अर्थव्यवस्था पर सरकार का डेटा चिंताजनक है। वित्तीय वर्ष 2017-18 में, कृषि पिछले वर्ष के 4.9 प्रतिशत की तुलना में 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। ये संकेत ठीक नहीं हैं।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार कृषि क्षेत्र को ऐसे संकट से बचाने की कोशिश कर रही है, जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। इस सिलसिले में 10 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों से मिले। इस बातचीत में कृषि, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी के मुद्दे हावी रहे। मोदी का 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का वादा लटक गया है, क्योंकि पूरे देश से भारी कृषि संकट की रिपोर्ट्स आ रही हैं। 2017 में उचित मूल्य न मिल पाने की वजह से किसानों को अपना उत्पाद सस्ते में बेचना या सड़क पर बिखेरना पड़ा। इस तरह की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनीं। अर्थव्यवस्था पर सरकार का डेटा चिंताजनक है। वित्तीय वर्ष 2017-18 में, कृषि पिछले वर्ष के 4.9 प्रतिशत की तुलना में 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। ये संकेत ठीक नहीं हैं, क्योंकि पिछले दो बार के सामान्य से कम मानसून की तुलना में इस बार मानसून सामान्य था। आमतौर पर, सूखे के बाद, निम्न बेसलाइन लेवल के कारण कृषि विकास अधिक होता है।
लेकिन, मोदी-अर्थशास्त्रियों की बैठक में एक महत्वपूर्ण तथ्य गौण रहा। मोदी सरकार ने कृषि पर काफी मेहनत से तैयार की गई रिपोर्टों की एक श्रृंखला तैयार करवाई है। ये रिपोर्ट अशोक दलवाई के नेतृत्व में बनी है, जिसका नाम है, “द कमेटी ऑन डबलिंग फार्मर्स इनकम”। यह कमेटी कृषि की दशा और किसानों की आय बढ़ाने के तरीके पर 14 रिपोर्ट देगी। आठ रिपोर्ट्स पहले ही जारी की जा चुकी हैं। दलवाई कमेटी की पहली रिपोर्ट में 100 विशेषज्ञों के रिसर्च और इनपुट का उपयोग किया गया है। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्तमान में भारतीय कृषि एक गहरे संकट में फंसी हुई है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि 2004-2014 के दौरान देश के कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक विकास हुआ। रिपोर्ट इसे सेक्टर का “रिकवरी फेज” कहती है। ये एक ऐसा शब्द है, जो इसे ऐतिहासिक बनाता है। ये रिपोर्ट, किसानों की आय दोगुना करने के तरीकों का सुझाव देने से ज्यादा, भारतीय कृषि की हालत पर आंख खोलती है। डाउन टू अर्थ यहां देश की कृषि से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा है, जिनकी खबरें आमतौर पर सामने नहीं आतीं
राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान घट रहा है, लेकिन यह अब भी 56% आबादी को रोजगार देता है
कोई भी राष्ट्र अपनी कृषि और किसानों से समझौता नहीं कर सकता और भारत जैसे देश में तो बिल्कुल भी नहीं। भारत में, जहां 1951 में 70 मिलियन हाउसहोल्ड (घर) कृषि से जुड़े हुए थे, वहीं 2011 में ये संख्या 119 मिलियन हो गई। इसके अलावा, भूमिहीन कृषि मजदूर भी हैं, जिनकी संख्या 1951 में 27.30 मिलियन थी और 2011 में बढ़कर ये संख्या 144.30 मिलियन हो गई। भारत की इतनी बड़ी आबादी का कल्याण एक मजबूत कृषि विकास रणनीति से ही हो सकती है, जो आय वृद्धि की दृष्टिकोण से प्रेरित हो।
भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए कृषि आजीविका का स्रोत बनी रही। 2014-15 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इस सेक्टर ने करीब 13 फीसदी का योगदान दिया था। 1971 से कृषि में लगे श्रमिकों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। हालांकि, 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में कमी आई है। कृषि मजदूरों की संख्या 107 मिलियन से बढ़कर 144 मिलियन हो गई। इसके विपरीत, कृषि मजदूरों की संख्या 2004-05 के 92.7 मिलियन से घटकर 2011-12 में 78.2 मिलियन हो गई। ये दर्शाता है कि प्रति वर्ष लगभग 22 लाख कृषि मजदूरों ने इस क्षेत्र को छोड़ दिया। उसी समय, रोजगार और बेरोजगारी पर एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार, 2004-05 से 2011-12 के दौरान खेती करने वालों की संख्या प्रति वर्ष 1.80 प्रतिशत की दर से घटती गई। 1967-71 के बाद, हाल के दशक में कृषि में लगे किसानों की संख्या में नकारात्मक वृद्धि देखी गई, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोग खेती से दूर जा रहे हैं।
गैर-कृषि मजदूर, किसान से तीन गुना अधिक कमाता है
वर्तमान कृषि संकट इतना गहरा है कि इसे एक किसान-अनुकूल बजट के माध्यम से ही तत्काल ठीक किया जा सकता है। आइए, भारत में एक किसान की आय को देखें। “रिकवरी फेज” के दौरान भी, एक कृषक परिवार का एक सदस्य लगभग 214 रुपये प्रति माह कमाता था। लेकिन, उसका खर्च करीब 207 रुपये था।
सरल भाषा में कहें तो एक किसान की डिस्पोजल मासिक आय 7 रुपए थी। 2015 के बाद से, भारत में दो भयंकर सूखे पड़े। बेमौसम बरसात से और अन्य संबंधित घटनाओं के कारण फसल बर्बाद होने की लगभग 600 घटनाएं हुईं। और अंत में बंपर फसल के दो साल के दौरान किसानों को उचित कीमत ही नहीं मिली।
इसका मतलब है कि एक किसान के पास अब निवेश के लिए आधार पूंजी भी नहीं है और न ही उसमें कृषि क्षेत्र में वापस जाने के लिए जोखिम लेने की क्षमता है। इससे संकट में बढ़ोतरी हुई, जिसने असंतोष को और अधिक बढ़ा दिया।
अक्सर यह महसूस किया जाता है कि कृषि आय और गैर-कृषि आय के बीच असमानता बढ़ रही है और जो लोग कृषि क्षेत्र से बाहर काम करते हैं, वे उन लोगों की तुलना में बहुत तेजी से प्रगति कर रहे हैं, जो कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। 1983-84 में एक मजदूर की कमाई से तीन गुना अधिक किसान कमाता था। एक गैर-कृषि मजदूर उन किसानों या उसके परिवार के सदस्यों द्वारा कमाई गई आय से तीन गुना अधिक कमाता था, जो मुख्य रूप से कृषि से जुड़े हुए थे।
हाल के इतिहास में पहली बार, अपेक्षाकृत अमीर किसान अपने उत्पादों के बेहतर मूल्य के लिए सड़क पर विरोध कर रहे थे। दलवाई समिति की रिपोर्ट बताती है कि मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, खाद्यान्न आयात करने की सरकार के कदम ने घरेलू किसानों के बाजार को कमजोर किया है। भारत का कृषि उत्पादन का निर्यात कम हो गया है। यह 2004-2014 के दौरान, पांच गुना वृद्धि दर्ज करते हुए 50,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 260,000 करोड़ रुपए हो गया था। एक साल में, यानी 2015-16 में ये 210,000 करोड़ रुपए तक आ गया। इसका अर्थ है कि बाजार को 50,000 करोड़ रुपए का संभावित नुकसान हुआ।
दूसरी ओर, कृषि आयात में लगातार वृद्धि दर्ज की गई। यह 2004-5 में 30,000 करोड़ रुपए था, जो 2013-14 में बढ़कर 90,000 करोड़ रुपए हो गया। यह यूपीए-2 सरकार का अंतिम साल था। 2015-16 में, यह बढ़कर 150,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया।
करीब 22 प्रतिशत किसान गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। किसानों की आय में गिरावट को देखते हुए, आय दोगुना करने का वादा “न्यू इंडिया” के लिए एक और भव्य योजना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कृषि विकास ही किसानों की गंभीर गरीबी कम करने का काम कर सकता है।
