पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसलों को जलाने की समस्या आ गई है। इस समस्या का समाधान मुमकिन है। यह समस्या समाधान के लिए पुकार रही है।
मुझे गलत मत समझिए। कुछ रोज पहले मैंने कहा था कि इस साल ठंड में सांस लेने में आसानी होगी। इसका मतलब यह कतई नहीं था कि हमें स्वच्छ हवा मिलेगी। मेरे कहने का मतलब था कि कुछ कदम उठाए जाने के बाद प्रदूषण पिछली ठंड के मुकाबले कम होगा। अब तक प्रदूषण का स्तर इतना अधिक है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रदूषण के खिलाफ अपना गुस्सा कम कर दें या उन उपायों पर अमल न करें जो जरूरी हैं।
पिछले साल नवंबर में 53 प्रतिशत दिन गंभीर से अधिक जनस्वास्थ्य आपातकालीन स्तर के थे। दिसंबर में ऐसे 32 प्रतिशत और जनवरी में 45 प्रतिशत दिन थे। ये दिन वास्तव में खतरनाक और जहरीले थे। हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस बार ठंड में ऐसे बेहद जहरीले दिन न आएं। लेकिन हवा की गुणवत्ता अब भी बहुत खराब या गंभीर श्रेणी में है और जब तक हम जरूरी व जल्दी कदम नहीं उठाएंगे इसमें सुधार नहीं होगा।
तो क्या किया जाए? इस स्तर को कम करने के लिए क्या योजना बनाई जा सकती है? मैं जरूरी उपायों को चार श्रेणियां में वर्गीकृत करूंगी- तत्काल एवं तुरंत, दीर्घकालीन लेकिन तुरंत शुरू करने योग्य, जरूरी लेकिन अमल में लाने में मुश्किलों भरे और मुश्किल लेकिन असंभव नहीं।
तत्काल श्रेणी से शुरू करते हैं। वायु प्रदूषण के शोरशराबे के बीच हम इसे बदतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आज सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला ईंधन कर से मुक्त है जबकि स्वच्छ ईंधन के साथ ऐसा नहीं है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत प्रदूषण फैलाने वाला और जहरीला फर्नेस तेल जैसा ईंधन इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को पूर्ण रिफंड दिया जाता है। लेकिन प्राकृतिक गैस को जीएसटी से बाहर रखा गया है। इसका मतलब यह है कि अगर उद्यमी साफ हवा में अपना योगदान भी देना चाहें तो वे ऐसा नहीं कर सकते। प्राकृतिक गैस पर भारी कर लगाया गया है और रिफंड भी संभव नहीं है। ऐसे में स्वच्छ रखने का विकल्प ही कहां बचता है।
हम दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन पेट कोक (पेट्रोलियम इंडस्ट्री का एक सह-उत्पाद है, िजसमें हैवी मेटल्स के उत्सर्जन और सल्फर की अत्यधिक मात्रा होती है) का अमेरिका से आयात कर रहे हैं। अमेरिका में घरेलू प्रदूषण की चिंताओं के चलते इसका इस्तेमाल प्रतिबंधित है। लेकिन हमें अत्यधिक प्रदूषण के बावजूद इससे कोई समस्या नहीं है। चीन ने इस ईंधन का आयात बंद कर दिया है लेकिन हमने ओपन जनरल लाइसेंस के तहत इसकी इजाजत दे रखी है। तीन साल पहले हमने इस रिफाइनरी उत्पाद का 60 लाख टन आयात किया था। पिछले साल मार्च के अंत तक हमने इसमें भारी बढ़ोतरी करते हुए 140 लाख टन का आयात किया। यह हमारे घरेलू उत्पादन के बराबर है जो करीब 120-140 लाख टन है। हम इस ईंधन के भारी इस्तेमाल में चीन को भी आसानी से पछाड़ देंगे।
इस ईंधन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं और न ही इसके इस्तेमाल के लिए मानक तय किए गए हैं जिससे प्रदूषण पर रोक लगाई जा सके। इसके उलट यह ईंधन सस्ता है और जीएसटी के दायरे में है। इसलिए हैरान नहीं होनी चाहिए कि प्रदूषण हमें और बेदर्दी से मारता रहेगा।
