भारत में हर साल 1.20 से 1.30 लाख टन ‘पेट कोक’ बनता है। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि इसका आयात भी बढ़ता जा रहा है।
हिंदू धर्म में विनाश के देवता को सृजन के देव से अधिक शक्तिशाली माना गया है। इसमें पर्यावरण से जुड़ा एक सबक भी छिपा है। आज हम बहुत कुछ बना रहे हैं, इनमें से कई चीजें हमारे जीवन काल में नष्ट होनी संभव नहीं हैं। प्लास्टिक, कार्बन डाइऑक्साइड या ‘पेट कोक’ के बारे में सोचिए। ‘पेट कोक’ पेट्रोलियम इंडस्ट्री का एक सह-उत्पाद है, जो हैवी मेटल्स के उत्सर्जन और सल्फर की अत्यधिक मात्रा के कारण बहुत ज्यादा प्रदूषण फैलाता है।
यह ऐसा प्रदूषण है, जो एक उत्पाद से दूसरे उत्पाद में परिवर्तित होता रहता है। वर्षों से हम वाहनों के ईंधन की गुणवत्ता में सुधार करते आ रहे हैं। पेट्रोल और डीजल में सल्फर की मात्रा नब्बे के दशक में 10,000 पीपीएम थी, जो अब 50 पीपीएम है। वाहन उत्सर्जन के बीएस-4 मानकों को पूरा करने के लिए रिफाइनरी सल्फर को 10 पीपीएम या इससे भी नीचे ले आएंगी। एक बार ऐसा हो जाए तो वायु प्रदूषण की समस्या दूर हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है!
दरअसल जो सल्फर ईंधन से हटाया जाता है, वह आखिरकार ‘पेट कोक’ जैसे अपशिष्ट उत्पादों में पहुंच जाता है। हमारे यहां ‘पेट कोक’ की गुणवत्ता को लेकर कोई नियम-कायदे नहीं हैं। जबकि इसमें सल्फर का स्तर 65,000 से 75,000 पीपीएम के बीच होता है। इसके जलने से हवा में बहुत ज्यादा प्रदूषण फैलाता है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि प्रदूषण वाहनों से न होकर यह चिमनियां से निकलता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि पेट्रोलियम के इस सह-उत्पाद का क्या किया जाए। सबसे बेहतर तो यही होगा कि इसके इस्तेमाल का ऐसा तरीका निकाला जाए, जिससे प्रदूषण न फैले। लेकिन इसके लिए पहले कोई नीति बननी चाहिए। फिलहाल यह एक ‘ब्लैक होल’ की तरह है।
भारत में हर साल 1.20 से 1.30 लाख टन ‘पेट कोक’ बनता है। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि इसका आयात भी बढ़ता जा रहा है। चालू वित्त वर्ष में नवंबर तक हम एक करोड़ टन ‘पेट कोक’ का आयात कर चुके हैं, जो तकरीबन पिछले साल के कुल आयात के बराबर है। इस हिसाब से साल के आखिर तक देश में ‘पेट कोक’ आयात तीन करोड़ टन तक पहुंच सकता है। यह साल 2014 में चीन में हुई पेट कोक की सर्वाधिक खपत के बराबर है।
आश्चर्य नहीं है कि आज भारत केवल प्रदूषण के मामले में ही चीन से होड़ ले रहा है। ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि वायु प्रदूषण ही नहीं बल्कि इससे होने वाली सालाना करीब 10 लाख असमय मौतों के मामले में भी हम चीन को टक्कर दे रहे हैं। इससे भी बदतर बात यह है कि चीन ने प्रदूषण पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया है। वहां प्रदूषण से होने वाले मौतों में वृद्धि धीमी पड़ने लगी है, जबकि भारत में यह संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। चीन और भारत में यह बड़ा अंतर है।
सन 2014 में, चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग ने प्रदूषण के खिलाफ मुहिम छेड़ दी थी। चीन ने कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों में कमी के लिए लक्ष्य निर्धारित किए और अब ‘पेट कोक’ का इस्तेमाल घटाने पर जोर दे रहा है। विश्व व्यापार के रुझानों से भी यह स्पष्ट है। बीजिंग स्थित ‘कार्नेगी-सिंगुआ सेंटर फॉर ग्लोबल पॉलिसी’ का साल 2015 में प्रकािशत एक पेपर बताता है कि चीन, अमेरिका से सर्वाधिक ‘पेट कोक’ आयात करने वाला देश था। वर्ष 2013 में, अमेरिका का 75 फीसदी ‘पेट कोक’ चीन को निर्यात होता था, जिसकी मात्रा 70 लाख टन थी।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका के पास दुनिया में सबसे ज्यादा तेल शोधन की क्षमता है। हर साल उसे भारी मात्रा में ‘पेट कोक’ का निस्तारण करना पड़ता है। यह मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, क्योंकि अब वहां कैनेडियन टार जैसे भारी खनिज तेलों का अधिक से अधिक शोधन होने लगा है। इससे ज्यादा पेट कोक निकलता है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ‘कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन’ को भी मंजूरी दे दी है, जिससे अमेरिका में रिफाइनिंग के लिए अधिक मात्रा में टार सेंड्स ऑयल पहुंचेगा। मतलब, और ज्यादा ‘पेट कोक’ निकलेगा जो विश्व बाजार में बेचा जाना है।
हालांकि, ‘पेट कोक’ से फैलने वाले प्रदूषण को लेकर अमेरिका काफी चिंतित है। वहां की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने इसके भंडारण के लिए नियम अनिवार्य कर दिए हैं। अमेरिका अपेक्षाकृत साफ-सुथरी प्राकृतिक और शेल गैस की तरफ बढ़ रहा है। इसलिए उसे अपना गंदा ईंधन अन्य देशों में डंप करना पड़ेगा। उधर, चीन भी अपनी आबोहवा को लेकर सतर्क हो रहा है, इसलिए इस मैले ईंधन के अब हम ही ग्राहक हैं। हम दुनिया का सबसे गंदा ईंधन खरीद रहे हैं, मानो वायु प्रदूषण की हमें कोई परवाह नहीं!
फिर क्या किया जाए? सबसे पहले, हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि हम अपने घरेलू ‘पेट कोक’ का ही उपयोग करें, न कि अमेरिका की तरह इसे दूसरों पर थोपने लगें। इसके लिए सस्ते ‘पेट कोक’ के आयात को बंद करना होगा। दूसरा, घरेलू ‘पेट कोक’ का इस्तेमाल केवल ऐसे उद्योगों में हो, जहां उत्सर्जन को नियंत्रित किया जा सके।
महत्वपूर्ण बात यह है कि चक्रीय अर्थव्यवस्था में उत्पाद खत्म नहीं होते, बल्कि समझदारी से उनका पुन: प्रयोग करना होता है। इसलिए बहुत सूझबूझ से काम लेना होगा। हमें दुनिया का कूड़ादान नहीं बनना है। हम खुद ही अपने कचरे के बोझ से दबे और मरे जा रहे हैं।
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