Environment

मौसम बदलने वाले बादल

प्रदूषकों से भरे बादल मौसम में बड़ा बदलाव ला सकते हैं। मौसम को प्रभावित करता करने वाला कारक एरोसॉल है।

 
By Shreeshan Venkatesh
Published: Monday 09 July 2018
फोटो : सुनील कुमार सिंह

हाल के दशकों में, मानसून के लिए भारत की उत्सुकता धीरे-धीरे चिंता में बदल चुकी है। मानसून से होने वाली मूसलाधार बारिश से भीषण गर्मी के खत्म होने की निश्चितता अब खत्म हो गई है। हर साल मानसून अपनी लीक से हटता हुआ प्रतीत हो रहा है। शोधकर्ताओं को मानसूनी बादलों की जांच करना और कठिन होते जा रहा है। सामान्य मानसून तो अब लुप्तप्राय: हो गया है। हाल ही के अन्य वर्षों की तरह, इस साल भी अब तक अपनी अनिश्चितता बनाए हुए है। हालांकि केरल में मानसून की जल्द शुरुआत की घोषणा ने कुछ उत्साह भरा लेकिन जून के दौरान इसकी प्रगति किसी भी प्रकार से उत्साहजनक नहीं रही।

भारत के पश्चिमी तट पर मानसून ने हाल के हफ्तों में बारिश की भारी दस्तक दी है। जून के दौरान अधिकांश क्षेत्र में लंबे समय तक लगातार भारी बारिश हुई है। इसमें मुंबई की हालत और इससे निपटने में सरकारी असमर्थता एक उदाहरण है। मुंबई में जून के मध्य में सामान्य से 438 प्रतिशत तक ज्यादा हुई भारी बारिश ने शहर के जनजीवन को धाराशायी कर दिया। इससे कम से कम पांच लोगों की मौत हो गई। उसी समय, वहां से लगभग 300 किलोमीटर दूर मराठवाड़ा में अभी तक(28 जून) तक मौसम की पहली बारिश का इंतजार है।

जून की शुरुआत में राज्य सरकार ने इस क्षेत्र में किसानों को बारिश के पहले चरण तक बुवाई रोकने की सलाह दी, जिसके केवल जून के आखिर में आने की उम्मीद थी। भारत के प्रमुख भू-भाग में मानसून हवाओं के पहुंचने के लगभग एक महीने बाद, देश के अधिकांश हिस्सों में मराठवाड़ा की तरह अभी तक मौसम की पहली बारिश नहीं हुई है। पश्चिमी तट और उत्तर पूर्व भारत को छोड़कर, देश बारिश की गंभीर कमी से जूझ रहा है क्योंकि तीन सप्ताह से अधिक समय के लिए इसकी प्रगति व्यावहारिक रूप से ठप हो गई है।

मौसम की जानकारी देने की नवीनतम तकनीकों और सेटेलाइट प्रौद्योगिकी की बावजूद वैज्ञानिक ऐसी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी नहीं कर पा रहे हैं। इस संबंध में आम सहमति बनती जा रही है कि मौसम की भविष्यवाणी करने की क्षमता की इस अनिश्चितता में संभवतः एक कड़ी छूट रही है और वह कड़ी है बादल। इस संबंध में पुणे के भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम संस्थान की मुख्य वैज्ञानिक तारा प्रभाकरन कहती हैं, “एक प्रकार से बादल मौसम के वाहक हैं। ये जलीय (हाइड्रोलॉजिकल) चक्रों को शुरू करते हैं तथा लगभग सभी प्रकार की तेजी के लिए जिम्मेदार होते हैं।” ये वैश्विक जलवायु प्रणाली और उनके स्थानीय स्वरूप के बीच मध्यस्थ की भूमिका भी निभाते हैं। इसके बावजूद, वैज्ञानिक इनके बारे में बहुत कम जानते हैं तथा इस बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं कि बादल किस प्रकार से मौसम को प्रभावित करते हैं। चूंकि बढ़ते हुए तापमान के साथ ही मौसम में अत्यधिक बदलाव बहुत आम बात हो गई है।

वैज्ञानिक बादलों की गुत्थी को जल्द सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। अब तक ज्यादातर वैज्ञानिक ऐरोसॉल को मुख्य बिन्दु मान रहे हैं जो बादलों के बनने और उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। और इस प्रकार मौसम को प्रभावित करता करने वाला कारक एरोसॉल है।