अपने उत्पाद को बेचने में सक्षम नहीं होना ही किसानों की सबसे बड़ी पीड़ा है
लगातार छह साल तक, बागवानी (फल और सब्जियां) उत्पादन अनाज उत्पादन से आगे रहा है। हाल के समय में, बागवानी का उदय, कृषि विकास का एक कम स्वीकार्य पहलू रहा है। विशेषकर 2004-14 के उच्च विकास चरण के दौरान। हालांकि यह सिर्फ खेती के 20 प्रतिशत हिस्से को ही कवर करता है, लेकिन यह कृषि जीडीपी में एक तिहाई से भी ज्यादा का योगदान देता है। पशुधन के साथ, कृषि के इन दो उपक्षेत्रों में वृद्धि जारी रही है और ये अधिकतम रोजगार भी दे रहे हैं। देश में फलों और सब्जियों का उत्पादन, खाद्यान्न से आगे निकल गया है। कृषि मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक बयान में कहा गया है कि वर्ष 2016-17 (पूर्वानुमान) के दौरान 300.6 मिलियन टन बागवानी फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ, जो पिछले वर्ष की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक है।
बागवानी किसानों की सबसे बड़ी चुनौती बिक्री और फसल होने के बाद में होने वाली हानि (बर्बादी) है। इससे यह किसानों के लिए कम आकर्षक सेक्टर बन जाता है। हालांकि, सरकार ये बात गर्व के साथ कहती है कि भारत दुनिया में सब्जियों और फलों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है, लेकिन यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि फसल पैदा होने के बाद होने वाली बर्बादी की वजह से फल और सब्जियों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता काफी कम है। फल और सब्जियों की बर्बादी कुल उत्पादन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत होता है।
फल और सब्जियों की ये बर्बादी कोल्ड चेन (शीत गृह) की संख्या में कमी, कमजोर अवसंरचना, अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज क्षमता, खेतों के निकट कोल्ड स्टोरेज का न होना और कमजोर परिवहन साधन की वजह से होती है। किसानों की आय दोगुना करने के लिए बनी कमेटी के मुताबिक, “अखिल भारतीय स्तर पर, किसानों को 34% फल, 44.6%,सब्जियां और 40 फीसदी फल और सब्जी के लिए मौद्रिक लाभ नहीं मिल पाता है। यानी, इतनी मात्रा में फल और सब्जियां किसान बेच नहीं पाते या बर्बाद हो जाती है।”
इसका मतलब है कि हर साल, किसानों को अपने उत्पाद नहीं बेच पाने के कारण 63,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो जाता है, जिसके लिए उन्होंने पहले ही निवेश किया होता है। इस चौंकाने वाले आंकड़े को ऐसे समझ सकते है कि यह राशि फसल कटाई के बाद होने वाली बर्बादी से बचने के लिए आवश्यक कोल्ड चेन अवसंरचना उपलब्ध कराने के लिए जरूरी निवेश का 70 प्रतिशत है। यह किसानों द्वारा किए जा रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन की व्याख्या करता है। मिर्च, आलू और प्याज की कम कीमत इसके पीछे प्रमुख कारणों में से एक थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में जहां 628 कृषि से जुड़े प्रदर्शन हुए थे, वहीं 2016 में इसमें 670 फीसदी बढ़ोतरी हुई और ये संख्या बढ़कर 4,837 हो गई थी।
कृषि योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर
2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक वादा है। लेकिन दलवाई समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को देखते हुए, यह एक मुश्किल चुनौती प्रतीत होती है, हालांकि यह संभव है। इन रिपोर्टों के अनुसार, इसमें कृषि के लिए बड़े पैमाने पर निजी और सार्वजनिक खर्च को शामिल किया गया है, जिसने लगातार कम निवेश नहीं देखा है। कृषि से कम होती आय के कारण, किसान इस आजीविका को छोड़ रहे हैं। इसलिए, पहले उन्हें खेतों तक वापस लाया जाना चाहिए और फिर आय बढ़ाने के लिए काम किए जाने चाहिए, ताकि वे खेती जारी रखें।
