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मौत की मांग

मुआवजे के लिए 35 साल से संघर्ष कर रहा है एक गांव। ग्रामीणों का सरकार से संघर्ष चल रहा है। जीवनयापन के उनके अधिकारों का रोज हनन हो रहा है।

 
By Ranjan Panda
Published: Tuesday 15 August 2017
दारलीपाली चारों तरफ से एमसीएल की खदानों से घिरा है। इनसे हर साल 28.35 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होता है। ओडिसा के कुल उत्पादन का एक तिहाई कोयला महानदी बेसिन में ही है। अस्सी के दशक में एमसीएल ने दारलीपाली गांव में खुदाई शुरू की थी। इसके बाद ग्रामीणों का संघर्ष शुरू हो गया

समारी रोहिदास करीब 75 साल की हो चुकी हैं। पिछले 3 साल से वह रोज दारलीपाली गांव के अपने टोले में पानी के टैंकर का इंतजार करती हैं ताकि परिवार के लिए पानी का इंतजाम कर सकें। यहां महानदी कोलफील्ड लिमिटेड (एमसीएल) एक ठेकेदार के जरिए पानी की सप्लाई कराता है। चाहे शरीर झुलसाने वाली गर्मी हो या भारी बरसात, समारी किसी भी दिन अनुपस्थित नहीं होतीं। बीमार होने पर भी टैंकर का इंतजार करती हैं। उनके गांव के 85 परिवार हैं जो प्रदूषण के कारण अक्सर बीमार रहते हैं। इन परिवारों में अधिकांश दलित और आदिवासी हैं। गर्मियों में कई बार यहां का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।

खनन के कारण भूमिगत जलस्तर काफी नीचे गिर गया है। नलकूप सूख चुके हैं। अब यहां पानी का एकमात्र सहारा टैंकर ही हैं

गांव में एमसीएल की तीन खदानें हैं। इनसे हर साल 28.35 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होता है। ओडिसा के कुल उत्पादन का एक तिहाई कोयला महानदी बेसिन में ही है। देश में कोयले के कुल उत्पादन का एक चौथाई ओडिशा से आता है।

अस्सी के दशक में एमसीएल ने दारलीपाली गांव में खुदाई शुरू की। इसके बाद समारी और अन्य ग्रामीणों का संघर्ष शुरू हो गया। उस समय वह जवान थीं, अब वह जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। जीवन उसके लिए बोझ हो गया है। कोयला कानून के प्रावधानों के तहत उनके खेत अधिग्रहित कर लिए गए हैं। उनके खेत अब खदानों में धूल और प्रदूषण फांक रहे हैं। उन्हें उचित मुआवजा भी नहीं मिला।

अस्सी के दशक में यहां 260 परिवार रहते थे। अब यहां 85 परिवार ही बचे हैं। कुछ परिवार पुनर्वास स्थल पर बस गए, कुछ को नौकरी मिल गई, कुछ यहां वहां चले गए लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो अपने घर में जमे हुए हैं और उचित मुआवजे और पुनर्वास की जिद पर अड़े हैं। इसके लिए उनका सरकार से संघर्ष चल रहा है। जीवनयापन के उनके अधिकारों का रोज हनन हो रहा है।  

गांव के 85 परिवार हैं जो प्रदूषण के कारण अक्सर बीमार रहते हैं। इन परिवारों में अधिकांश दलित और आदिवासी हैं। यहां गर्मियों में कई बार तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। ऐसी गर्मी में महिलाओं को टैंकर से पानी ढोना पड़ता है। अपनी इन्हीं तकलीफों को बयां करती गांव की यह महिला (फोटो : रंजन के पांडा)

1983 में अधिग्रहण के बाद से ग्रामीण मदद के लिए तमाम अधिकारियों के अलावा हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं। ठीक ठाक पुनर्वास, नियमित नौकरी और जमीन के उचित दाम के उन्हें सैकड़ों आश्वासन मिले। सांसद, विधायक, जिला कलेक्टर और आला अधिकारियों तक वे मदद की गुहार लगा चुके हैं। उनकी एक ही अपील है-उचित मुआवजे के साथ पुनर्वास।

शुरू में वे पुनर्वासित नहीं होना चाहते थे लेकिन बाद में उन्होंने महसूस किया कि वे सरकार समर्थित ताकतवर कंपनी से नहीं लड़ सकते। अब वे पुनर्वास की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार अब इसके लिए तैयार नहीं है। सरकार ताजा नियमों के मुताबिक, मुआवजा नहीं देना चाहती। जिला प्रशासन और खदान कंपनी ग्रामीणों के साथ सैकड़ों बैठक कर चुके हैं लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।

खनन ने ग्रामीणों के जंगल और खेत उजाड़ दिए हैं।  वाहनों की आवाजाही से यहां अक्सर धूल उड़ती रहती है

ग्रामीण गोविंद बाग कहते हैं कि खनन ने ग्रामीणों के जंगल और खेत उजाड़ दिए हैं और एक सदानीरा नदी फुलीजोर नाला को भी निगल गई है। इसके अलावा दूसरी नदी लीलारी नाला भी खनन से प्रदूषित हो गई है। घरेलू कामों में इस्तेमाल होने वाले तालाब जैसे जलस्रोत भी खनन ने छीन लिए हैं। उन्होंने बताया कि जो खेत बचे हैं वे प्रदूषण के चलते उपयोगी नहीं रह गए हैं।

कुछ साल पहले तक लीलारी नाला के पानी का इस्तेमाल पीने के लिए होता था। गर्मियों में इसके किनारे छोटे कुए बनाकर लोग पानी निकालते थे। कुछ लोग ऐसा अब भी करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि टैंकर के पानी से खाना ठीक से नहीं पकता। टैंकर से पानी की सप्लाई भी तीन साल पहले शुरू हुई है। इसके लिए भी धरना प्रदर्शन, सड़क जाम और अधिकारियों के यहां अर्जियां देनी पड़ीं। इस साल मई में लंबे विरोध के बाद सरकार गांव में तीन टैंकर भेजने के लिए राजी हुई।

कुछ साल पहले तक लीलारी नाला के पानी का इस्तेमाल पीने के लिए होता था। यह अब प्रदूषित हो चुका है। गर्मियों में इसके किनारे छोटे कुए बनाकर लोग पानी निकालते थे। कुछ लोग ऐसा अब भी करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि टैंकर के पानी से खाना ठीक से नहीं पकता

कुल मिलाकर अगर कहा जाए कि दारलीपाली गांव में लोग चलते फिरते मुर्दों सी जिंदगी जीने को मजबूर हैं तो गलत नहीं होगा। दलित होने के बाद भी कोई राजनीतिक दल समारी की मदद को आगे नहीं आया है। शायद कोई दल ताकतवर खनन कंपनी के आगे दलित कार्ड भी नहीं खेलना चाहता। लगता है कि इस तरह के कार्ड राष्ट्रपति चुनाव के लिए आरक्षित हो गए हैं। समारी की अब केवल एक ही मांग है, “या तो हमें पुनर्वास दो या मौत।”

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