केंद्र की उच्च प्राथमिकता वाली नमामि गंगे परियोजना की सफलता पर सवाल उठ रहे हैं। परियोजना के दो साल बाद इसका हासिल स्पष्ट नहीं है।
केंद्र सरकार की उच्च प्राथमिकता वाली नमामि गंगे परियोजना की सफलता पर सवाल उठ रहे हैं। परियोजना के दो साल पूरे होने के बाद इसका हासिल स्पष्ट नहीं है। अब गंगा नदी के पिछले सफाई अभियानों की असफलता का साया इस पर भी मंडरा रहा है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने 13 जुलाई 2017 को गंगा की सफाई पर फैसला देते हुए कहा कि सरकार ने गंगा को शुद्ध करने के लिए बीते दो साल में 7,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं, लेकिन गंगा नदी की गुणवत्ता के मामले में रत्तीभर सुधार नहीं दिखा है। एनजीटी ने फैसले में कहा कि यह एक गंभीर पर्यावरण मुद्दा है। ऐसा तब है जब यह योजना केंद्र की कार्यसूची में पहली प्राथमिकता पर है। एनजीटी का यह आदेश इसलिए अभूतपूर्व है क्योंकि एनजीटी ने आदेश में यह स्पष्ट किया है कि इतना खर्च और ध्यान देने के बावजूद नदी अब और अधिक प्रदूषित हो गई है। फैसले में एनजीटी ने कहा, “आगे अब और इंतजार करने की कोई गुंजाइश नहीं बची है।”
543 पृष्ठों के अपने आदेश में एनजीटी ने कहा, मार्च, 2017 तक 7304.64 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद केंद्र, राज्य सरकारें और उत्तर प्रदेश राज्य के स्थानीय प्राधिकरण, गंगा नदी की गुणवत्ता के मामले में सुधार कर पाने में असफल रहे। एनजीटी ने नदी के 100 मीटर के भीतर सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने सहित नदी से 500 मीटर की दूरी के भीतर कचरा डालने पर भी प्रतिबंध लगा दिया और आदेश दिया कि ऐसा करने वालों पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाए।
एनजीटी के फैसले पर हिमालयन एनवायरमेंट स्टडीज एंड कंजरवेशन ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक अनिल प्रकाश जोशी ने कहा, “एनजीटी तो बहुत कमजोर है। वह लगातार फैसले दे रहा है लेकिन सरकार उसके आदेशों को लागू नहीं करवाती। एनजीटी ने इसके पहले भी हरिद्वार के लिए कई आदेश पास किए लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण एनजीटी के आदेश बेमानी साबित हो रहे हैं। इसीलिए जब तक सख्त आदेश न हों और संबंधित प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ एनजीटी के माध्यम से प्राथमिकी न दर्ज हो जाए, तब तक कुछ नहीं होना वाला।” कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार राहुल शुक्ला कहते हैं, “एनजीटी का फैसला अपने आप में अजीब है। इसमें 100 मीटर तक के दायरे में विकास कार्यों पर प्रतिबंध लगाया है। इसके पहले हाईकोर्ट 200 मीटर तक के दायरे में निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगा चुका था। एनजीटी ने इसे नो डेवलपमेंट जोन घोषित कर दिया है। यहां सवाल उठता है कि विकास कार्य के अंतर्गत तो सड़क व खडंजा भी आता है।”
एनजीटी के इस फैसले पर बनारस में गंगा सफाई अभियानों में बतौर सलाहकार और गैर सरकरी संगठन आशा के सामाजिक कार्यकर्ता वल्लभ पांडे कहते हैं “एनजीटी के फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। ऐसे फैसलों के नतीजे तुरंत नहीं दिखते हैं। निर्माण सामग्री को बारिश के समय बहने से रोकने लिए कोई इंतजाम नहीं होता है। यह बहकर सीधे गंगा में जाती है और इससे नदी उथली होती जाती है और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।” वह कहते हैं कि निर्माण कार्यों के दौरान बड़ी मात्रा में गंदा पानी नदी में बहा दिया जाता है। बिहार के सीतामढी में नदियों पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता शशि शेखर इस बात को खारिज करते हैं कि एनजीटी के फैसलों का कोई असर नहीं होता। वह कहते हैं, “एनजीटी जुर्माना लगाता है। चूंकि एनजीटी सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करता है इससे सरकार पर दबाव पड़ता है और उसे सफाई देनी पड़ती है।”
जनभागीदारी का अभाव
