Governance

चुप्पी बढ़ा रही है अदृश्य हिंसा का दायरा

लोकनाद के विनय महाजन और चारुल भरवदा से उनके सामाजिक सरोकारों की प्रतिबद्धता को लेकर बातचीत की

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Saturday 15 September 2018
तारिक अजीज / सीएसई

लोकगीतों के जरिए लोगों के सपने, पीड़ा और उनकी खुशियों को सरल भाषा में देशभर में जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश का नाम ही “लोकनाद” है। इसका शाब्दिक अर्थ है जन की आवाज। जन की आवाज की जरूरत तब आन पड़ी जब 1985 में अहमदाबाद की गलियां दंंगाइयों की करतूतों से कराह उठीं। तब भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद का एक छात्र और स्कूल ऑफ प्लानिंग की एक छात्रा ने मिलकर लोगों की आवाज बनने की ठानी। तब “मंदिर-मस्जिद- गिरजाधर ने बांट दिया इंसान को” जैसे गीतों की रचना कर दोनों लोगों के अधिकारों, कर्तव्यों, सामाजिक एकता सहित अशिक्षा, बालश्रम, भुखमरी को लेकर लोगों में जागरुकता पैदा करते आ रहे हैं। लोकनाद के सार्थी विनय महाजन और चारुल भरवदा से उनके सामाजिक सरोकारों की प्रतिबद्धता को लेकर अनिल अश्विनी शर्मा ने बातचीत की

चरवाहों, नमक की खेती करनेवालों, प्रवासी व निर्माण कार्य में लगे मजदूरों, मछुआरों सहित जल, जंगल और जमीन से जुड़े कामगारों की आजीविका पर आप लोग अध्ययन कर रहे हैं। इनके साथ काम करने के लिए संगीत का माध्यम क्यों चुना?

संगीत का माध्यम उनके साथ काम करने के लिए नहीं उनके लिए बात करने को चुना गया है। देश के दूसरे भागों से उनकी जिंदगी, उनकी विरासत, उनकी कर्मठता और समाज के लिए उनके योगदान का संवाद करवाना जरूरी था। जो देश के लिए जुटे हैं, देश उनके बारे में जाने यही हमारे गीत और संगीत का मकसद है। हाशिए पर पड़े इन अदृश्य लोगों से मिलने-जुलने और इन्हें समझने के बाद इनको लेकर हमारे नजरिए का विकास हुआ। हमने इनकी जिंदगी और संघर्षों को नजदीक से देखा। हमारे गीत इनके बीच से निकले अनुभवों और अध्ययन का नतीजा हैं। ये गीत जरिया हैं हाशिया और मुख्यधारा के बीच संवाद का।

आपने अदृश्य और असंदेवनशील हिंसा की बात की है। आप इसकी व्याख्या कैसे करेंगे?

जी बिलकुल, अगर हम देखना चाहें तो यह अदृश्य हिंसा हमें अपने चारों तरफ मिलेगी। हमारा मानना है कि हर रोज भुखमरी के कारण 4,000 बच्चों की मौत हो जाना अदृश्य हिंसा है। हमारे देश के लाखों बच्चों का बचपन छीना जाना, हजारों किसानों की आत्महत्या, शहरों के फुटपाथों पर जीता-मरता बिलखता भारत, नफरत के जहर से मारे जाते हजारों मासूम, विकास के नाम पर विस्थापित होते अनगिनत परिवार या फिर उत्तर-पूर्वी प्रदेश, कश्मीर, छत्तीसगढ़ या झारखंड में होती खौफ और अन्याय की हिंसा-ये सब अदृश्य हिंसा हैं। बेमेल नीतिगत फैसलों, विकास को लेकर गलत रणनीति, निहित राजनीतिक स्वार्थ, व्यापक अज्ञानता और इन सबको लेकर चारों तरफ फैली चुप्पी के कारण यह अदृश्य हिंसा रोज बढ़ती जा रही है।

सामाजिक मुद्दों को गीतों में ढालकर लोगों के बीच पहुंचने का खयाल कब आया? क्या अपने इस प्रयोग को लेकर आशंकित भी थे?

