एक अध्ययन के अनुसार आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों के लंबे समय तक संपर्क में रहने से किसानों में मधुमेह होने का जोखिम रहता है। ऐसे समय में जबकि भारत मधुमेह की राजधानी बनता जा रहा है यह शोध चिंताजनक है। इन कीटनाशकों के असर को लेकर किसानों में जागरुकता का अभाव है और वे इनके छिड़काव के समय मास्क व दस्तानों का इस्तेमाल भी नहीं करते
यह साल 2011 की बात है। मदुरई में 15 साल की एक लड़की को मधुमेह रोग के इलाज के लिए अस्पताल में लाया गया। लेकिन यह सामान्य मधुमेह या डायबिटीज का मामला नहीं था। इस लड़की को डायबिटीज केटोएसिडोसिस था, जो मधुमेह का एक जानलेवा रूप है। इसमें शरीर की कोशिकाओं को इंसुलिन की कमी के चलते पर्याप्त मात्रा में शर्करा नहीं मिल पाती।
कोयंबतूर स्थित कोवई मेडिकल सेंटर एंड हॉस्पिटल के अध्यक्ष तथा एंडोक्राइनोलॉजिस्ट कृष्णन स्वामीनाथन ने सबसे पहले यह गौर किया कि लड़की पर दवाओं का असर नहीं हो रहा है। वे याद करते हैं, “हमने मामले की फिर से जांच की और लड़की के रक्त व मूत्र के नमूनों में आर्गेनोफास्फेट कीटनाशक के काफी अधिक तत्व पाए। जब हमने लड़की के अभिभावकों से पूछा तो उन्होंने बताया कि उसने स्कूली परीक्षा में कम नंबर आने पर कीटनाशक पी लिया था।”
आर्गेनोफास्फेट कीटनाशक इसलिए भी बदनाम हैं, क्योंकि किसानों द्वारा आत्महत्या के लिए इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ है।
इसी समय मैसूर, कर्नाटक में भी इसी तरह का एक मामला सामने आया था, जहां 12 साल का एक बच्चा समान लक्षणों वाले रोग से पीड़ित था। इस किशोर ने एक खेत से ताजा तोड़े गए टमाटर बिना धोए ही खा लिए थे। स्वामीनाथन का कहना है कि शरीर के इंसुलिन कार्यव्यवहार पर इस रसायन के असर के अध्ययन के कारण ये समझ में आया कि आर्गेनोफास्फेट व मधुमेह में संबंध हो सकता है।
इन मामलों में आए निष्कर्षों के आधार पर ही मदुरई कामराज विश्वविद्यालय ने ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में मधुमेह के मामलों को लेकर एक अध्ययन किया।
जीनोम बायोलॉजी के जनवरी अंक में प्रकाशित एक शोध के मुख्य लेखक गणेशन वेलमुरूगन कहते हैं, “आर्गेनोफास्फेट से लंबे समय तक संपर्क में रहने से मनुष्यों व चूहों में श्रेणी दो का मधुमेह हो सकता है। इससे पहले के अध्ययनों में तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में मधुमेह रोग के बढ़ते प्रकोप का जिक्र तो किया गया था, लेकिन यह पहला अध्ययन है जिसमें इस रोग की वजह को कीटनाशक से जोड़ा गया है।
अनुसंधानकर्ताओं ने मदुरई जिले के तिरूपारानकुंद्रम प्रखंड के सात गांवों के 3,080 लोगों पर अध्ययन किया। इस अध्ययन के सभी भागीदारों की उम्र 35 साल से अधिक थी और उनमें से लगभग 55 प्रतिशत किसान समुदाय से थे। यानि उनके आर्गेनोफास्फेट से प्रभावित होने की संभावना काफी अधिक थी। भागीदारों के खून की जांच के परिणाम हैरान करने वाले थे। किसानों या किसान समुदाय में मधुमेह रोग की उपस्थिति गैर किसान समुदाय की तुलना में तीन गुना अधिक (18.3 प्रतिशत) पाई गई। गैर किसान समुदाय में यह आंकड़ा 6.2 प्रतिशत पाया गया। इस तुलना में यह तथ्य भी शामिल है कि किसानों में मोटापे, कोलेस्ट्रोल का जोखिम कम होता है और वे शारीरिक श्रम भी खूब करते हैं। ज्यादातर मधुमेह इन जोखिमों से ही जुड़े होते हैं।
यहां मदुरई के निकट के गांव वाडापालांजी के 50 वर्षीय किसान शक्तिवेल का मामला लिया जा सकता है। शक्तिवेल एक हेक्टेयर से भी छोटे अपने खेत में धान के साथ-साथ भिंडी, टमाटर, लौकी तथा चिरचिंडा आदि उगाते हैं। सप्ताह में एक बार वह अपने खेत तथा अन्य किसानों के खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं। उन्हें मास्क या दस्ताने पहनने पसंद नहीं। यहां तक कि वह सुरक्षात्मक जूते भी नहीं पहनते। 2016 में जब अध्ययनकर्ताओं ने उसके खून की जांच की तब उन्हें पता चला कि उन्हें श्रेणी दो का मधुमेह रोग है। शक्तिवेल न तो मोटे हैं और न ही उनके परिवार में इस रोग का कोई इतिहास है। अन्य रोगियों की तरह शक्तिवेल को भी अब मेटफोर्मिन दी जा रही है। इसके साथ ही उनके खानपान को बहुत सीमित कर दिया गया है।
