पोल्ट्री फार्मों में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल न केवल मुर्गियों को बीमारियों से बचाने बल्कि वजन बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। इससे एंटीबायोटिक रजिस्टेंट बैक्टीरिया का उभार हो रहा है।
हरियाणा के कावी गांव के किसान चांद सिंह कहते हैं कि वह नियमित रूप से मुर्गियों को एनरोसिन और कोलिस्टिन नामक एंटीबायोटिक्स देते हैं। कावी से करीब 150 किलोमीटर दूर सांपका गांव के एक अन्य किसान रामचंदर भी बताते हैं कि वह सिप्रोफ्लोक्सिसिन और एनरोफ्लोक्सिसिन एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करते हैं। बिना रोकटोक एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से एंटीबायोटिक रजिस्टेंट (एबीआर) बैक्टीरिया का उभार हो रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह बैक्टीरिया एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर मरता नहीं है यानी बीमारी का इलाज नहीं हो पाता। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) का ताजा अध्ययन बताता है कि पोल्ट्री फार्मों में उच्च स्तरीय एबीआर पाई गई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, फार्म से निकले अशोधित कचरे का प्रयोग खेती में करने के कारण एबीआर पोल्ट्री फार्मों से बाहर भी फैल रहा है। सीएसई के उपमहानिदेशक चंद्र भूषण का कहना है कि जहां एक ओर पोल्ट्री फार्म में एंटीबायोटिक का गलत इस्तेमाल हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ कचरे का प्रबंधन भी ठीक नहीं है। इन दो कारणों से पोल्ट्री फार्मों और उसके बाहर एबीआर फैल रहा है। उन्होंने बताया कि पर्यावरण में एबीआर का स्तर जानने के लिए यह अध्ययन किया।
अध्ययन के नतीजे सरकार के लिए खतरे की घंटी हो सकते हैं क्योंकि भारत में इस वक्त एबीआर को सीमित करने के लिए पर्याप्त कानून नहीं हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से पोल्ट्री अपशिष्ट प्रबंधन के लिए जारी निर्देश भी एबीआर की समस्या रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पहले भी शोध एंटीबायोटिक के गलत इस्तेमाल के साथ एबीआर के फैलाव की बात कह चुके हैं। फिर भी सरकार का इस तरफ ध्यान नहीं गया।
2014 में सीएसई के अध्ययन में भी चिकन मीट के नमूनों में बहुत से एंटीबायोटिक जैसे फ्लूरोक्यूनोलोंस (एनरोफ्लोक्सिसिन और सिप्रोफ्लोक्सिसिन) और टेट्रासाइक्लिन (ऑक्सीटेट्रासाइक्लिन, क्लोरोटेट्रासाइक्लिन, डॉक्सीसाइक्लिन) पाए गए थे।
हालिया अध्ययन में नमूने पोल्ट्री मीट उत्पादक चार अहम राज्यों-उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के बॉयलर फार्म से एकत्रित किए गए। सीएसई के शोधकर्ताओं ने कुल 47 नमूने एकत्रित किए। 35 नमूने 12 पोल्ट्री फार्मों और 12 नमूने उन क्षेत्रों की मिट्टी से लिए गए जहां पोल्ट्री के अपशिष्ट का खाद के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था। नमूनों के लिए उन गांवों का चयन किया गया जहां कम से कम तीन पोल्ट्री फार्म थे और इनमें 3,000 से 21,000 पक्षियों को पाला जा रहा था। इन पोल्ट्री फार्मों में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल किया जा रहा था। सीएसई की प्रदूषण निगरानी लैब ने हर पोल्ट्री फार्म से 3 तरह के नमूने एकत्रित किए-फार्म के शेड से, बाहर मिट्टी से और फार्म के बाहर कृषि भूमि से। जयपुर की बस्ती में कृषि भूमि से नमूने नहीं लिए जा सके।