हाल ही में नीति आयोग के अर्थशास्त्री रमेश चंद, एसके श्रीवास्तव और जसपाल सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और रोजगार सृजन पर इसके प्रभावों पर एक चर्चा पत्र जारी किया। इस पत्र के अनुसार, 1970-71 से 2011-12 के दौरान, “भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था 2004-05 की कीमतों पर 3,199 बिलियन रुपये से बढ़कर 21,107 बिलियन हो गई।” यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सात गुना वृद्धि थी। अब इस वृद्धि की तुलना रोजगार वृद्धि के साथ करें।
इसी अवधि में ये 191 मिलियन से बढ़कर 336 मिलियन हो गई। दलवाई समिति की रिपोर्ट में कहा गया है, “किसानों की आय को दोगुनी करने की रणनीति के तहत मुख्य रूप से खेती की व्यवहार्यता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. इसलिए, इस रणनीति का उद्देश्य कृषि आय का अनुपात गैर-कृषि आय के 60 से 70 प्रतिशत मौजूदा दर को बढ़ाना चाहिए।” इसी के साथ, इस विकास रणनीति को समानता पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे कम विकसित क्षेत्रों में उच्च कृषि विकास को बढ़ावा देना, जिसमें बारिश पर निर्भर क्षेत्रों सहित, सीमांत और छोटे भूमि धारक भी शामिल हों।
भारत की खेती योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर है और इन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं और इन्हें सूखे का सामना करना पड़ रहा है। ये वो क्षेत्र है, जहां सरकार वर्तमान में हरित क्रांति 2 को क्रियान्वित कर रही है।
गुजरात में बीजेपी को किसानों की नाराजगी झेलनी पड़ी। इस साल होने वाले विधानसभा और अगले साल लोकसभा चुनावों में कितनी भारी पड़ेगी यह नाराजगी?
भागीरथ, शौरिया नियाजी, रवि कुमार, पीएस राठौर
देश भर के किसान इस समय अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। उनकी नाराजगी की बानगी 23 फरवरी को दिल्ली में दिखाई देने वाली है। राष्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले तमाम राज्यों के किसान दिल्ली घेराव के लिए पहुंचेंगे। ऐसा पहली बार है जब करीब 60 किसान संगठन इतनी बड़ी संख्या में सत्ता तक आवाज पहुंचाने के लिए एकजुट हुए हैं।
किसानों की यह नाराजगी क्या इस साल होने वाले विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में बीजेपी को भारी पड़ सकती है? इस नाराजगी से सत्ताधारी पार्टी के नेता भी परिचित हैं। गुजरात चुनाव जीतने के बाद दिल्ली में जब जश्न मनाया गया तब एक मीटिंग के दौरान बीजेपी सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को कृषि संकट और किसानों के हालात से रूबरू कराया था। इनमें से ज्यादातर सांसदों की चिंता वाजिब थी क्योंकि उनका संबंध मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ से था और इन राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक को छोड़कर बाकी इन तीन राज्यों में बीजेपी की सरकार है।
इन सांसदों के लिए गुजरात से पहुंचा संदेश दो कारणों से चिंताजनक है। पहला यह कि ग्रामीण क्षेत्र सरकार से नाराज है। गुजरात में यह साफ देखा जा चुका है। और दूसरा यह कि जिन चार राज्यों में चुनाव सिर हैं वहां की अधिकांश आबादी ग्रामीण ही है। इन सांसदों के लिए चिंता की बात यह भी है कि इन चार राज्यों के चुनावी नतीजे अगले साल लोकसभा चुनावों पर असर खासा डालेंगे। तो क्या यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण बीजेपी के खिलाफ जाएंगे?