जटिल लगने वाले इसब्द श के अर्थ की बात करें तो एरोसॉल सूक्ष्म जैविक और अजैविक कण हैं जो लगातार वायुमंडल में आते रहते हैं। इनके वायुमंडल में आने के कारण प्राकृतिक भी हो सकते हैं, जैसे घूल, ज्वालामुखी की राख तथा पौधों द्वारा उत्सर्जित वाष्प। इसके अलावा मानव-निर्मित भी हो सकते हैं जैसे कृषि कार्यों की धूल, वाहनों से निकलने वाला धुआं, खदानों का उत्सर्जन और तापीय विद्युत संयंत्रों की निकली कालिख। यह सूक्ष्म प्रदूषक उस जगह के रूप में काम करते हैं, जहां जलवाष्प एकत्र होकर बादलों की बूंदों का निर्माण करती हैं।

तारा प्रभाकरन करती हैं, “इसी स्तर पर बादलों का मौसम पर प्रभाव दिखाई देने लगता है।” उदाहरण के लिए, एरोसॉल का प्रकार और उनकी वायुमंडल में उपस्थिति बादलों के व्यवहार के बारे में बताती है कि इनमें तेजी रहेगी या ये सौर विकिरण को वापस अंतरिक्ष में भेजेंगे या विकरणीय उष्मा को अपने में समाहित करेंगे। स्थानीय मौसम भी बादलों के व्यवहार को प्रभावित करता है।

पिछले कुछ दशकों से देशभर में बिजली गिरने की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है। बिजली गिरने से होने वाली मौतों में भी इजाफा हुआ है (फोटो : प्रवीण)

प्रदूषित वायु बारिश में बाधा डालती है

येरुशलम में हिब्रू विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर डेनियल रोजनफील्ड का कहना है, एरोसॉल की मात्रा जितनी ज्यादा होगी, बादल की बूंदें भी उतनी ही ज्यादा होंगी। किन्तु बादल की बूंदें ज्यादा होने का यह अर्थ नहीं कि बारिश भी ज्यादा होगी। डेनियल बताते हैं कि चूंकि बादलों का पानी कई सारे एरोसॉल में बंट जाता है, जिससे पानी की कई बूंदें छोटी रह जाती हैं जो बड़ी बूंदों में देरी से मिलती हैं जिसके कारण बारिश में कमी आ सकती है। अन्य शब्दों में कहें तो प्रदूषित वायु से वर्षा में कमी आ जाती है। जल संसाधन अनुसंधान में 2008 में प्रकाशित अध्ययन रोजनफील्ड के कथन का समर्थन करता है।

धूल व वर्षा का संबंध समझने के लिए वर्जीनिया विश्वविद्यालय और नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टडीज के अनुसंधानकर्ताओं ने 1996-2005 के मध्य और उत्तर अफ्रीका के सहेलियन इलाके में एरोसॉल सूचियों, वायु की दिशा और वर्षा के आंकड़ों का विश्लेषण किया। अध्ययन से पता चला कि इस इलाके के धूल के कणों के कारण बादलों में बूदों के निर्माण के लिए कई जगहें बनीं जिसने बारिश के लिए आवश्यक बड़ी बूंदों को बनने से रोक दिया। यद्यपि हल्के बादलों के लिए आमतौर पर यह सही है किन्तु रोजनफील्ड का मानना है कि प्रदूषित बादल कहीं ज्यादा विनाशक साबित हो सकते हैं।

रोजनफील्ड का कहना है कि कभी-कभी प्रदूषित बादल वायुमंडल में होने वाली प्रतिक्रियाओं के कारण अधिक ऊंचे हो जाते हैं। इस स्तर पर बादल की बूंदों के व्यवहार में बदलाव आ जाता है। बूंदें इतनी बड़ी हो जाती हैं जिससे वे बड़ी बूंदों में मिलकर बारिश के रूप में बरस सकती हैं।

दिल्ली स्थित भारतीय मौसम विभाग में क्षेत्रीय केंद्र के प्रमुख एम. मोहापात्रा का कहना है कि दुर्भाग्यवश तूफानी कहे जाने वाले इन बादलों के कारण बवंडर, ओला-वृष्टि, धूल भरी आंधी और बादल फटने की घटनाएं होती हैं। यदि बड़ी मात्रा में एरोसॉल युक्त ये तूफानी बादल जमाव स्तर से आगे बढ़ जाते हैं तो इनके कारण बादलों के ऊपरी हिस्से में बड़ी मात्रा में बर्फ बनने लगती है। बादल के भीतर लगातार व तेजी से पानी के प्रवाह और बर्फ के गोलों के कारण बड़ी मात्रा में स्थिर ऊर्जा बनती है, जिससे बिजली गिरने और बवंडर आने की घटनाएं होती हैं।