इसके बाद दीर्घकालीन लेकिन तुरंत एजेंडा आता है। यह तथ्य है कि प्रदूषण में ऑटोमोबाइल का सबसे ज्यादा योगदान है। सबसे अहम, डीजल के उत्सर्जन में कैंसर के तत्व हैं। वर्तमान में प्रयास हो रहे हैं कि पहले उत्सर्जन मानकों और हवा की गुणवत्ता में सुधार किया जाए और फिर वाहनों पर सख्ती बरती जाए। लेकिन यह काफी नहीं है। यह तथ्य है कि भले ही हम हर वाहन से उत्सर्जन कम कर दें पर सड़क पर वाहन बढ़ते ही जाएंगे। इससे सारा प्रभाव बेकार चला जाएगा। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि भारत में अब भी बहुत से लोगों का वाहन खरीदना और उसका इस्तेमाल करना बाकी है। इसका मतलब है कि प्रदूषण निश्चित है।
इससे बचने का एक ही उपाय है कि सार्वजनिक यातायात में बड़े पैमाने पर सुधार किया जाए। लेकिन सच कहूं तो इस दिशा में कुछ नहीं हो रहा है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली ने एक भी नई बस नहीं बढ़ाई है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में इंटर-सिटी पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है। पैदल यात्रियों या साइकिल चलाने वालों के लिए सड़क बनाने के प्रयास ही नहीं हुए हैं। अंतिम छोर के लिए कोई कनेक्टिविटी नहीं है। इस दिशा में हम पूरी तरह असफल हुए हैं।
मैं जरूरी मगर लागू करने में मुश्किल श्रेणी में सड़क और निर्माण की धूल और कूड़ा जलाने को शामिल करूंगी। यह तथ्य है कि मशीनी सफाईकर्मियों के पास उस स्थिति में कोई जवाब नहीं होगा जब हर क्षण सड़क की खुदाई होगी या सड़क ही नहीं होगी। शहर की सरकारों को अपना काम एक साथ करना होगा। ठंड के महीनों में नहीं बल्कि पहले और हर समय समस्या के निदान के लिए काम करना होगा। कूड़ा जलाने के साथ भी यही है। हम अधिक चौकसी के कारण आग लगाने की कुछ घटनाओं का नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन यह तथ्य है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए शहरों में कचरा प्रबंधन का तंत्र नहीं है। अगर किसी शहर में दिल्ली जैसी कचरे डालने की जगह है तो ऐसी जगह में भी आग लग जाती है। ज्यादातर एनसीआर की तरह अगर किसी शहर में यह नहीं है तो सबसे आसान तरीका है कि कूड़े एक जगह इकट्ठा करो और उसमें आग लगा दो। हमारे कचरे को अलग-अलग और संशोधित करने के पूरे समाधान की जरूरत है। आधा अधूरा उपाय कारगर नहीं है।
अंतत: पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसलों को जलाने की समस्या आ गई है। इस समस्या का समाधान मुमकिन है। यह समस्या समाधान के लिए पुकार रही है। इसके बाद किसानों के पास पुआल के उपयोग का विकल्प उपलब्ध हो जाएगा। यहां बड़े उत्तर तलाशने की जरूरत है और उसके बाद उसे लागू करने की। फिर से कहना चाहूंगी कि छाती पीटने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमें समाधान की जरूरत है। कार्रवाई की जरूरत है। जब तक हम इन उत्तरों को लागू नहीं करेंगे, तब तक वायु प्रदूषण जाने से रहा। इनका शीघ्र समाधान नहीं है। मुश्किल समस्याओं के समाधान के लिए मुश्किलों भरे उपाय हैं।
(नोट : उच्चतम न्यायालय ने 24 अक्टूबर को यूपी, हरियाणा और राजस्थान को पेट कोक और फर्नेस तेल के इस्तेमाल पर रोक लगाने का आदेश दिया)
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.