बीजेपी के लिए ये चारों राज्य कितना महत्व रखते हैं यह इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी की करीब एक तिहाई लोकसभा सीटें इन चार राज्यों से आती हैं। 2014 में हुए आम चुनावों में बीजेपी ने इन चार राज्यों में 85 प्रतिशत सीटें कब्जाई थीं। बीजेपी के लिए चिंता की बात यह भी है कि इन चार राज्यों में 744 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 600 ग्रामीण हैं। गुजरात की तरह इन राज्यों में भी पिछले कुछ महीनों से किसानों का प्रदर्शन चल रहा है। 2014 से इन राज्यों में फसलों के नुकसान, कृषि उत्पादों की गिरती कीमत और कर्ज माफी के लिए 98 प्रदर्शन हो चुके हैं। इन राज्यों में अधिकांश किसान कृषि के भरोसे हैं लेकिन कृषि विकास दर कम हो रही है। पिछले तीन सालों में यह विकास दर सबसे कम औसतन दो प्रतिशत रही है। इन राज्यों में किसानों पर दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा कर्ज भी है।
चिंता का बड़ा कारण सूखा भी है। दिसंबर 2017 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश 52 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर चुके हैं और केंद्र सरकार से 11,186 करोड़ रुपए के संयुक्त पैकेज की मांग कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, केरल और तमिलनाडु ने अपने 50 प्रतिशत जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है और 54,772 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद मांगी है। साफ है जिन राज्यों में चुनाव हैं वहां खेती पर बड़ा संकट मंडरा रहा है। पिछले साल फरवरी और अप्रैल के बीच मुआवजे और फसलों के उचित दाम की मांग को लेकर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
मध्य प्रदेश में पानी की कमी के कारण गेहूं की बुआई पर असर पड़ा है। इससे पहले 2017 में दक्षिण पश्चिम मॉनसून में औसत से पांच प्रतिशत कम बारिश हुई थी। देश के कुल 630 जिलों में से एक तिहाई जिलों में कम बारिश हुई है।
मध्य प्रदेश में किसानों की दुर्दशा का जिक्र करने पर राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक शिव प्रसाद शर्मा उर्फ कक्काजी बताते हैं कि यहां हालात बहुत खराब हो चुके हैं। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से किसान लुट गया है। रही सही कसर राज्य सरकार की भावांतर योजना ने पूरी कर दी है।
कक्काजी बताते हैं कि किसानों की आवाज को दिल्ली तक पहुंचाने के लिए 23 फरवरी को लाखों की संख्या में किसान रामलीला मैदान पहुंचेंगे। राष्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले तमाम राज्यों में संगठन से जुड़े पदाधिकारी और किसान इस यात्रा की तैयारियों में जुटे हैं। ब्लॉक स्तर पर रोजाना बैठकों का दौर जारी है। कक्काजी कहते हैं “हर ब्लॉक में प्रतिदिन 100 से 250 यात्राएं हो चुकी हैं। इस यात्रा को उन्होंने किसान सम्मान यात्रा नाम दिया है।
21 फरवरी को मध्य प्रदेश के किसान पलवल में एकत्रित होंगे और वहां से पैदल दिल्ली कूच करेंगे। रास्ते में किसान संगठनों से जुड़े लोग भोजन की व्यवस्था करेंगे। यूपी, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात समेत बाकी राज्यों के किसान अलग-अलग रास्तों और माध्यमों से दिल्ली पहुंचेंगे। दिल्ली के रामलीला मैदान में उनका अनिश्चिकालीन धरना चलेगा। आंदोलन पूरी तरह से गैर राजनीतिक होगा। पूर्वोत्तर के राज्यों के छोड़कर सभी राज्यों के किसान दिल्ली कूच में शामिल होंगे। कक्का जी बताते हैं कि दिल्ली पहुंचने वाले किसानों की संख्या 10 से 15 लाख के बीच होगी। कश्मीर से लेकर पश्चिम बंगाल तक के किसान दिल्ली पहुंचेंगे।