सुराग संकेत
यह पुष्टि करने के लिए कि आर्गेनोफास्फेट और मधुमेह रोग में कोई संबंध है और इस कीटनाशी के ज्यादा संपर्क में रहने से ही यह रोग होता है अध्ययनकर्ताओं ने एक प्रयोग किया। इसके तहत चूहों के एक समूह को 180 दिन तक ऐसा पानी दिया गया जिसमें कीटनाशकों के अंश थे। यहां चूहों के 180 दिन मानव जीवन के लिए 12-15 साल के बराबर है। अध्ययन में पाया गया कि प्रयोग में शामिल चूहों के खून में शर्करा यानी ग्लूकोज का स्तर लगातार बढ़ रहा था और 180 दिन के बाद तो इसका स्तर काफी ऊंचा हो गया था।
जिस तरह से रासायनिक युद्ध में तंत्रिका एजेंटों का इस्तेमाल किया जाता है, ठीक उसी तरह आर्गेनोफास्फेट का काम कॉलीनएस्टरेस नामक एंजाइम के कार्य को रोकना है। लेकिन अनुसंधान करने वालों को यह जानकर हैरानी हुई कि प्रयोग में शामिल चूहों के एंजाइम में कोई बदलाव नहीं हुआ। इस पर उन्होंने अध्ययन किया कि मधुमेह रोग होने में ‘गट माइक्रोबायोटा’ की क्या भूमिका हो सकती है। शोधकर्ताओं ने आर्गेनोफास्फेट उपचारित पशुओं से प्राप्त मल सामग्री को चूहों के एक नये समूह में प्रत्यारोपित किया। इस नये समूह में शर्करा के प्रति अनुदारता देखने को मिली और यह मधुमेह की वजह बनी। इस अध्ययन के दौरान चूहों में और भी बदलाव दर्ज किए गए। इसमें यह भी है कि आर्गेनोफास्फेट के निम्नीकरण से फैटी एसिड की एक छोटी शृंखला बनती है जो कि अंततः शर्करा सृजन, बढ़ी ब्लड शुगर और ग्लूकोज अनुदारता का कारण बनती है।
इस अध्ययन के निष्कर्ष इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत दुनिया की मधुमेह राजधानी (डायबिटीज कैपिटल) है (देखें- मधुमेह की राजधानी)। एक अनुमान के अनुसार 2015 में देश के 6.9 करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित थे। बदलते खानपान, लगातार बैठकर काम करने वाली जीवन शैली व आनुवंशिक प्रवृत्ति के कारण यह रोग बढ़ रहा है और श्रेणी दो के मधुमेह रोगियों की संख्या 2030 तक बढ़कर 7.94 करोड़ होने का अनुमान है। कीटनाशकों के बेतहाशा बढ़ते इस्तेमाल से मधुमेह की मार शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है।
श्रेणी दो के मधुमेह के लिए कौन सा कारण सबसे अधिक जिम्मेदार है, अभी तक इसका पता नहीं चल पाया है। अपोलो अस्पताल, चेन्नई में डायबेटोलाजिस्ट एस रामाकुमार कहते हैं, “केवल एक अध्ययन से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। ऐसे अनेक और अध्ययन किए जाने की जरूरत है ताकि समस्या को समझा जा सके और निष्कर्षों को सत्यापित किया जा सके।”
जहरीला रसायन
आर्गेनोफास्फेट से लगातार संपर्क में रहने के कारण होने वाले स्वास्थ्य खतरों के प्रति अनेक अध्ययनों में आगाह किया गया है। साल 2015 में इंटरनेशनल एजेंसी फोर रिसर्च ऑन कैंसर ने टेट्राक्लोरविनफोस, पैराथियोन, मैलाथियोन, डायाजिनोन व ग्लाइफोसेट जैसे आर्गेनोफास्फेट को कैंसरकारी करार दिया था। अन्य अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि आर्गेनोफास्फेट की संपर्कता से पर्किंसंस, अल्जाइमर, मधुमेह व उच्च रक्तचाप जैसे रोग हो सकते हैं। इससे बच्चों व युवाओं में न्यूरोलाजिकल विकार भी हो रहे हैं।
आर्गेनोफास्फेट के संपर्क में आने की बात की जाए तो हालात इस लिहाज से और भी गंभीर हैं कि खेती-बाड़ी का काम करने वालों में सुरक्षा उपकरणों को लेकर जागरुकता का अभाव है। मदुरई के निकट सुंदराजपुरम गांव में ज्यादातर किसान कीटनाशकों का छिड़काव करते समय मास्क लगाने या दस्ताने पहनने जैसे एहतियाती उपाय नहीं करते। स्थानीय किसान एसोसिएशन के अध्यक्ष 67 वर्षीय सुब्रमण्य कहते हैं, “मैं प्राय: मास्क या दस्ताने नहीं पहनता क्योंकि यह परेशानी भरा होता है। कई बार तो मैं इसे पहनना भूल ही जाता हूं।” कई अन्य किसानों का कहना है कि हालांकि कीटनाशक विक्रेता उन्हें एहतियाती सुरक्षा उपायों के बारे में बताते हैं लेकिन वे उनका पालन नहीं करते। आर्गेनोफास्फेट का छिड़काव पानी के साथ मिलाकर किया जाता है। इसलिए त्वचा के संपर्क में आने पर यह आसानी से शरीर में प्रवेश कर जाता है।