टीम ने 3 बैक्टीरिया- एस्चेरिकिया कोलाई (ई कोलाई), क्लेबसिएला निमोनिये (के निमोनिये) और स्टेफाइलोकोकस लेंटस (एस लेंटस) की पहचान की। ई कोलाई और के निमोनिये दिमागी बुखार, पेशाब में संक्रमण और निमोनिया के लिए जिम्मेदार होते हैं।
इन बैक्टीरिया पर पोल्ट्री फार्मों में ज्यादातर इस्तेमाल किए जाने वाली 13 श्रेणियों की 16 एंटीबायोटिक का परीक्षण किया गया। इनमें से 10 एंटीबायोटिक को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मनुष्यों के इलाज के लिए गंभीर महत्व की श्रेणी में रखा है।
प्रतिरोध की अधिकता
सीएसई के शोध में न सिर्फ पोल्ट्री फार्म के अपशिष्ट में एबीआर बैक्टीरिया की भारी मात्रा पाई गई बल्कि फार्म की मिट्टी एवं उसके आसपास की कृषि भूमि में भी ऐसा ही देखने को मिला। ई. कोलाई के 62 नमूने मल्टी ड्रग रजिस्टेंट थे। हर छठा ई कोलाई नमूना परीक्षण के लिए प्रयोग में लाए गए 13 में से 12 एंटीबायोटिक प्रतिरोधी था। यहां तक कि दो ई कोलाई के नमूनों में 13 एंटीबायोटिक के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता थी। ठीक इसी प्रकार, के निमोनिये के 92 प्रतिशत नमूने मल्टी ड्रग रजिस्टेंट पाए गए। 30 प्रतिशत जीवाणु कम से कम दस एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता रखते थे और 10 प्रतिशत के आसपास ऐसे भी थे जिन पर किसी दवा का असर नहीं हुआ। एस लेंटस की बात करें तो इसके 78 प्रतिशत नमूने मल्टी ड्रग रजिस्टेंट थे और एक चौथाई नमूनों के विरुद्ध तो कम से कम आठ एंटीबायोटिक बेअसर थे। कुल मिलाकर एंटीबायोटिक रजिस्टेंस ई कोलाई में सबसे ज्यादा पाई गई। इस शोध से यह साफ हो गया है कि पोल्ट्री फार्म एबीआर के भंडार हैं। चिंता की बात यह है कि यह ड्रग रजिस्टेंस पोल्ट्री फार्म से निकलकर आसपास भी फैल रही है (देखें गलत अभ्यास)।
इस अध्ययन से यह पता चला है कि मिट्टी की उवर्रता बढ़ाने के लिए जिस अपशिष्ट को खाद की तरह प्रयोग किया जा रहा था उससे भी ड्रग रजिस्टेंस फैल रहा था। उदाहरण के तौर पर, दोनों स्रोतों से प्राप्त ई कोलाई के 100 प्रतिशत नमूने मेरोपेनेम के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता से लैस पाए गए। यहां बताते चलें कि मेरोपेनेम एक एंटीबायोटिक है जिसका प्रयोग अस्पतालों में जीवाणु संक्रमण की चरम अवस्था में किया जाता है।
अपशिष्ट एवं कृषि-योग्य भूमि से प्राप्त किए गए ई कोलाई के नमूनों में पेनिसिलिंस, फ्लोरोक्विनोलोंस और तीसरी एवं चौथी पीढ़ी के सिफेलोस्पोरिंस के विरुद्ध उच्च (>70%) प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है। इसके साथ ही पोल्ट्री फार्मों से प्राप्त मिट्टी के नमूनों में ई कोलाई के केवल तीन नमूने प्राप्त हुए। इन दोनों तथ्यों से यह बात खुलकर सामने आती है कि पूर्णतया अनुपचारित पोल्ट्री फार्म से निकला अपशिष्ट खेतों में खाद के तौर पर धड़ल्ले से प्रयोग में लाया जा रहा था। के निमोनिये के जो नमूने फार्म अपशिष्ट से लिये गए वे पेनिसिलिंस, फ्लोरोक्विनोलोंस, कारबापेनेम्स