केरल में जो हुआ वह पूरी दुनिया में हो रहा है। यह एक असहज करने वाला तथ्य है कि हमारे पास बदलते मौसम से निपटने की कोई योजना नहीं है
भगवान के देश का खयाल आने पर खूबसूरत और उदार केरल की तस्वीर उभरती है। यह पहाड़ों, नदियों, धान के खेतों वाला समुद्री क्षेत्र है। अब जरा ऐसी दुनिया में इस देश का खयाल जेहन में लाइए जो टिकाऊ नहीं है और जहां जलवायु परिवर्तन बेहद खतरनाक है। अगस्त में उफान मारती नदियों ने केरल को डुबा दिया। इसे फिर से खड़ा करने की लागत राज्य के पुनर्निर्माण जितनी होगी। यह बर्बादी इसलिए हुई क्योंकि यहां जमीन पर रहने वाले बाशिंदों ने पर्यावरण को बचाने की परवाह नहीं की। इसने जलवायु परिवर्तन के दौर में हालत बदतर बना दिए।
वन क्षेत्र में स्थित पश्चिमी घाट में 61 बांध हैं जो यहां की जल निकासी के मुख्य अंग हैं। ये बांध मुख्य रूप से बिजली उत्पादन के लिए हैं जो वर्षा जल का संचयन भी करते हैं। इस बार बारिश इतनी निरंतर थी कि अतिशय शब्द को भी पुन: परिभाषित करना पड़ेगा। केरल में 20 दिन में 771 एमएम बारिश हुई। इस बारिश का 75 प्रतिशत हिस्सा महज 8 दिन में बरस गया। चिंताजनक बात यह भी है कि बारिश उन इलाकों में अधिक थी जहां वन क्षेत्र अधिक है। आमतौर पर अधिक बारिश तटीय इलाकों में होती है। इस बारिश का नतीजा यह निकाला कि पहाड़ भसक गए जिससे भूस्खलन और जानमाल को क्षति पहुंची। चिंताजनक पहलू यह भी है कि उन 29 बांधों के फाटक खोले गए जो भर चुके थे और जिन पर टूटने का खतरा मंडरा रहा था। केरल के सबसे बड़े बांधों में शामिल इडुकी बांध के फाटक भी 26 साल में पहली बार खुले। बांध बनने के बाद ऐसा केवल तीन बार हुआ है।
यह तथ्य है कि जुलाई के अंत या कहें मॉनसून के मध्य तक जलाशय लगभग पूरे भर चुके थे। बारिश की अनिश्चितता के कारण बांध प्रबंधक अधिक से अधिक पानी का भंडारण कर लेना चाहते थे। उन्होंने रुक रुककर पानी नहीं छोड़ा और न ही मौसम के खत्म होने का इंतजार किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके पास सूचना और यह भरोसा नहीं था कि बिजली निर्माण के लिए पर्याप्त पानी का भंडारण हो जाएगा। इसने आपदा को कई गुणा बढ़ा दिया। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि केरल की बाढ़ “मानव निर्मित” है। केरल में जो हुआ वह पूरी दुनिया में हो रहा है। यह एक असहज करने वाला तथ्य है कि हमारे पास बदलते मौसम से निपटने की कोई योजना नहीं है। मॉनसून की अनिश्चितता का सामने करने के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं है।
केरल की आपदा इस तरह की घटनाओं को बढ़ाने वाले वैश्विक उत्सर्जन को रोकने में हमारी सामूहिक विफलता का नतीजा है। यह संसाधनों के कुप्रबंधन का भी नतीजा है। उदाहरण के लिए केरल ने जंगल से लेकर खेतों, तालाबों और नदियों तक के अपने जल निकासी तंत्र को बर्बाद कर दिया जो अतिरिक्त पानी का भंडारण और रीचार्ज करते थे। यह उन तकनीकी एजेंसियों के नकारेपन का भी नतीजा है जो बाढ़ नियंत्रण और बांध प्रबंधन की योजनाएं बनाती हैं। इसीलिए यह “मानव निर्मित” है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि यह “न्यू नॉर्मल” है। हम यह मान लेते हैं कि यह अनोखी घटना भर है। हम मान लेते हैं कि यह 100 साल में एक बार होने वाली घटना है जिस पर हमारा कोई जोर नहीं है। यहां वास्तविकता को समझने की जरूरत है, लेकिन मात्र शाब्दिक रूप में नहीं बल्कि अभ्यास रूप में। केरल का पुनर्निर्माण होने जा रहा है।
राज्य दोबारा वही गलतियां नहीं दोहरा सकता। पुनर्निर्माण “न्यू नॉर्मल” को ध्यान में रखकर करना होगा। जल निकासी की योजनाओं पर काम करने ही जरूरत है। हर नदी, नाले, तालाब और खेतों की मैपिंग की जानी चाहिए और हर कीमत पर इनकी रक्षा की जानी चाहिए। हर घर, संस्थान, गांव और शहर को वर्षा जल का संचय करना ही होगा ताकि बारिश को दिशा दी जा सके और पानी रीचार्ज हो सके। जंगल के पारिस्थितिक तंत्र का उन नीतियों से प्रबंधन किया जाए जो लोगों के हित में हों। मिट्टी के संरक्षण के लिए पौधारोपण के क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन हो।
सबसे जरूरी है कि यह भी स्वीकार किया जाए कि जलवायु परिवर्तन के युग में ये तमाम उपाय पर्याप्त नहीं हैं। इसलिए सरकार को योजनाओं में परिवर्तनशीलता लानी होगी। पूर्वानुमान और तकनीकी दक्षता में सुधार इसमें शामिल करने होंगे। अगर जुलाई से पहले बारिश की पूर्व सूचना दे दी जाती तो प्रलय से बचा जा सकता था। तब बांधों से धीरे-धीरे पानी छोड़ा जा सकता था और अतिशय बारिश के वक्त पानी के भंडारण के लिए जगह बनाई जा सकती थी।
सवाल यह है कि भविष्य में इस तरह के प्रलय से बचने के लिए क्या किया जाए। मौसम विज्ञान से लेकर जल एवं बाढ़ प्रबंधन संस्थानों जैसी तकनीकी एजेंसियों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। अब चलताऊ आचरण नहीं चलेगा क्योंकि पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है।
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