इस्तेमाल पर लगाम
पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए विभिन्न देशों ने 1970 के दशक में जब डीडीटी पर प्रतिबंध लगाना या उसका नियमन करना शुरू किया तो आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ने लगा और दुनियाभर में इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाने लगा। इस समय वैश्विक कीटनाशक बाजार में इनकी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है।
कई अध्ययनों में आर्गेनोफास्फेट पर प्रतिबंध की मांग की गई है। यह अलग बात है कि अनेक देशों में इसका इस्तेमाल सरेआम हो रहा है। हमारे देश में कीटनाशकों के इस्तेमाल पर नियमन आदि का काम केंद्रीय कीटनाशी बोर्ड एवं पंजीकरण समिति (सीआईबीआरसी) और भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकार (एफएसएसएआई) करता है। 20 अक्तूबर 2015 तक सीआईबीआरसी ने दो आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया जबकि चार अन्य के इस्तेमाल पर नियमन किया था। इन चार में मिथाइल पैराथियोन शामिल है जिसका इस्तेमाल फलों व सब्जियों में नहीं किया जा सकता। वहीं मोनोक्रोटोफास का इस्तेमाल सब्जियों में नहीं किया जा सकता। वेलमुरूगन का कहना है कि इन प्रतिबंधों के बावजूद तमिलनाडु में किसान इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं। वेलमुरूगन ने राज्य के कुछ उन कृषि विश्वविद्यालयों में आरटीआई दाखिल की है, जिन्होंने अपनी वेबसाइट पर इन प्रतिबंधित कीटनाशकों को सूचीबद्ध कर रखा है और यहां तक कि वह उनके इस्तेमाल की सिफारिश भी करते हैं। इन आरटीआई आवेदनों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया है।
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान संस्थान में प्रोफेसर, कल्पना रामासामी ने ‘डाउन टु अर्थ’ से कहा कि हालांकि कृषि विश्वविद्यालय अब किसानों को ‘हरित लेबल’ वाले कीटनाशकों के इस्तेमाल की सलाह दे रहे हैं लेकिन आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों का कोई विकल्प तलाशे बिना ही इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना सफल नहीं होगा। हरित लेबल वाले कीटनाशी अपेक्षाकृत कम जहरीले माने जाते हैं।
उद्योग मंडल फिक्की ने 2016 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार भारत में फसल सुरक्षा बाजार के 60 प्रतिशत हिस्से पर कीटनाशकों का कब्जा है। इस अध्ययन में आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों के असर के बारे में आम जागरुकता पर जोर दिया गया है। अध्ययन के अनुसार विशेषकर भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इस तरह की जागरुकता बहुत मायने रखती है।
जीनोम बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन के लेखक स्वामीनाथन ने कहा, “किसानों को सब्जियों के इस्तेमाल से पहले उन्हें धोने व सुखाने तथा कीटनाशकों के छिड़काव से पहले उचित सुरक्षात्मक उपकरण पहनने के बारे में जागरुक करना होगा। अगर अब यह जागरुकता नहीं फैलाई गई तो आने वाले 10 सालों में यह समस्या विकराल रूप धारण करने वाली है।”
आर्गेनोफास्फेट कीटनाशकों के संपर्क में आने पर पड़ने वाले प्रभावों को बेहतर समझने के लिए अनुसंधानकर्ता अब ‘गट माइक्रोबायोटा’ की आण्विक प्रणाली व आनुवंशिक संवाद का अध्ययन करेंगे ताकि नैदानिक व उपचारात्मक रणनीति बनाई जा सकें। कोवई मेडिकल सेंटर एंड हॉस्पिटल, कोयंबतूर तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नई की संयुक्त टीम ने ग्रामीण, अर्धशहरी व शहरी इलाकों में लोगों के खून व मूत्र के नमूने लिए हैं। इन नमूनों का इस्तेमाल सभी तरह के रसायनों के असर का आकलन करने के लिए किया जाएगा। इस टीम ने मधुमेह व हृदय संबंधी रोगों से पीड़ि त लोगों में माइटोकांड्रिया के कामकाज पर रसायनों के असर का अध्ययन करने के लिए मदेश मुनीस्वामी से भी हाथ मिलाया है जो कि टेंपल विश्वविद्यालय, फिलाडेल्फिया (अमेरिका) में प्रोफेसर हैं।
जानलेवा आर्गेनोफास्फेट
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