पनीर ने बदली गांव की तस्वीर

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से पलायन की बढ़ती समस्या के बीच एक गांव ऐसा भी है, जहां से न केवल न के बराबर पलायन होता है, बल्कि आज यह गांव आत्मनिर्भरता की मिसाल भी बन गया है

पहाड़ों की रानी मसूरी से लगभग 20 किलोमीटर दूर बसे इस गांव को पनीर वाले गांव के नाम से जाना जाता है| आइये जानते हैं इस गांव की सफलता की कहानी:

विकास चौधरी और अनिल कुमार


 
पनीर बनाने के लिए दूध छानती शुचिता रावत; फोटो: विकास चौधरी

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से पलायन की बढ़ती समस्या के बीच एक गांव ऐसा भी है, जहां से न के बराबर पलायन होता है, बल्कि यह गांव आत्मनिर्भरता की मिसाल बन गया है| पहाड़ों की रानी मसूरी से लगभग 20 किलोमीटर दूर बसे इस गांव को पनीर वाले गांव के नाम से जाना जाता है| टिहरी गढ़वाल जिले के धनौल्टी तहसील में बसे इस गांव का नाम रौतू की बेली है| इस गांव में लगभग 250 परिवार रहते हैं जोकि ज्यादातर पनीर बना कर बेचने का काम करते हैं| आज ये परिवार लगभग 15 से 30 हजार रुपए प्रति माह कमा रहे हैं| देहरादून-उत्तरकाशी बाईपास मार्ग पर बसे इस गांव में पनीर खरीदने वालों की सुबह से लाइन लग जाती है और दोपहर होते-होते हर घर का पनीर बिक चुका होता है|






 
अपनी दुकान पर पनीर बेचती शुचिता रावत; फोटो: विकास चौधरी


 
पनीर खरीदने के लिए लगी ग्राहकों की भीड़; फोटो: विकास चौधरी


उत्तराखंड के ज्यादातर पहाड़ी गांव छोटे-छोटे हैं और जो बड़े भी हैं, उनमें रौनक कम ही देखने को मिलती है, लेकिन रौतू की बेली की रौनक और सम्पन्नता दूर से ही दिख जाती है| आज गांव के लोगों ने अपने घर पर या आसपास दुकान बना ली है, जहां पनीर बेचना शान का काम समझा जाता है| गांव की महिलाएं इस काम में पुरुषों से आगे हैं| शुचिता रावत भी इन महिलाओं में से एक हैं| उन्होंने बताया कि आज पनीर की वजह से यह गांव जाना जाता है| अब दूसरे गांव के लोग भी यहां पनीर बनाकर बेकने लाते हैं, ताकि उनका पनीर आसानी से बिक जाए|


 
लगभग दो घंटे की कड़ी मेहनत के बाद पनीर तैयार हो जाता है, इसके साथ ही बढ़ जाती हैं दिलीप सिंह की खुशियां; फोटो: विकास चौधरी

मेहनत की मुस्कान

इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने और बेचने वाले कुंवर सिंह पंवार के बेटे हकम सिंह रावत ने बताया कि उनके पिता ने यह काम 1980 में शुरू किया था, उस वक्त पनीर की कीमत 4 से 5 रुपए किलो थी| तब पनीर घोड़ों और खच्चरों से मंसूरी और चम्बा ले जाया जाता था| 60 वर्षीय दिलीप सिंह भंडारी बताते हैं कि 1975 के पहले इस गांव के लोग पनीर बनाना नहीं जानते थे| तब यहां सिर्फ दूध बेचा जाता था, सर्दियों में लोग अपने मवेशियों के साथ देहरादून तक जाते थे और वहीं दूध बेच कर गर्मियों में वापस आ जाते थे| पर जब से यहां पनीर बनाना शुरु हुआ इस गांव की तस्वीर ही बदल गई है|