राजस्थान के किसान भी सरकार से खासे नाराज हैं। पिछले साल राज्य के सीकर में हाल का सबसे बड़ा प्रदर्शन हुआ था। आंदोलन 13 दिन 13 घंटे चला। यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी भाग लिया। पशुओं के व्यापार पर केंद्र सरकार की पाबंदी के बाद किसान उग्र हो गए थे। राजस्थान के किसानों के लिए कृषि के साथ पशुधन का भी बराबर महत्व है। राज्य की करीब 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। प्रतिबंध का सबसे ज्यादा असर राजस्थान पर पड़ा क्योंकि यह ऐसा प्रदेश है जहां सबसे अधिक पशु मेले लगते हैं जहां पर हर प्रकार के पशु की बिक्री होती है।
प्रतिबंध के विरोध में सीकर में 50,000 किसान जुटे और उन्होंने पूर्ण कर्ज माफी, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने और पशुओं के व्यापार पर लगे प्रतिबंध को हटाने की मांग की। सरकार ने परवाह नहीं कि तो दस दिन बाद चक्का जाम का ऐलान किया गया। तीन दिन तक सीकर में ऐसा हालात पैदा हो गए कि सरकार को वार्ता के लिए आगे आना पड़ा।
बीजेपी ने 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में किसानों ने वादा किया था कि उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक फसल की कीमत दी जाएगी। लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। किसानों ने प्रति हेक्टेयर 13,000 रुपए खर्च किए लेकिन उनकी लागत तक नहीं निकली। उन्हें 4,800 रुपए में उपज बेचनी पड़ी। रही सही कसर मवेशियों के व्यापार पर लगाए गए प्रतिबंध ने पूरी कर दी। प्रतिबंध के तीन महीने के भीतर मवेशियों की कीमत काफी कम हो गई। जो किसान खेती में नुकसान उठाने पर आमतौर मवेशियों को बेचकर काम चलाते थे उन्हें 50,000 रुपए में खरीदी गई गाय को 20,000 में बेचना पड़ा। भैंस की कीमत भी 60,000 से गिरकर 30,000 हो गई।
किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जट बताते हैं “राजस्थान के ज्यादातर हिस्सों में असामान्य बारिश से 80 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया।”
सीकर में किसान आंदोलन की अगुवाई करने वाले व मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व विधायक अमराराम का कहना है “कांग्रेस और बीजेपी दोनों को समान रूप से कृषि संकट के चलते चुनावों में नुकसान उठाना पड़ेगा। बीजेपी को जहां किसानों की अनदेखी का नुकसान उठाना पड़ेगा जबकि विपक्षी पार्टी कांग्रेस को किसानों के मुद्दों को प्रमुखता से न उठाने का खामियाजा भुगतना होगा।”
जिन राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं, उनमें कर्नाटक ही ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस सत्ता में है। यहां भी कृषि संकट मुख्य मुद्दा होने वाला है। पिछले कुछ सालों के मुकाबले 2017 में यहां अच्छा मानसून रहा है और यहां किसान खुश थे। उन्हें उम्मीद थी कि कपास की अच्छी फसल होगी। लेकिन बाकी राज्यों की तरह कर्नाटक में भी कर्ज में डूबे किसानों की बहुत बड़ी संख्या है। राज्य का उत्तरी हिस्सा 2014-16 के बीच पड़े सूखे से अभी उबर नहीं पाया है। मूल्य आयुक्त टीएन प्रकाश कामारड्डी की अगुवाई में बनी रिपोर्ट बताती है कि 1990 के दशक के मध्य से शुरू हुआ आत्महत्या का सिलसिला मालेनाडु और तटीक क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में शुरू हो गया है।
2015 में कर्नाटक में 978 किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से 70 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान थे। हालांकि कर्नाटक कृषि उत्पादों के लिए मूल्य आयोग बनाने वाले पहला राज्य है लेकिन फिर भी जिस तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की प्रणाली काम करती है उसे बदलने की जरूरत है। कई फसलों की एमएसपी तो उत्पादन लागत का 73 प्रतिशत ही है। राज्य सरकार धान की प्रत्यक्ष खरीद करती है लेकिन इसकी इसका एमएसपी भी उत्पादन लागत का करीब 83 प्रतिशत ही है। जाहिर है कि एमएसपी के तंत्र को पूरी तरह बदलने की जरूरत है।