एवं तीसरी और चौथी पीढ़ी के सिफेलोस्पोरिन के खिलाफ उच्च प्रतिरोधी क्षमता रखते थे। बैक्टीरिया के लगभग 90 प्रतिशत नमूने जो अपशिष्ट और खेती की जमीन से लिए गए थे वे अमोक्सिक्लेव नामक एंटीबायोटिक के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता रखते थे। ठीक उसी प्रकार, एस लेंटस के मामले में भी सारे प्राप्त नमूने दो खास एंटीबायोटिक के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता रखते पाए गए।
मिट्टी के नियंत्रित नमूनों में ई कोलाई नहीं पाया गया, के निमोनिये के कुछ ही नमूने मिले और एस लेंटस सबसे ज्यादा पाया गया। इस अध्ययन से यह साफ तौर पर प्रमाणित होता है कि कम से कम ई कोलाई के मामले में मल्टी ड्रग रजिस्टेंट पोल्ट्री फार्म से निकलकर खेतों खलिहानों को अपनी जद में ले रहा है। के निमोनिये एवं एस लेंटस के व्यवहार एवं कार्यप्रणाली को समझने के लिए गहन शोध की जरूरत है।
प्रत्यक्ष प्रभाव
सीएसई द्वारा किये गए अध्ययन से प्राप्त हुए आंकड़े जमीनी सच्चाई को बयान कर रहे हैं। इस अध्ययन के अंतर्गत आनेवाले हरियाणा के जिले जींद में कार्यरत एक सरकारी पशु-चिकित्सक की मानें तो उन्होंने एनरोफ्लोक्सिसिन (जो कि फ्लोरोक्विनोलोन वर्ग का एंटीबायोटिक है) का प्रयोग बंद कर दिया है क्योंकि यह दवा उस क्षेत्र में बेअसर साबित हो रही है। उन्होंने कहा, “अब हम नियोमाइसिन, डॉक्सीसाइक्लिन एवं लीवोफ्लॉक्सिसिन जैसे एंटीबायोटिक का प्रयोग करते हैं।” नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि पोल्ट्री फार्म में एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल इलाके में पाई गई एंटीबायोटिक रजिस्टेंस के लिए जिम्मेदार है।
चेन्नई के अपोलो अस्पताल में संक्रामक बीमारियों के परामर्शदाता डॉक्टर अब्दुल ग़फ़ूर का कहना है कि पोल्ट्री फार्मों में पैदा हो रहे प्रतिरोधक क्षमता से लैस जीवाणु किसानों एवं गोश्त प्रबंधकों को सीधी तौर पर संक्रमित कर सकते हैं। साथ ही साथ जलाशयों एवं कृषि उत्पादों के माध्यम से भी मनुष्यों पर खतरा आ सकता है। यही नहीं, वैसे एंटीबायोटिक जिनके विरुद्ध जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी पाई गई है, उनकी प्रभावकारिता में निरंतर कमी आ रही है। ग़फ़ूर आगे कहते हैं, “पांच-दस प्रतिशत भारतीयों के शरीरों में कारबापेनेम प्रतिरोधी जीवाणु पाए जाते हैं। अस्पतालों में यह आंकड़ा बढ़कर 30 से 40 प्रतिशत तक हो जाता है। इस लगातार बढ़ती ड्रस रजिस्टेंस के फलस्वरूप कोलिस्टिन का प्रयोग आम होता जा रहा है। जीवाणुओं के विरुद्ध असरदार दवाओं की यह आखिरी पंक्ति है, इसके बाद कुछ कहा नहीं जा सकता, क्या होगा।”
इसी को मद्देनजर रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ई कोलाई और के निमोनिये को “प्राथमिक रोगाणु” घोषित करके इनके उपचार के लिए नई दवाइयां विकसित करने का संकल्प लिया है। कई शोधपत्रों ने एबीआर की लगातार बहुलता को सुस्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है जिसका एक मुख्य कारण पशुपालन उद्योग में होनेवाला एंटीबायोटिक का अंधाधुंध प्रयोग है।
