Water

पारंपरिक ज्ञान में छिपे जल विवाद समाधान के सूत्र

देश में 17 अंतरराज्यीय नदियां हैं, इसलिए जल विवादों का होना असामान्य बात नहीं है। लेकिन जल बंटवारे को लेकर स्थायी समझ का नहीं होना विवाद की एक बड़ी वजह है

 
By Richard Mahapatra
Published: Thursday 17 August 2017
Credit: R K Srinivasan

पिछले एक महीने में देश ने नदी जल के बंटवारे को लेकर असंतोष झेला है। कर्नाटक में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भारी विरोध शुरू हो गया था। इस फैसले में कावेरी जल को तमिलनाडु के साथ साझा करने का निर्देश दिया गया है। पूर्वी भारत के राज्य उड़ीसा में भी इसी तरह का विरोध चल रहा है। यह विरोध छत्तीसगढ़ द्वारा महानदी पर बनाए जा रहे बांध के खिलाफ है। इनमें नागरिक समाज के कई समूह और राजनेता शामिल हैं। इनका मानना है कि अगर ये बांध बना तो महानदी में जल का प्रवाह कम हो जाएगा। कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा में पहले से ही महादयी नदी के जल बंटवारे को लेकर झगड़ा है।

देश की 18 प्रमुख नदियों में से 17 नदियां एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं, इसलिए जल विवादों का होना कोई असामान्य बात नहीं है। लेकिन जल बंटवारे को लेकर किसी स्थायी समझ का न होना विवाद की एक बड़ी वजह है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि केंद्र सरकार जल को अपने अधीन लेने के बारे में सोचने लगी है ताकि पानी से जुड़े अंतरराज्यीय विवादों को सुलझाया जा सके। सवाल उठता है क्या भारत इन विवादों के समाधान के लिए अपने परंपरागत जल प्रबंधकों के अलिखित तौर-तरीकों से कुछ सीख सकता है?

उड़ीसा से महाराष्ट्र और तमिलनाडु से लद्दाख तक भारत के अधिकांश राज्यों में जल से जुड़े विवादों को निपटाने के अपने पारंपरिक तरीके रहे हैं। इनको विभिन्न नाम से जाना जाता है। मसलन, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इन्हें नीरकट्टी, गढ़वाल में कोल्लालुस, कुमायूं की पहाड़ियों में चौकीदार या ठेकेदार, महाराष्ट्र में हवलदार या पटकरी और लद्दाख में इन्हें चुर्पुन कहा जाता है। पारंपरिक तौर पर जल प्रबंधन इनका पारिवारिक पेशा होता है जो कई पीढ़ि‍यों से चला आ रहा है। ये लाेग जल से जुड़े किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए बुलाए जाते रहे हैं और इनका फैसला सब लोग मान लिया करते थे। सन 1960 के दशक तक गांवों में जल से जुड़े विवाद को यही लोग सुलझाते थे। आजादी के बाद देश में जल संबंधी वातावरण में काफी परिवर्तन हुआ। बड़े बांधों, नहरों और सिंचाई से संबंधित विभागों ने इन पारंपरिक जल प्रबंधकों की जगह ले ली। कुल मिलाकर, सिंचाई और जल प्रबंधन से जुड़े मुद्दों में सरकारी नियंत्रण और हस्तक्षेप बढ़ता गया। हालांकि, इस बीच तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और लद्दाख जैसे राज्यों में जल विवादों को सुलझाने के पारंपरिक तरीकों को फिर से पुनर्जीवित करने के प्रयास भी हो रहे हैं।

आजकल देश में पानी से संबंधित विवाद हल करने के दो ही तरीके हैं। एक तरीका वह है जिससे कावेरी नदी के विवाद को सुलझाया जा रहा है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के लिए कावेरी समस्याओं और विवादों की नदी बन गई है। उनका शायद एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता होगा जब दोनों कावेरी नदी पर अपने राज्यों के अधिकार को लेकर चिंतित न हुए हों। दोनों राज्यों के लिए यह चार दशक पुराना संघर्ष है। समस्या जल के प्रवाह जैसी ही प्राकृतिक है। तमिलनाडु, जहां नदी का जल कर्नाटक के बाद आता है, का मानना है कि कर्नाटक में जल के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए नियम बनाया जाना चाहिए। इसके जवाब में कर्नाटक का कहना है कि नदी चूंकि पहले कर्नाटक से गुजरती है इसलिए इसके जल पर उनका हक ज्यादा है। यह विवाद इतना गंभीर है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की नजर हमेशा इस पर बनी रहती है। केंद्र और राज्य सरकार के करीब 300 अधिकारी इस विवाद को सुलझाने में लगे हैं। कुछ साल पहले एक सरकारी अधिकारी ने कहा था, “हम नदी के बहाव को देखते हुए राज्यों की जगह तो बदल नहीं सकते!”