अभियान की सफलता में जनभागीदारी एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के इलाकों में बहने वाली गंगा के सफाई अभियानों में सक्रिय रहे रांची के सामाजिक कार्यकर्ता प्रवीर पीटर कहते हैं, “हर सरकारी योजना की सबसे बड़ी कमजोरी होती है कि उसके साथ जनता को भागीदार नहीं बनाया जाता है। नमामि परियोजना पूरी तरह से सरकारी मशीनरी पर आधारित है। इस तरह के बड़े काम को सामुदायिक योजना की तरह लागू करना चाहिए, लोगों को सीधा जुड़ाव महसूस होना चाहिए।” वहीं, उन्नाव में नेहरू युवक केंद्र से जुड़ी कार्यकर्ता सोनी शुक्ला कहती हैं, “जहां तक नमामि की सफलता की बात है इसके तहत आश्चर्यजनक ढंग से पहले घाटों पर निर्माण कार्य चल रहा है। लेकिन शहर के नालों की दिशा बदलने पर किसी तरह का काम अब तक शुरू नहीं हुआ है। इस योजना का हश्र भी गंगा सफाई की पुरानी योजनाओं की तरह होना है।” वह कहती हैं, “वर्तमान में यहां समाजवादी सरकार के ही नौकरशाह पदस्थ हैं, जिन्होंने पिछले दो साल से इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया था।” भागलपुर में गंगा मुक्ति आंदोलन से जुडे नाट्यकर्मी लल्लन कहते हैं, “नमामि परियोजना का तो यहां कोई नाम लेने वाला नहीं है। गंगा की सफाई बीते दशकों में जितनी हुई, वह बस स्थानीय लोगों की भागीदारी से हुई है। यहां तो गंगा नदी, गंगा नाला बन कर रह गई है।”
कहां और कब तक
सरकार ने नमामि परियोजना के लिए कई स्तर पर कार्ययोजनाओं का खाका खींचा है। योजना आठ प्रमुख कार्य बिंदुओं के इर्दगिर्द घूमती है। इनमें प्रमुख है गंगा किनारे सीवर उपचार संयंत्र का ढांचा खड़ा करना। योजना के तहत 63 सीवेज मैनेजमेंट प्रोजेक्ट उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में लगाए जाएंगे। अब तक इनमें 12 पर काम चल रहा है। इसके अलावा हरिद्वार और वाराणसी में दो प्रोजेक्ट प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट (पीपीपी) मॉडल यानी निजी सहभागिता पर भी शुरू करने की कोशिश की जा रही है। वहीं नदी मुहानों के विकास (रिवर फ्रंट डेवलपमेंट) के तहत 182 घाटों और 118 श्मशान घाटों का आधुनिकीकरण किया जाएगा। अब तक उन्नाव में चार और वाराणसी के 12 घाटों पर निर्माण कार्य चल रहा है। नदी के सतह की सफाई के लिए अब तक 11 जगहों को चुना गया है और इन पर काम शुरू हुआ है। जैव-विविधता संरक्षण के लिए देहरादून, नरोरा, इलाहाबाद, वाराणसी और बैराकपुर में पांच केंद्रों की पहचान की गई। इन पर अभी काम शुरू नहीं हुआ है। उत्तराखंड के सात जिलों में औषधीय पौधों के संरक्षण का कार्य भी अभी शुरू हुआ है। गंगा किनारे लगी 760 औद्योगिक इकाइयों में से 572 में औद्योगिक कचरा निगरानी यंत्र लगाए जा चुके हैं। गंगा किनारे बसे पांच राज्यों की 1647 ग्राम पंचायतों की पहचान की गई है। इन राज्यों में लक्षित 15 लाख 27 हजार 105 शौचालयों में से अब तक 8 लाख 53 हजार 397 शौचालयों का निर्माण कार्य पूरा हो गया है।
रुचि हो रही कम
नमामि प्रधानमंत्री की एक स्वप्निल परियोजना है लेकिन अब इसके प्रति सरकारी नजरिए से यह सवाल उठने लगा है कि क्या समय बीतने के साथ प्रधानमंत्री की निजी रुचि इसमें कम हो रही है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय इन दिनों ऐसा ही संकेत दे रहा है। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, हमारी मंत्री पिछले दो माह में तीन बार प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) नमामि गंगे की फाइलें लेकर गईं, लेकिन उन्हें बस तारीख ही मिली। गौरतलब है कि गंगा को निर्मल करने के लिए बुलाई गई राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) की तीन बैठकों में से सिर्फ एक बैठक की अध्यक्षता 26 मार्च, 2014 को प्रधानमंत्री ने खुद की थी। अन्य दो बैठकों की अध्यक्षता केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने की थी जो 27 अक्टूबर, 2014 और 4 जुलाई, 2016 को हुई थी। जबकि मोदी के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान हुई प्राधिकरण की सभी तीन बैठकों की अध्यक्षता की थी। ये बैठकें क्रमश: 5 अक्टूबर, 2009, 1 नवंबर, 2010, और 17 अप्रैल, 2012 को हुई थीं। गंगा सफाई की यही कड़वी सच्चाई है। प्रधानमंत्री गंगा सफाई के लिए बनी सबसे अहम सरकारी इकाई की बैठक में ही हिस्सा न लें, ऐसे में नमामि गंगा परियोजना की सफलता पर सवाल तो उठेंगे ही।
बदलते अधिकारी