25 साल के विकास रावत ने बताया कि वो हर दो दिन में यहां पनीर बेचने आते हैं| पहले वो देहरादून के एक होटल में काम करते थे पर जब से लॉकडाउन लगा तब से वो घर पर ही हैं और अपने परिवार की खेती-बाड़ी में मदद करते हैं। ऐसे में पनीर बेच कर उन्हें कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाती है जिससे उनका गुजर हो जाता है| नहीं तो उनका मानना है कि ऐसे हालात में काम मिलना काफी मुश्किल है। उनकी ही तरह 24 वर्षीय प्रमोद भंडारी गांव में दर्जी की दुकान चलाते हैं| हाल ही में उन्होंने 60 हजार की एक भैंस खरीदी है| वो कहते हैं कि उन्होंने पनीर के लिए खासतौर पर भैंस नहीं ली है पर अगर इस से कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाती है तो इसमें हर्ज भी क्या है ।




पनीर बनाना एक मेहनत का काम है, 5 किलो दूध से करीब 1 किलो पनीर बनता है; फोटो: विकास चौधरी

आसान नहीं है डगर

65 वर्षीय बिजेन्दर सिंह पिछले 20 वर्षो से पनीर बना रहे है, वो बताते हैं की पनीर बनाने में काफी मेहनत लगती है| 5 किलो दूध से करीब 1 किलो पनीर बनता है| एक भैंस की कीमत 60 से 90 हजार तक होती है, जिसे दूध देने तक खिलाना काफी महंगा पड़ता है| उनके चारे के लिए घर कि महिलाओं को रोज आसपास के जंगलों में जाना पड़ता है। सर्दियों में बर्फबारी कि वजह से जब चारा नहीं ला पाते तो इसके लिए पहले से ही चारा इकठ्ठा करके रखना होता है। इस गांव में कोई जानवरों का डॉक्टर भी नहीं है ऐसे में यदि जानवर बीमार पड़ता है तो उसके लिए 20 किलोमीटर दूर से डॉक्टर बुलाना पड़ता है|


 
घर पर दूध उबालता दिलीप सिंह भंडारी का परिवार; फोटो: विकास चौधरी


 
दूध तैयार करने में अपने परिवार की मदद करते दिलीप सिंह भंडारी; फोटो: विकास चौधरी


गांव के लगभग हर परिवार की तरह दिलीप सिंह भंडारी के परिवार की सुबह भी अपनी भैंस का दूध दोहने से शुरू होती है| पनीर की गुणवत्ता बेहतर रहे इसलिए यह परिवार दूध को सबसे पहले अच्छी तरह से छान लेता है, ताकि आगे का काम शुरू किया जा सके| पहाड़ में बने पारम्परिक चूल्हे में लकड़ियां जलाई जाती हैं और छानने के बाद दूध को यहां एक बड़े बर्तन में डाल लिया जाता है|

उत्तराखंड के ज्यादातर पहाड़ी गांव छोटे-छोटे हैं और जो बड़े भी हैं, उनमें रौनक कम ही देखने को मिलती है, लेकिन रौतू की बेली की रौनक और सम्पन्नता दूर से ही दिख जाती है

यह लकड़ियां आसपास के जंगल से लाई जाती हैं| परिवार की बुजुर्ग महिलाओं का काम होता है कि वो चूल्हे पर नजर रखें| ... और लगभग दो घंटे की कड़ी मेहनत के बाद पनीर तैयार हो जाता है| इसके साथ ही दिलीप सिंह की खुशियां भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि यह जानते हैं कि इस पनीर के बिकते ही उनके परिवार की जरुरत की हर चीज खरीदना आसान हो जाएगा|
 


 
जानवरों के लिए चारा लाते ग्रामीण; फोटो: विकास चौधरी


 
पनीर के लिए दूध एकत्र करती एक महिला


 
आसान नहीं है पहाड़ों में चलना; फोटो: विकास चौधरी

आज अपनी मेहनत के बल पर रौतू की बेली एक मिसाल बन चुका है| पलायन की समस्या से जूझ रहे उत्तराखंड के लिए यह गांव आशा की एक किरण है, जो अन्य को भी राह दिखा सकता है|