प्रदर्शनों से निपटने का तरीका
मध्य प्रदेश के मंदसौर में पिछले साल भड़की गुस्से की चिंगारी अभी शांत नहीं हुई है। मंदसौर की जमीन राज्य के बाकी जिलों से उपजाऊ हैं और यहां के किसान दूसरे जिलों की तुलना में संपन्न हैं। 6 जून 2017 को किसानों के उग्र प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस ने गोलियां चला दीं जिसमें छह लोगों की मौत हो गई। प्रदर्शनकारी किसान कर्ज माफी और अपनी उपज के सही दाम की मांग कर रहे थे। बंपर उत्पादन के बाद प्याज के दाम गिरने और खरीदार न मिलने पर किसानों ने यह प्रदर्शन किया था। पुलिस की गोली से मारे गए लोगों में बरखेड़ा पंत गांव के अभिषेक पाटीदार भी शामिल थे।
मौके पर अभिषेक के 30 वर्षीय भाई मधुसूदन भी थे। वह बताते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 14 जून को सांत्वना देने उनके घर आए थे। उन्होंने परिवार के सदस्यों को नौकरी और फायरिंग करने वाले पुलिसवालों पर मुकदमा दर्ज करने का आश्वासन दिया था। लेकिन अब तक न तो पुलिसवालों पर कार्रवाई हुई है और न ही परिवार के किसी सदस्य को नौकरी दी गई है। अभिषेक के 80 वर्षीय दादा भवरलाल पाटीदार कहते हैं “कोई दूसरी सरकार किसानों पर गोली नहीं चलाती। प्रदर्शन के छह महीने बाद भी किसानों के मुद्दे अनसुलझे हैं।”
मध्य प्रदेश क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एमपीआरसीबी) के अनुसार, पिछले 15 साल में राज्य में 18,000 किसानों ने खुदकुशी की है। फरवरी 2016 से फरवरी 2017 के बीच करीब 2,000 किसान और खेतीहर मजदूर राज्य में आत्महत्या कर चुके हैं। 2013-14 को छोड़कर पिछले 15 साल में हर साल सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई है। इससे किसान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पिछले एक साल के दौरान राज्य में किसानों के 25 से ज्यादा विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं। मीडिया में आई खबरों की मानें तो मंदसौर गोलीकांड के बाद 160 किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि 27 ने जान देने की कोशिश की है।
कक्काजी बताते हैं “जब शिवराज सिंह चौहान पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब राज्य के कुल किसानों पर 2,000 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज यह बढ़कर 44,000 करोड़ रुपए हो गया है।”
गैर राजनीतिक संगठन आम किसान यूनियन के संस्थापक केदार सिरोही मध्य प्रदेश में किसानों के हित में काम कर रहे हैं। उनका कहना है “सरकार दावा करती है कि उसने किसानों के हित में कुछ कदम उठाए हैं। लेकिन तथ्य यह है कि किसानों का व्यापारियों और नौकरशाहों द्वारा शोषण किया जा रहा है।” फसलों के दाम में उतार-चढ़ाव का देखते हुए राज्य सरकार ने भावांतर योजना शुरू की है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग में प्रमुख सचिव राजेश राजौरा बताते हैं, “अगर फसल का विक्रय मूल्य एमएसपी से कम रहता है तो इसके अंतर की भरपाई सरकार करेगी।
यह अंतर सीधा किसान के खाते में भेज दिया जाएगा।” राजौरा बताते हैं कि इससे किसान को अपनी फसल का उचित मूल्य मिलेगा। करीब 40 प्रतिशत किसानों ने योजना के तहत पंजीकरण करा लिया है। वह बताते हैं कि तिलहन और दलहन समेत आठ फसलों का भुगतान सरकार करेगी। बागवानी की फसलों को भी इस योजना के दायरे में लाया जाएगा।