किसी योजना की सफलता का दाराेमदार बहुत कुछ परियोजना के निदेशक पर निर्भर करता है। लेकिन इस मामले में नमामि अपवाद है। क्योंकि नमामि परियोजना शुरू हुए दो साल हुए हैं और इस दौरान इसके छह-छह निदेशक बदले गए। जल संसाधन मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि इसका एक बड़ा कारण यह था कि कोई भी निदेशक इस परियोजना से जुड़े सभी राज्यों को साथ ला पाने में सफल नहीं हो पा रहा था। चूंकि पांच राज्यों में भाजपा के पास केवल झारखंड था, इसके अलावा अन्य चार राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकार थी। इसके कारण नमामि के निदेशकों को इस योजना के क्रियान्यवन में भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। कोई भी केंद्र सरकार जब यह देखेगी कि उसके द्वारा नियुक्त निदेशक राज्यों के साथ काम ही नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें बदलना ही पड़ेगा । इसके अलावा आखिरी जो निदेशक बदले गए, उनका मंत्री के साथ सामंजस्य नहीं बैठा। वर्तमान निदेशक यू.पी. सिंह अभी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं है। वे अभी इसे समझने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
हिमालयन एनवायरमेंट स्टडीज एंड कनजरवेशन ऑर्गनाइजेशन के अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं, “निदेशकों से साथ समन्वय में नाकाम रहने का कारण केंद्र सरकार का रवैया जिम्मेदार है। केंद्र ने योजना ही ऐसी बनाई है जिसमें राज्यों की भागीदारी को न्यूनतम कर दिया। ऐसे में राज्य सरकार से सक्रिय सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
समन्वय नहीं
नमामि गंगे योजना की सफलता पांच राज्यों के समन्वय पर टिकी हुई है। लेकिन जब से यह योजना शुरू हुई तब से राज्य व केंद्र सरकार के बीच लगातार गतिरोध बना रहा। बिहार के सहरसा के सामाजिक कार्यकर्ता मदन मोहन मुरारी कहते हैं “जब पश्चिम बंगाल के मंत्री से लेकर अधिकारी तक को केंद्र के इशारे पर सीबीआई अपनी चपेट में ले रही हो तो आप कैसे यह उम्मीद करते हैं वे आपकी किसी योजना को अपने राज्य में सफल होने देंगे।” राज्यों के समन्वय के सवाल पर झारखंड के साहेबगंज के जेपी आंदोलन के कार्यकर्ता और वकील ललित स्वदेशी ने कहा कि जब यह योजना शुरू हुई थी तो उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार थी, उसने इस योजना के लिए आए पैसे का कोई उपयोग नहीं किया। वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने इस योजना को पूरी तरह से उपेक्षित किया। झारखंड में भाजपा की सरकार है और यहां गंगा केवल 40 किलोमीटर तक ही बहती है। ऐसे में इस योजना पर राज्य सरकार का प्रभाव न के बराबर है। पटना में गंगा बचाओ अभियान के संस्थापक गुड्डू बाबा कहते हैं कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि जब तक गाद का प्रबंधन नहीं होगा यह योजना सफल नहीं होगी (डाउन टू अर्थ, जुलाई 2017)। कुमार की यह बात सकारात्मक रूप में लेनी चाहिए। आखिर नमामि गंगे परियोजना के तहत केंद्र ने हल्दिया से इलाहाबाद तक जल मार्ग निर्माण की बात कही है। जब जहाज चलाए जाएंगे तो नदी में पांच मीटर की गहराई का प्रबंधन करना केंद्र सरकार की मजबूरी होगी। इससे गाद की समस्या स्वतः खत्म हो जाएगी।
तीन दशकों से बनारस के पास कैथी गांव में गंगा की सफाई करने वाले 62 साल के नारायाणदास गोस्वामी कहते हैं कि अभी तक नमामि का लक्ष्य 2020 है । लेकिन मुझे नहीं लगता है कि यह तय समय-सीमा पर अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगी क्योंकि पिछले दो साल में जितना भी नमामि गंगे के तहत काम हुआ है वह बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। जहां तक नदी में गिरने वाले सीवेज के लिए एसटीपी बनाए जाने की बात है तो इसके लिए अभी तक निविदाएं ही जारी हो रही हैं। कानपुर में सीवेज लाइन बिछा दी गई लेकिन उससे कोई कनेक्शन नहीं ले रहा है। सरकार की योजना अच्छी है लेकिन इसे लागू करवाने का तंत्र नाकाम हो रहा है।
“गंगा की अविरल धारा के लिए समग्र योेजना का खाका तैयार”
गंगा की सफाई मुद्दे पर केंद्रीय जल संसाधन,नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्री उमा भारती से डाउन टू अर्थ की बातचीत
पिछली सरकारों के मुकाबले आपकी गंगा सफाई योजना अलग कैसे है? क्या इससे गंगा अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेगी? |
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