Environment

मौसम की मार को मात देते मकान

2006 में बाड़मेर के न्यू कोटड़ा में आई बाढ़ में हजारों घर तबाह हो गए थे। इसके बाद जिन मकानों को बनाया गया वे हर मौसम के अनुकूल हैं।

 
By Ankur Paliwal
Published: Wednesday 15 November 2017
न्यू कोटड़ा स्थित घरों का आकार सिलेंडर की तरह है। इससे बाढ़ की स्थिति में पानी कोनों में जमा नहीं होता बल्कि चारों तरह बंट जाता है जिससे घर मजबूती के साथ खड़ा रहता है

जून की चिलचिलाती गर्मी में जब राजस्थान के लोग बिजली की कटौती से त्रस्त हैं तब एक जगह ऐसी भी है जहां लोग बिना कूलर और पंखों के आराम से जिंदगी गुजार रहे हैं। यह जगह है न्यू कोटड़ा जो राजस्थान के सबसे गर्म जिलों में से एक बाड़मेर से केवल 65 किमी. दूर स्थित है। परंपरागत राजस्थानी संगीतकारों मंघनीयार के इस गांव में बिजली नहीं है। यह इन घरों का शिल्प है जो इन्हें हर मौसम के अनुकूल बनता है, भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखता है। गांव के सभी 65 घर एक समान हैं जो इसे अन्य गावों से अलग करता है।  

इस गांव की स्थापना 2006 में आई भीषण बाढ़ के बाद की गई थी जिसमें बाड़मेर के कई गांवों में भारी तबाही हुई थी। इस बाढ़ से 103 लोगों की जानें गईं थीं तथा मवेशियों और फसलों को काफी नुकसान पहुंचा था। अपुष्ट रिपोर्टों के मुताबिक, बाढ़ से लगभग 5,200 मकान तबाह हुए जिनमें से अधिकांश मिट्टी से बने थे। इससे बेघर हुए लोगों ने ऊंचे टीलों और स्कूलों में शरण ली। सबसे ज्यादा वे लोग प्रभावित हुए जिनके पास फिर से अपने मकान बनाने के बहुत कम साधन उपलब्ध थे।

इन्हीं में से एक गांव था जलेला जिसे दोबारा बसाने में दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन सस्टेनेबल एनवायरमेंट एंड इकोलॉजिकल डेवलपमेंट सोसायटी (सीड्स) ने मदद की। यह संगठन आपदा से प्रभावित परिवारों के लिए काम करता है। सीड्स की मुख्य संचालन अधिकारी शिवांगी चावड़ा कहती हैं, “कई परिवार पहले से भी कठिन परिस्थितियों में फंस चुके थे जो प्रकृति के प्रकोप के कारण पैदा हुईं थीं।” इस संगठन ने जिला प्रशासन की मदद से प्रभावित गांवों में 300 मकान बनाए। जलेला को न्यू कोटड़ा के रूप में पूरी तरह पुनर्निर्मित किया गया जिसके लिए जिला प्रशासन ने भूमि उपलब्ध कराई। इस परियोजना को बाड़मेर आश्रय योजना नाम दिया गया। सीड्स ने बाढ़ से तबाह हुए जलस्रोतों के निर्माण के लिए काम किया। इसने बारिश के पानी को एकत्र करने के लिए भूमिगत कुओं को निर्माण कराया जिसमें 32,000 लीटर पानी एकत्रित किया जा सकता है।

बाड़मेर आश्रय योजना के लिए परियोजना की परिकल्पना बनाने में दो महीने का वक्त लगा। कार्यान्वयन प्रक्रिया में और चार महीने लगे तथा परियोजना पूरी होने में छ: महीने का समय लगा जिसमें 18,821,619 रुपए की लागत आई। इस मकान के निर्माण में लगभग 40,000 रुपए लगे। वित्तीय सहायता यूरोपीय कम्यूनिटी ह्यूमैनिटेरियन ऑफिस (एको) और लंदन स्थित गैर-लाभकारी  क्रिश्चियन एड से प्राप्त हुई। तकनीकी विशेषज्ञता और सामाजिक सहायता तथा संरचना के निर्माण की लागत सीड्स ने वहन की।



इस परियोजना को पूरा करने में कुछ चुनौतियां भी पेश आईं। इनमें से एक थी परियोजना को पूरा करने के लिए मिला समय। इतने कम समय में 15 गांवों में 300 मकानों का निर्माण करना वास्तव में कठिन कार्य था। बाढ़ के बाद रेत पर सामान को लाने-ले जाने में भी काफी कठिनाई सामने आई। इसके अलावा जाति व्यवस्था ने भी कुछ परेशानी खड़ी करने की कोशिश की लेकिन अंतत: परियोजना को पूरा करने में सफलता मिली।

न्यू कोटड़ा स्थित घरों का आकार सिलेंडर की तरह है। इससे बाढ़ की स्थिति में पानी कोनों में जमा नहीं होता बल्कि चारों तरह बंट जाता है जिससे घर मजबूती के साथ खड़ा रहता है। सीड्स ने मकानों के निर्माण के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया। मकान की नींव चार फुट गहरी बनाई गई जो इसकी मजबूती को और बढ़ा देती है। इसके अलावा खिड़कियों के चारों ओर बैंक उपलब्ध कराए गए हैं ताकि घर की इस सबसे कमजोर कड़ी में मजबूती आ सके।

जिन ईंटों का इस्तेमाल किया गया है उनमें बड़े-बड़े छेद हैं और उन्हें इस प्रकार रखा गया है जिससे उनके बीच थोड़ी जगह खाली बची रहे। छेदों और खाली जगह से वाष्पीकरण होता रहता है जिससे मकान में ठंडक रहती है। ईंटें ताप रोधी भी होती हैं जिससे बाहर की गर्मी को अंदर आने में अधिक समय लगता है। इन घरों की छत बांस, बाजरे के तने और स्थानीय घास, सानिया से बनी हुई है। इससे ऊष्मा को अंदर आने में और बाहर जाने में अधिक समय लगता है जिससे घर ग्रीष्मकाल में ठंडे और सर्दियों में गर्म रहते हैं। इनके दरवाजे भी अंदर की ओर नहीं बल्कि बाहर की ओर खुलते हैं ताकि आपातकालीन स्थिति में बाहर निकलने में आसानी हो।

सीड्स के वरिष्ठ प्रबंधक और इंजीनियर मिहिर जोशी का कहना है, “ये मकान लोगों को बदलती हुई जलवायु के अनुसार, खुद को ढालने में मदद कर सकते हैं।” यहां रहने वाले दायम खान भी इस बात को मानते हैं। वह कहते हैं, “यदि हमारे पास ऐसे मकान हों तो बाढ़ से होने वाली तबाही को कम करने में मदद मिलेगी।”

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