जब सरकारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं तो जल विवादों को सुलझाने के लिए हमें पारंपरिक जल प्रबंधकों की तरफ रुख करना चाहिए। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जलवार्ता पर काफी लिखा जा रहा है। लेकिन एक विशेष ज्ञान अभी तक हमें उपलब्ध नहीं है। वह है जल विवादों के समाधान का पारंपरिक ज्ञान। इसलिए अब हमें परंपरागत जल प्रबंधकों के अनुभवों को जानने-समझने की आवश्यकता है। शायद यह अनुभव नदियों पर हो रहे विवादों को हल करने में कारगर साबित हो सके।

जल विवाद सुलझाने के पारंपरिक तरीकों और अलिखित नियमों को आधुनिक कानून की कसौटी पर परखा जाना चाहिए। इससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीके मूलतः चार सिद्धांतों पर आधारित हैं। ये सिद्धांत जल विवादों के समाधान के प्रयासों में संजीवनी साबित हो सकते हैं। इनके मुख्य सबक हैं-
पानी का बंटवारा समय के आधार पर हो, न कि मात्रा के आधार पर: जल प्रबंधन के इस सिद्धांत के अनुसार, पानी का बंटवारा मात्रा के हिसाब से न होकर समय के हिसाब से होता है। जिससे लोग पानी का इस्तेमाल अपनी जरूरत के हिसाब से काफी सोच-समझकर करने लगते हैं। यानी इस तरीका समुदाय को कुशल जल प्रबंधक बना देता है। ऐसा करने के लिए बांध या जलाशय बनाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। जबकि आजकल के जल समझौते पानी की मात्रा के आधार पर होते हैं। ऐसे में तब कठिन स्थिति पैदा हो जाती है जब नदी में पानी नहीं होता लेकिन समझौते के हिसाब से कोई राज्य अपने हिस्से के पानी की मांग करने लगता है। ऐसे में यय मांग अपने आप में विवाद का एक कारण बन जाती है।

जल बंटवारे से पहले स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं का निर्धारण: यह तरीका जल संकट के समय उपयोगी साबित हो सकता है। इस सिद्धांत के तहत पारंपरिक जल प्रबंधक पानी की कुल उपलब्धता और मांग का अनुमान लगाते थे। उसी के मुताबिक वे ग्राम सभा में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता के आधार पर फसल पद्धति में परिवर्तन की सलाह भी दिया करते थे। मौजूदा अंतरराज्यीय जल समझौतों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं होता जो संकट के समय इस तरह का कोई रास्ता सुझा सके।

न्यायसंगत प्रवाह और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए मजबूत तंत्र: यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। परंपरागत तरीकों में किसी भूमि को जल की उपलब्धता या आवंटन उसकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता था। इसमें ढलान में स्थित भूमि को पानी के आवंटन में प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन पानी के बंटवारे में किसी के साथ भी भेदभाव के बगैर। मौजूदा समझौतों में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है, यहां बंटवारे का आधार जल की मात्रा होता है न कि बहाव की भौगोलिक स्थिति। इसके अलावा पानी की जरूरत का कोई समकालीन मूल्यांकन न होना एक सबसे बड़ी समस्या है। इसकी वजह से भी जल के न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो पाता।

विवाद के समाधान का वैकल्पिक तंत्र: भारतीय संघीय ढांचे में जल विवाद को केवल संसदीय अनुमोदन के बाद किसी अधिकृत न्यायाधिकरण के जरिये ही सुलझाया जा सकता है। ये अदालतें काफी समय लेती हैं और निर्धारित नियमों के अनुसार ही निर्णय करती हैं। ऐसे में किसी नए विचार को अपनाने की गुंजाइश बहुत कम बचती है।

आज भी भारत में नदियों से जुड़े फैसले औपनिवेशिक काल में हुए समझौतों के आधार पर हो रहा है। ये समझौते मुख्यतः ब्रिटिश सरकार और रियासतों के बीच राजनीतिक और सैन्य जरूरतों के हिसाब से हुए थे इसलिए इनमें लचीलेपन का अभाव है। बदली हुई परिस्थितियों में ये पुराने कानून और इनसे जुड़े संस्थाएं वर्तमान चुनौतियों को सुलझाने में नाकाम साबित हो रही हैं। आजादी के बाद करीब सात दशक गुजर चुके हैं लेकिन देश में किसी भी राज्य को पानी के स्रोतों को लेकर पूरी छूट नहीं दी गई है। आजादी भी हमारी संस्थाओं को नई पहल करने की दिशा में प्रेरित नहीं कर पाई है।

ऐसी स्थिति में जब नदी जल बंटवारे को लेकर अंतरराज्यीय विवाद सुलझ नहीं रहे हैं तो यह उचित ही होगा कि हम अपने परंपरागत ज्ञान की मदद लें। वह ज्ञान जो हमने पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित किया और जिन पद्धतियों की मदद से अभी सात दशक पहले तक हम अपने जल संबंधी विवादों को सफलतापूर्वक सुलझा लिया करते थे।

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