारे में और कहां पढ़ा जा सकता है। और इसी तरह मेरी किताबों का जन्म हुआ। मेरी किताबें उन यात्राओं का लिखित संकलन हैं।

पर्यावरण सुरक्षा के दृष्टिकोण से हमेशा यह माना जाता है कि मानव अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पेड़ों को बचाना महत्वपूर्ण है। क्या इस दृष्टिकोण पर पुनर्विचार की आवश्यकता है?

हां, मुझे लगता है कि यह प्रकृति को एक नए नजरिये से देखने का समय है। हम में से बहुत से लोग इस बारे में निरंतर बात करते हुए थक चुके हैं कि हम अपने पर्यावरण के साथ कितना बुरा व्यवहार कर रहे हैं। यहां दो चीजें महत्वपूर्ण हैं: पहला, हमें यह पहचानना चाहिए कि प्रकृति की सुरक्षा का मतलब है कि पहले हम स्वयं अपनी रक्षा करें। दूसरा यह कि हम प्रकृति का और अधिक आनंद उठाएं। हम जिसे प्यार करते हैं, उसकी रक्षा भी करेंगे। और यही मेरा मुख्य उद्देश्य है।

पेड़ हाथी जैसे होते हैं और परिवार की तरह रहते हैं। उनकी भावनाएं होती हैं, यादें होती हैं और वे एक दूसरे की देखभाल करते हैं। बस अंतर यह है कि वे इतने धीमे हैं कि उन्हें पत्थरों से थोड़ा सा ही अलग माना जाता है। इसलिए मैं चाहूंगा कि पाठक पेड़ों के साथ और ज्यादा मस्ती करें और इनके छिपे रहस्यों को खोजना शुरू करें। इससे इनका संरक्षण अपने आप सुनिश्चित होने लगेगा।

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