इससे यह समझा जा सकता है कि भारत के कुछ हिस्सों में बिजली गिरने के कारण मौतें इतनी आम क्यों हैं। वर्ष 2000 से लेकर अब तक 33,743 से ज्यादा लोग बिजली गिरने के कारण मारे गए हैं। हालांकि इस संबंध की पुष्टि के लिए कोई घटना विशेष का अध्ययन नहीं किया गया है, फिर भी मानचित्र पर एरोसॉल उत्सर्जन के साथ बिजली गिरने से प्रभावित इलाकों की तुलना करने से इनके बीच एक गठजोड़ नजर आता है। उत्तर और पूर्वी भारत में गंगा के मैदानी भागों, मध्य भारत और दक्कन के पठार के ऊपर एरोसॉल की मात्रा सर्वाधिक है। इन इलाकों में सर्वाधिक प्रदूषक उद्योग स्थित है। यहां पर लोग बड़ी मात्रा में जैविक और कृषि अपशिष्ट जलाते हैं। इन्हीं इलाकों से बिजली गिरने के कारण मौतें होने की सबसे ज्यादा खबरें आती हैं।

इसके अलावा, बड़े बादल ऊर्जा के प्रवाह के लिए तिरछा रास्ता बनाते हैं। मोहापात्रा कहते हैं, “इस वजह से हवाई जहाज में उड़ते समय बादलों के ऊपर से गुजरते हुए हमें कंपन महसूस होता है।” बादलों में मौजूद पानी की बूंदें और बर्फ लगातार तेजी से ऊपर नीचे होती हैं जिससे उनमें टकराव होता है जो उन्हें अत्यंत विस्फोटक और खतरनाक बना देता है। एरोसॉल इस विस्फोटक स्थिित में तेजी लाता है। मोहापात्रा बताते हैं कि केवल एक कारक की जरूरत है जिससे बादल का पूरा पानी एक ही बार में बरस जाए। इसी कारण हिमालयी इलाकों में उंचे बादलों के फटने की घटनाएं होती हैं।

स्रोतः राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो और नासा भूमि वेधशाला सेटेलाइट
*औसत एरोसॉल के आंकड़े 2010-2015 के दौरान मानसून-पूर्व और मानसून महीनों के लिए हैं (ग्राफिक: राजकुमार सिंह / सीएसई )

बवंडर के लिए जिम्मेदार

अब भी भारी बारिश तूफानी बादलों का एक दुष्प्रभाव है। इनके कारण तेज हवाएं भी चल सकती हैं। ऐसे बादल में एरोसॉल की अधिकता के कारण बारिश में रुकावट आने से उनका आकार और जीवनकाल बहुत अधिक बढ़ सकता है तथा बाद में बारिश होने पर भयंकर तूफान आ सकता है। मोहापात्रा का कहना है कि इस कारण बवंडर और धूल भरी आंधी चल सकती है। ऑस्टिन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के अनुसंधानकर्ताओं द्वारा यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बोल्डर और नासा के तेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी के साथ मिलकर हाल में किया गया अध्ययन मोहापात्रा की चिंता की पुष्टि करता है।

अनुसंधानकर्ताओं ने 2,430 बादल प्रणालियों के जियोस्टेशनरी सेटेलाइट आंकड़ों का विश्लेषण किया और यह नतीजा निकाला कि एरोसॉल की सघनता से तूफान की जीवन अवधि तीन से 24 घंटे तक बढ़ सकती है जो स्थानीय मौसम पर निर्भर करता है। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधपत्र प्रकाशित कराने वाले प्रमुख लेखक सुदीप चक्रवर्ती कहते हैं, “एरोसॉल की अधिक सघनता से बूंदों के आकार में कमी आ सकती है जिससे वर्षा में देरी हो सकती है, तथा तूफानी बादल की स्थिति में हमने देखा है कि इससे तूफान की जीवन अवधि और तीव्रता में वृद्धि होती है।” संदीप चक्रवर्ती द्वारा किया गया अध्ययन इकलौता ऐसा अध्ययन है जो बादलों के संघटन में परिवर्तन में एरोसॉल की भूमिका को दर्शाता है।

आईआईटी-दिल्ली के वायुमंडल विज्ञान केंद्र में सहायक प्रोफेसर सगनिक डे कहते हैं कि इसका कारण बादलों के संघटन के बारे में आंकड़ों का अभाव होना है। अधिक स्पष्ट और विस्तृत सेटेलाइट तस्वीरों की उपलब्धता के कारण आंकड़ों की गुणवत्ता तथा मात्रा बेहतर होने से अनुसंधानकर्ता अब बादलों के संघटन में बदलाव के कारण मौसम में होने वाले तीव्र व असामान्य बदलावों के अध्ययन में अधिक रुचि ले रहे हैं।

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