भारत ने अर्थव्यवस्था के बुरे मापक पर बहस का अवसर एक बार फिर खो दिया है
पिछले दिनों भारत में राजनीतिक विमर्श दो ध्रुवों में विभाजित देखा गया। स्वस्थ बहस के बजाय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के तुलनात्मक आंकड़े बीजेपी बनाम कांग्रेस के बेमतलब की बहस में उलझ गए। 2015 में भारत ने जीडीपी मापने की पद्धति में बदलाव किया है। इस साल और इससे पहले के वर्षों में जीडीपी के तुलनात्मक आंकड़े अर्थव्यवस्था को परखने के लिए अनिवार्य रहे हैं। इसके नतीजे बताते हैं कि पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के कार्यकाल में अर्थव्यवस्था ने मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया था। दोनों तरफ से लंबी बहस के बाद सरकार ने अध्ययन वापस ले लिया।
जुलाई में अमेरिका ने अर्थव्यवस्था के कुछ मापदंड बदले थे जिससे वर्तमान और अतीत की जीडीपी के विकास में बदलाव आया। इसने बताया कि बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में ट्रंप शासन के मुकाबले बेहतर विकास दर दर्ज की गई थी। इस मुद्दे पर कोई बेमतलब की राजनीतिक बहस नहीं हुई। बल्कि बहस यह थी कि क्या जीडीपी को अर्थव्यवस्था को मापने का एकमात्र पैमाना माना जाए? भारत में छिड़ी बहस में यह मुद्दा गायब दिखा।
अर्थव्यवस्था के मापक के रूप में जीडीपी और कल्याणकारी राज्य के बीच चर्चाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। 2016 में भारत के तत्कालीन मुख्य सांख्यकीयविद टीसीए अनंत ने बताया था कि जीडीपी एक अपर्याप्त सूचक है। तब यह बहस छिड़ी कि भारत में जीडीपी को मापने की कौन-सी पद्धति अपनाई जाए। दुनियाभर में अर्थशास्त्री जीपीडी पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं क्योंकि इससे कल्याणकारी राज्य की स्थिति स्पष्ट नहीं होती। यह भी नहीं पता चलता कि अर्थव्यवस्था में तेजी जनकल्याण के रूप में परिलक्षित है या नहीं। बहुत से लोग पूछते हैं कि अगर भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है तो गरीबी उस अनुपात में कम क्यों नहीं होती और क्यों देशभर के किसान लगातार तकलीफ में हैं।
जीडीपी में यह सब प्रदर्शित नहीं होता क्योंकि यह समग्र कल्याण का द्योतक नहीं है। उदाहरण के लिए बाढ़ के बाद केरल की जीडीपी में उछाल आ जाएगा क्योंकि केरल के पुनर्निर्माण में निवेश बढ़ जाएगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार होगा। एक अस्वस्थ देश में लोगों द्वारा बीमारियों के इलाज पर खर्च करने से भी जीडीपी में वृद्धि होती है। जीडीपी का आविष्कार करने वाले साइमन कुजनेट्स 1934 में अमेरिकी कांग्रेस को चेताया था कि इसकी गणना अशुद्ध है और इससे अर्थव्यवस्था के कल्याणकारी पहलू की सच्ची तस्वीर सामने नहीं आती।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर जीडीपी से इतना प्रेम किसलिए? दरअसल ऊंचे आर्थिक विकास के गरीबों के कल्याण से अधिक राजनीतिक मायने हैं। राजनीतिक दल जीडीपी का हवाला देकर झटपट लोगों को उत्साहित करने और चुनावी लाभ लेने की कोशिश करते हैं। जब से जीडीपी और उदार अर्थव्यवस्था वैश्विक मापदंड बने हैं, इसका राजनीतिक महत्व और बढ़ गया है। विदेशी निवेश को लुभाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
इसका असली खतरा यह है कि महज जीपीडी में उछाल लाकर नीति निर्माता कल्याण सुनिश्चित करने के लिए जरूरी आर्थिक निवेश से दूरी बना लेते हैं। उदाहरण के लिए निर्यात आधारित मोबाइल फोन की फैक्टरी में निवेश करके जीडीपी तो बढ़ाई जा सकती है लेकिन मानवीय विकास के सूचक स्कूल और अस्पतालों में निवेश से जीडीपी के इच्छित परिणाम नहीं हासिल किए जा सकते। जीडीपी के राजनीतिक आकर्षण के कारण एक नेता का झुकाव फैक्ट्री की तरफ होता है। यही कारण हो सकता है कि भारत में कृषि व्यापार बढ़ा है। हम कृषि क्षेत्र पर कम निवेश के कारण आयात अधिक कर रहे हैं।
इसलिए एक मौका था कि हम जीडीपी पर छिड़ी बहस के बरक्स उसके गुण-दोष पर बात करते। यह “नए भारत” का एक प्रतीक हो सकता था। लेकिन हम इसकी पुरजोर वकालत करके और रिपोर्ट को वापस लेकर संकीर्ण राजनीति के शिकार हो गए हैं।
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