कक्काजी बताते हैं “सरकार भावांतर योजना के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन इसके लागू होने के बाद फसलों के दाम 400 प्रतिशत तक गिर गए हैं। जो उड़द 5,500 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही थी वह योजना लागू होने के बाद 1,000 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही है। चना और मूंग भी सस्ती हो गई है। सरकार ने जिन फसलों की खरीद की है, उसके दाम भी अब तक नहीं मिले हैं। यह योजना मंडी एक्ट का सरासर उल्लंघन है।
सीएम के खिलाफ हमने उच्च न्यायालय में केस किया है।” वह बताते हैं, “प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद किसान 10 से 15 गुणा कर्जदार हो गया है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या की दर में तेजी
से बढ़ोतरी हो रही है।” कक्काजी ने बताया कि राष्ट्रीय किसान महासंघ के तहत आंदोलन में शामिल हुए संगठनों की केवल दो ही मांगें हैं। पहली, किसानों को उसकी फसल लागत का 50 प्रतिशत लाभकारी मूल्य और दूसरी, पूरे देश के किसानों को ऋण मुक्ति।
चिंता की बात यह भी है कि पिछले साल दिसंबर में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि सामान्य मानसून और अत्यधिक पैदावार के कारण आगे भी किसानों को इच्छानुसार दाम नहीं मिलेंगे। यानी किसानों की नाराजगी कम होने के बजाय बढ़ेगी और कृषि संकट चुनावी मुद्दा बनेगा। कुछ समय पहले किसान संगठनों ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से मिलकर कुछ आंकड़े सौंपे हैं, मसलन एक किसान की दैनिक आमदनी महज 50 रुपए है। इन संगठनों ने चेता भी दिया है कि किसान इस भ्रम में नहीं है कि सरकार उनके बारे में सोच रही है। किसानों की चेतावनी बताती है कि बीजेपी के लिए आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
किसानों ने क्यों नकारा गुजरात मॉडल
मोहम्मद कलीम सिद्दीकी गुजरात में बीजेपी को किसानों की नाराजगी का खामियाजा विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ा। दरअसल जिस गुजरात मॉडल का बीजेपी ढोल पीट रही है, उसे किसानों ने सबसे अधिक खारिज किया। इसकी वजह भी है। गुजरात की मुख्य फसल कपास और मूंगफली है। गुजरात खेडूत समाज के महासचिव सागर रबारी के अनुसार, राज्य सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बहुत कम मात्रा में खरीदी करती है। किसान को तुरंत पैसों की आवश्यकता होती है, लेकिन सरकार चेक से पैसे देती है जो समय पर नहीं मिल पाता। इस कारण किसान खुले बाजार में नुकसान में ही बेचकर चला जाता है।
उसके बाद क्रांति संस्था सुप्रीम कोर्ट गई। 27 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सहित अन्य राज्यों को भी किसान आत्महत्या रोकने के लिए 6 हफ्तों के भीतर नीति बनाने का आदेश दिया लेकिन अब तक किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं किया। भरत सिंह झाला कहते हैं मोदी सरकार को तीन तलाक पर कानून बनाने की जल्दी है परन्तु किसानों की आत्महत्या दिखाई नहीं देती। गुजरात में आदिवासियों की जनसंख्या 15 प्रतिशत है। इनकी मुख्य समस्या जल, जंगल और जमीन के अलावा नेताओं और प्रशासन के सहयोग से आदिवासी इलाकों में चलने वाली चिट फंड कंपनियों द्वारा गरीब बेरोजगार आदिवासियों को लूटे जाने का है। आदिवासी किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष रोमेल सुतारिया ने 22,000 चिट फंड पीड़ित आदिवासियों की सूची गुजरात पुलिस सूरत रेंज के आईजी ज्ञानेंद्र सिंह मलिक को सौंपी है लेकिन अब तक संतोषजनक कार्रवाई नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण ही चिट फंड कंपनियों को फलने-फूलने का मौका मिलता है। |
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