पलायन और विस्थापन की पीड़ा कितनी ह्रदय विदारक होती है इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। इसकी दर्द वही समझ सकता है, जो अपने घर से बेघर होता है। भारत में विस्थापन की समस्या कोई नई नहीं है। 1947 में बंटवारे ने जो देश के बीच एक लकीर खींची थी, उसने लाखों लोगों को इधर से उधर अपने घरों को छोड़ कर जाने को मजबूर कर दिया था। तब से लेकर आज तक वजह अलग हो सकती है पर पलायन और विस्थापन की यह प्रक्रिया साल दर साल जारी है।
भारत में साल दर साल बढ़ रहे हैं विस्थापित
यदि हाल ही में इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के आंकड़ों पर गौर करें तो देश में हर साल औसतन 36 लाख लोग विस्थापित होते हैं। यह आंकड़े 2008 से 2019 के औसत पर आधारित हैं। जबकि यदि 2019 के आंकड़ें देखें तो अकेले इसी वर्ष में करीब 50,37,000 नए विस्थापित सामने आये हैं। जबकि 2009में 53,37,000 लोग विस्थापित हुए थे। इन दोनों ही वर्षों में सबसे गौर करने वाली बात यह है कि भारत में ज्यादातर लोग आपदाओं के चलते विस्थापित हुए हैं। जहां आपदाओं के चलते 2019 में 50,18,000 लोग विस्थापित हुए थे, वहीं उसी वर्ष में संघर्ष और टकराव के चलते 19,000 लोग विस्थापित हुए। जो स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि भारत में विस्थापन का सबसे बड़ा कारण बाढ़, सूखा, तूफान जैसी आपदाएं हैं। जबकि कश्मीर में हुआ संघर्ष और त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में राजनीतिक और चुनावी हिंसा जैसी घटनाओं के चलते 2019 में करीब 19,000 लोग विस्थापित हुए थे पर आपदाओं से इनकी तुलना करें तो यह आंकड़ें काफी कम हैं।
आकस्मात आने वाली आपदाओं से औसतन हर साल विस्थापित होने वालों की संख्या
क्या जलवायु में आ रहा बदलाव है इसके लिए जिम्मेवार
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में वर्ष 2019 के दौरान 50 लाख से ज्यादा लोग बाढ़, सूखा, तूफान, जैसी आपदाओं के चलते विस्थापित हुए थे। जोकि दुनिया में सबसे ज्यादा है। हालांकि इस विस्थापन के लिए सीधे तौर पर इन आपदाओं को जिम्मेवार माना गया है। पर इसके पीछे जलवायु में आ रहे बदलावों का बड़ा हाथ है। जिस तरह से तापमान में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है, इन आपदाओं की संख्या और इनकी तीव्रता में भी वृद्धि हो रही है। साथ ही जनसंख्या का भारी दबाव और सामाजिक आर्थिक पिछड़ापन भी इसके पीछे की एक बड़ी वजह है। जो ज्यादा से ज्यादा लोगों को विस्थापित कर रही है।
यदि तापमान के आंकड़ों पर गौर करें तो 1901 के बाद से 2019 सातवां सबसे गर्म साल था। जबकि 25 सालों में पहली बार 2019 में इतनी भारी बारिश रिकॉर्ड की गई है। स्पष्ट है एक तरफ बढ़ता तापमान और दूसरी तरफ बारिश में आ रहा बदलाव यह दोनों ही कारक मिलकर बाढ़, सूखा और तूफान जैसी घटनावों को और बढ़ा रहे हैं।
दुनिया के दूसरे देशों की कैसी है स्थिति
वैश्विक स्तर पर देखें तो वर्ष 2019 में संघर्ष और आपदाओं के चलते करीब 3.34 करोड़ लोग अपने ही देश में शरणार्थी बन गए थे। जिसमे सबसे बड़ी संख्या भारतियों की है। यह साल आपदाओं का रहा। इस वर्ष करीब 1900 आपदाओं के होने के रिकॉर्ड दर्ज किये गए हैं। जिसमें अकेले बाढ़, सूखा, तूफान, भूकंप जैसी आपदाओं के चलते 140 देशों में करीब 2.49 करोड़ लोग विस्थापित हुए। जिनमें से सिर्फ मौसम सम्बन्धी आपदाओं के चलते 2.39 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। इनमें से 1.3 करोड़ तूफान, 1 करोड़ बाढ़, 528,500 जंगल में लगी आग, 276,700 सूखा, 65,800 भूस्खलन, और 24,500 लोग मौसम की विषम परिस्थितयों के चलते अपने घरों से बेघर हो गए थे। 2012 के बाद से पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए हैं।
जबकि यदि हिंसा और संघर्ष को देखें तो उनसे विस्थापित होने वालों की संख्या करीब 85 लाख है। जोकि स्पष्ट तौर पर दिखता है कि इनकी तुलना में आपदाओं के चलते तीन गुना से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। 2019 में वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा भारत में 50,37,000 लोग विस्थापित हुए हैं। इसके बाद फ़िलीपीन्स (42,77,000), बांग्लादेश (40,86,520), चीन (40,34,000), डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (19,05,000), सीरिया (18,64,000), इथियोपिया (15,56,000), अमेरिका (9,16,000) फिर सोमालिया (6,67,000) का नंबर आता है।
देश के कमजोर तबके पर पड़ रही है दोहरी मार
देश में एक तरफ जहां जलवायु में आ रहा बदलाव और उसका असर साफ नजर आने लगा है। जिसके कारण बाढ़, सूखा, तूफान जैसी घटनाएं आम बात होती जा रही हैं। वहीं इसके चलते पानी की भी कमी आती जा रही है। जिसका साफ तौर पर असर हमारी खेती पर पड़ रहा है। बढ़ते परिवार और खेती से घटती आय की वजह से बड़ी संख्या में लोग हर साल शहरों की ओर पलायन करते हैं। वहीं इस साल उन पर कोरोना का ऐसा कहर पड़ा कि वो वापस अपने गांवों की ओर लौटने को मजबूर हो चुके हैं। एक तरफ इन आपदाओं का कहर है तो दूसरी तरफ कोरोना का डर, ऐसे में वो गरीब किसान तबका दोनों ओर से पिस रहा है। तो क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। क्या इस तबके को इसी तरह से मरने के लिए छोड़ दिया जाए। पर बाबू लोगों को यह जानना होगा जब यह श्रमिक वर्ग ही नहीं रहेगा तो उनकी बेगारी कौन करेगा।
यह वक्त है फिर से हम अपनी नीतियों पर फिर से गौर करें। साथ ही जलवायु परिवर्तन के खतरे को समझें। नहीं तो आने वाला वक्त इतना कठिन होगा,जिसकी जद से कोई बाहर नहीं होगा। देश के विकास की पहल हर उस घर से करनी होगी जो इन आपदाओं का कहर झेल रहें हैं और पलायन और विस्थापन से त्रस्त हैं। सिर्फ कागजों में नीतियां बना देने और नियमों को लिख देने से कुछ हल नहीं होगा। उनपर अमल करना भी जरुरी है।
आंकड़ों का स्रोत:
✿ 2020 ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटरनल डिस्प्लेसमेंट, इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर, 2020
✿ इंडियन मेटेरोलॉजिकल डिपार्टमेंट
✿ हाउ इंडिया हेस वार्मड फ्रॉम 1901 - 2017, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
✿ बढ़ते तापमान से बदहाल धरती, डाउन टू अर्थ