नेशनल अकादेमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज द्वारा वर्ष 2010 में प्रकाशित एक नीतिपत्र में इस संस्था ने भी चेतावनी दी थी कि खाद्य पशुओं के पालन-पोषण में प्रयुक्त जीवाणुनाशक दवाएं भूमि एवं खाद्य श्रृंखला में अपनी पैठ बना रही हैं। जुलाई 2017 में एनवायरनमेंटल हेल्थ परस्पेक्टिव में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, पंजाब के 18 पोल्ट्री फार्मों में एंटीबायोटिक के प्रयोग और रजिस्टेंस में संबंध पाया गया। 18 पोल्ट्री फार्म की बॉयलर मुर्गियों से प्राप्त हुए क्लोआकल स्वैब में मल्टी ड्रग रजिस्टेंट ई कोलाई के होने की पुष्टि इस शोध ने की है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एडवाइजरी ग्रुप ऑन इंटीग्रेटेड सर्वेलेन्स ऑफ एन्टी माइक्रोबियल रेसिस्टेन्स प्रोजेक्ट इन नॉर्थ इंडिया (2014-2017) ने भी पशुओं एवं मनुष्यों से प्राप्त खाद्य-जनित जीवाणुओं के नमूनों में एबीआर की मात्रा पाई।
पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च के चिकित्सकीय माइक्रोबायोलॉजी विभाग में व्याख्याता, नीलम तनेजा का कहना है कि कुल मिलाकर, फ्लोरोक्विनोलोन, टेट्रासाइक्लिन एवं अमीनोग्लाइकोसाइड के खिलाफ उच्च प्रतिरोधक क्षमता के संकेत मिले हैं। ऐसी आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि मुर्गीपालन के क्षेत्र में एंटीबायोटिक के निरंतर बढ़ते प्रयोग के फलस्वरूप प्रतिरोधी जीनों का एक भंडार बन रहा है और यह प्रतिरोध अन्य रोगाणुओं में भी स्थानांतरित हो रहा है। इस प्रक्रिया को “होरिजोंटल जीन ट्रांसफर” का नाम दिया गया है।
अपलाइड एंड एनवायरनमेंटल माइक्रोबायोलॉजी नामक पत्रिका में अगस्त 2017 में प्रकाशित हुए एक अध्ययन ने भी भूमि में जीवाणुनाशक प्रतिरोधी जीनों के मिलने की बात की है। अध्ययन में शामिल भूमि करीब सोलह वर्षों से मानवीय एवं पशुपालन में प्रयुक्त होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के संपर्क में थी। इस भयावह संकेत के बावजूद एंटीबायोटिक का प्रयोग बदस्तूर जारी है। नेशनल अकादेमी ऑफ साइंसेज ने वर्ष 2015 की अपनी कार्यवाही के दौरान एक शोधपत्र प्रस्तुत किया था जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर खाद्य पशुओं के पालन पोषण में सूक्ष्मजीवी विरोधी दवाओं के प्रयोग की समीक्षा करना था। इस पत्र की मानें तो वर्ष 2010 से 2030 के बीच भारत, ब्राजील, रशिया, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में एंटीबायोटिक एवं सूक्ष्मजीव दवाओं की खपत में 99 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभावित है। भारत एक ऐसा देश है जहां नियामक तत्वों की भारी कमी के साथ-साथ कृषि तीव्रिकरण भी अपने चरम पर है। ऐसी हालत में 2030 तक की इस अनुमानित बढ़ोतरी में भारत का बड़ा योगदान हो सकता है।
भारत में एंटीबायोटिक के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए नियमों की कमी है। इस दिशा बहुत जल्दी काम करने की जरूरत है। सीएसई का सुझाव है कि अपशिष्टों से बायोगैस और कंपोस्ट बनाई जाए। पोल्ट्री फार्मों को लाइसेंस देने से पहले यह सुनिश्चित किया जाए कि वहां यह व्यवस्था हो। सीएसई का यह भी सुझाव है कि खाद के जरिए फैली एंटीबायोटिक रजिस्टेंस को समझने के लिए शोध की और जरूरत है।
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