जलवायु परिवर्तन वार्ता का लक्ष्य “न कोई हारे, न कोई जीते” होना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है
मैं जलवायु परिवर्तन पर आयोजित 24वें संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में भाग ले रहा था। यह सम्मेलन पेरिस समझौते को क्रियान्वित करने के लिए जरूरी एक नियम पुस्तिका बनाने के लिए कैटोविस, पोलैंड में आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में मैंने जो महसूस किया, वह अभूतपूर्व था। पूरी वार्ता एक ऐसी आकर्षक दुनिया बनाने को लेकर हो रही थी, जो वास्तविक नहीं थी और उस पर विश्वास करना मुश्किल था। यह पूरी वार्ता मकसद से भटक चुकी थी। 197 देशों के प्रतिनिधि जो हासिल करना चाह रहे थे और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, उन दोनों के बीच कोई संबंध ही नहीं था।
दुनिया जलवायु आपदा के प्रभाव से ग्रसित है। केरल से कैलिफोर्निया तक, मौसम की चरम अवस्थाएं लोगों को मार रही हैं, संपत्ति और व्यापार को तबाह कर रही हैं। ऐसा तब हो रहा है, जब वैश्विक तापमान में पूर्व-औद्योगिक समय के मुकाबले, महज 1.0 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। द इंटरगवर्न्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज स्पेशल रिपोर्ट ऑन ग्लोबल वार्मिंग ऑफ 1.5 डिग्री सेल्सियस यह बताती है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्मी पर इसका प्रभाव काफी उच्च होगा, वहीं 2.0 डिग्री सेल्सियस पर यह विनाशकारी हो जाएगा। सबसे दुखद यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत अधिकांश देश उत्सर्जन रोकने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं।
तो फिर ऐसा क्यों है कि ‘ऐतिहासिक’ पेरिस समझौते के तीन साल बाद भी वैश्विक सामूहिक प्रयास विफल साबित हुए हैं? इसका प्रमुख कारण है पेरिस समझौते की रूपरेखा। पेरिस समझौता एक स्वैच्छिक समझौता है, जिसमें शामिल देश अपना जलवायु लक्ष्य चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। इसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन) कहा जाता है। विकसित देशों और समृद्ध विकासशील देशों से अपेक्षा थी कि वे गरीब विकासशील देशों की तुलना में उत्सर्जन में ज्यादा कमी का लक्ष्य रखेंगे। लेकिन यदि एक अमीर देश उत्सर्जन में कटौती नहीं करता है, तो कोई अन्य देश लक्ष्य में संशोधन की मांग नहीं कर सकता। इससे भी बुरा हाल यह है कि यदि कोई देश नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन को पूरा करने में विफल रहता है, तो उस पर कोई जुर्माना नहीं लगाया जाता। यानी, यह समझौता देशों की आपसी सद्भावना के आधार पर है।
समझौते की सबसे बड़ी खामी यह है कि शुरुआत से ही इस जलवायु वार्ता को पर्यावरणीय वार्ता की जगह आर्थिक वार्ता के रूप में देखा गया है। यानी, इन वार्ताओं की नींव सहयोग की बजाय प्रतिस्पर्धा है। इससे भी बुरा यह कि इन वार्ताओं को जीरो-सम गेम के रूप में देखा जाता है (एक के नुकसान की वजह से दूसरे की जीत)। उदाहरण के लिए, डोनाल्ड ट्रम्प का मानना है कि उत्सर्जन कम करने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा और इससे चीन को फायदा होगा। इसलिए वह पेरिस समझौते से बाहर निकल गए। चीन भी इसी दृष्टिकोण में विश्वास करता है। इसी वजह से, चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक होने के बावजूद उत्सर्जन में कटौती करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है।
सच्चाई यह है कि हर देश संपूर्ण दुनिया की जगह अपने संकीर्ण हित को देख रहा है। इसलिए, वे अपने लिए जितना संभव हो, उतना कम जलवायु लक्ष्य निर्धारित कर रहे हैं। यही तथ्य पेरिस समझौते की सबसे बड़ी कमी है। नतीजतन, पेरिस समझौता कभी भी ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएगा। और ये वार्ता इस भावना को ही नहीं महसूस कर पा रही है।
हमें यह समझना होगा कि देशों के हित और दुनिया का हित, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उत्सर्जन कम करने के लिए सभी देशों को मिलकर, आपसी सहयोग से काम करने की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव है जब जलवायु परिवर्तन वार्ता जीरो-सम गेम की जगह पॉजिटिव-सम गेम (किसी की जीत के लिए किसी का नुकसान न हो) की तरफ कदम बढ़ाए। आज, यह परिवर्तन संभव है, क्योंकि उत्सर्जन में कमी और आर्थिक विकास में वृद्धि, एक-दूसरे के विरोधी नहीं है। बैटरी, सुपर-एफिशिएंट उपकरण और स्मार्ट ग्रिड जैसी तकनीक की लागत इतनी तेजी से गिर रही है कि वे जीवाश्म ईंधन प्रौद्योगिकी के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। इसलिए, कार्बन बजट के लिए देशों के बीच प्रतिस्पर्धा करने का कारण बेकार साबित हो रहा है। यदि देश सहयोग करें, तो न्यूनतम कार्बन या कार्बन रहित प्रौद्योगिकियों की लागत बहुत तेजी से कम हो सकती है। इससे सभी को फायदा होगा।
कुल मिलाकर यह कि इस तरह की वार्ता महज एक फैशन बन कर रह जाएगी। इससे कोई फायदा नहीं होने वाला। समय आ गया है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए, एक सार्थक अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए नए तंत्र का निर्माण किया जाए।
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