Agriculture

प्याज: एक राजनीतिक फसल

एक जमाने में प्याज सरकारों को हिलाने की हैसियत रखता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह अपनी चमक खोती जा रही है। आखिर इसकी क्या वजह है, इसी मुद्दे से जुड़े सवालों के जवाब

 
By Jitendra
Published: Monday 17 April 2017

प्याज को राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्यों माना जाता है?

वैसे महंगाई हमेशा से चुनावी मुद्दा रही है, पर सभी फसलों में एकमात्र प्याज ही है जो सरकार गिराने का दम रखती है। इसकी बढ़ी कीमत अमीर से लेकर गरीब तक को रुलाती है। प्याज की कीमत हमेशा से राज्य एवं केंद्र सरकारों के लिए सिरदर्द बनी रही है। इसकी बढ़ी कीमत से राज्य सरकारें भी गिरी हैं। यह बहुत जल्दी चुनावी मुद्दा भी बन जाती है। इसलिए इसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील फसल माना गया है।

प्याज की बढ़ी कीमतों के कारण कब-कब सरकारें गिरी हैं?

प्याज की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के कारण पहली बार 1998 में दिल्ली की सरकार गिरी थी। फिर 2013 में दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार मुश्किल में पड़ गई थी। 2014 के विधान सभा चुनाव में दिल्ली की दीक्षित सरकार हार गई थी। 2010 में जब देश में महंगाई दर दो अंकों में थी, तो इसका मुख्य कारण प्याज की कीमतें ही थीं। इसका असर उस समय के चुनाव पर भी पड़ा था।   

प्याज की बढ़ी कीमत से किसको फायदा होता है?

प्याज की बढ़ी कीमत से किसानों को सबसे ज्यादा फायदा होता है। उनकी फसलों का मुंहमांगा दाम मिल जाता है। उसके बाद इसका फायदा व्यापारियों को मिलता है।

प्याज की कीमतों को बढ़ने से रोकने के लिए सरकार ने  क्या-क्या कदम उठाए हैं?

भजपा नीत सरकार जब 2014 में केंद्र की सत्ता में आई तो कृषि-बागवानी माल के दाम को गिरने से बचाने के लिए अगले तीन साल के लिए मूल्य स्थिरीकरण फंड (पीएसएफ) बनाया गया था। इसके तहत अगले तीन सालों के लिए (2014-17) R500 करोड़ का कार्पस फंड बनाया गया। इसके तहत केंद्र सरकार, राज्य सरकार को बिना किसी ब्याज के फंड उपलब्ध करवाती ताकि बाजार में हस्तक्षेप किया जा सके। राज्य सरकारों को इसके लिए पीएसएफ समिति को प्रस्ताव देना होता था। समिति केंद्रीय खरीद एजेंसी जैसे नाफेड, लघु कृषक व्यापार संघ आदि को भी खरीद का आदेश दे सकती थी। उत्पादन को खेत से या फिर किसान उत्पादन संगठन से ही खरीदने का प्रबंध किया गया था।

क्या इस फंड का इस्तेमाल केंद्रीय खरीद एजेंसी ने किया?

इस फंड का इस्तेमाल किसानों के खिलाफ ही किया गया। 2016 में जब प्याज की कीमत 70 पैसे प्रति किलो हो गई थी, तब केंद्रीय एजेंसी ने अपने शासनादेश के विपरीत किसानों के बजाय व्यापारियों से इसकी खरीदी की। भंडारण की उपयुक्त व्यवस्था नहीं होने के कारण एजेंसी ने सारी खरीद को उन्हीं व्यापारियों को बेच डाला जहां किसान बेच रहे थे। इससे किसानों की प्रतिस्पर्धा उन्हीं व्यापारियों से हो गई।

इस फंड को राज्य सरकारों ने क्यों नहीं इस्तेमाल किया?

पंजाब हो या बंगाल या उत्तर प्रदेश, जहां पिछले दो साल से आलू की कीमत गिरने के बावजूद राज्य सरकार ने इस फंड का इस्तेमाल नहीं किया। महाराष्ट्र में जहां प्याज की कीमतें लगातार तीन सालों से गिर रही हैं, वहां भी राज्य सरकार ने इस फंड का इस्तेमाल नहीं किया। इस फंड के तहत जितना धन केंद्र से राज्य सरकारों को मिलेगा उतना ही राज्य सरकार को भी मिलाना पड़ेगा। लेकिन कोई भी राज्य सरकार अपनी जेब से धन मिलाने को तैयार नहीं थी।

फिर इस फंड का क्या हुआ?

केंद्र सरकार ने इस फंड का इस्तेमाल 2016 में दाल खरीदने में किया। 

अब सरकारें क्यों नहीं गिरती हैं?

राजनीतिक पार्टियां अब प्याज के दाम बढ़ाने के बजाये उसे गिरा देती है। पिछले तीन सालों से यही हो रहा है। इससे प्याज की राजनीतिक हैसियत कम हो गई है। प्याज की कीमत गिरने से किसान भी आत्महत्याएं करने लगे हैं। पिछले तीन सालों से प्याज किसान को सही दाम नहीं मिलने के बाद भी राज्य सरकारों पर इसका असर नहीं पड़ा। उदाहरण के लिए, फरवरी में महाराष्ट्र में नगर निगम और नगरपालिका चुनाव में राज्य सरकार को भारी बहुमत का मिलना। हालांकि विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नाशिक में किसानों का मुद्दा उठाया था, पर इसका भी कोई खास असर नहीं हुआ।      

देश में प्याज के उत्पादन की स्थिति क्या है?

विश्व में चीन के बाद भारत प्याज का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। पिछले 13 वर्षों में भारत में प्याज के उत्पादन में पांच गुना बढ़ोत्तरी हुई है। 2002 में इसका उत्पादन 4.5 मिलियन टन होता था, जो 2015-16 में बढ़कर लगभग 21 मिलियन टन हो गया। प्याज की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 4 किलो से बढ़कर 13 किलो हो गई है। कर्नाटक और महाराष्ट्र मिलकर पूरे देश की लगभग 45 प्रतिशत प्याज का उत्पादित करते हैं।   

प्याज की कीमतें क्यों गिर रही हैं?

कई वर्षों से प्याज के बढ़ते उत्पादन के मुकाबले इसके भंडारण की पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण काफी मात्रा में प्याज बर्बाद हो जाती  है। कृषि संरचना के निर्माण के बजाय सरकार आयात पर ज्यादा जोर देती है। प्याज के क्षेत्रफल और उसके उत्पादन का पूर्वानुमान नहीं किया जा रहा है, जिससे कि बाजार में समयानुसार सूचना मिल सके और आयात और निर्यात का निर्णय लिया जा सके। व्यापारियों की मिलीभगत से भी कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव देखा जाता है।

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