अहमदाबाद की सड़कों पर सांप्रदायिक हिंसा का खौफनाक मंजर देखने के बाद भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद के एक छात्र ने अपनी कलम उठाई। उसने एक नुक्कड़ नाटक के लिए उस खौफ का चित्रण किया। घरों को जलाते और लूटते हुए लोग, एक-दूसरे की छाती पर वार कर हत्या लोग। एक समय ऐसा आया जब छात्र का लिखा यह गीत भारत के कई भागों तक पहुंचा और जल्द ही धर्मनिरपेक्षता का राष्ट्रगान बन गया। उसकी पंक्तियां कुछ इस तरह हैं :

“मंदिर मस्जिद गिरजाघर ने
बांट लिया भगवान को
धरती बांटी, सागर बांटा,
मत बांटो इंसान को”

इसके बाद से प्रबंधन के उस छात्र ने अपनी कलम का इस्तेमाल अन्य मुद्दों पर लिखने के लिए किया। उसके इस काम में उसकी जीवनसाथी ने भी साथ दिया। इसके बाद हमने अपनी कलम और संगीत को मुहिम बना लिया। हम गाना लिखते, उसे सुर-ताल में ढालते और उसे लोगों के बीच गाते। 1990 तक इस मुहिम की शुरुआत उन कामगारों का साथ देने के लिए की जिन्हें उचित मेहनताना नहीं मिलता था। वंचित कामगारों, आदिवासियों की पब्लिक मीटिंग, जनसुनवाइयों और धरना प्रदर्शन में गाने के लिए पहुंचते। धीरे-धीरे यह अस्मिता, सम्मान, शांति और लोकतंत्र की पैरोकारी करता एक मंच में बदला जिसे नाम दिया गया “लोकनाद”। “लोकनाद” का अर्थ है लोक यानी जनता की आवाज। यह आम लोगों की पीड़ा और संघर्ष से संवाद है, उनकी आवाज कभी न टूटने वाली आवाज है।

सूचना के अधिकार आंदोलन का प्रमुख गीत तैयार करते वक्त किस तरह की तैयारी आप लोगों ने की?

हम जब भी कोई गाना लिखते हैं तो उसकी शुरुआत उस विषय के मूल मुद्दे, आधार, विचार से और कुछ सवाल पूछ कर शुरू करते हैं। जैसे कि इस गाने के लिए- हमें अपने अधिकारों के लिए सूचना की जरूरत क्यों है? सूचना के अधिकार आंदोलन की बाधा और उसके प्रति विश्वास क्या हैं? हमारे लोकतंत्र को और मजबूत करने के लिए इसका इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है? इन्हीं बुनियादी सवालों को ध्यान में रखकर गीत की रचना की गई। गीत में इस सच का अहसास होना था कि सूचना का अधिकार महज एक और नया कानून भर नहीं होगा बल्कि यह आम लोगों का वह औजार बनेगा जो उनके रोजमर्रा की जिंदगी को शक्तिशाली बनाएगा।

क्या इस गीत के माध्यम से देश के शासन और प्रशासन को जनवादी रूप देने में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी?

सबसे बड़ी चुनौती है नागरिक और शासन को जोड़ने की। मेज के दोनों ओर बैठे लोगों के दिलों तक गाने का भाव पहुंचना जरूरी था। गाना लिखने के पहले सूचना के अधिकार आंदोलन की अगुवाई कर रहे नेताओं, कार्यकर्ताओं से बातचीत की गई। इनसे जुड़ी बहुत-सी सामग्रियों का अध्ययन किया। इन सबके भाव को समाहित करते हुए एक ऐसा गीत लिखने की कोशिश की जो साधारण हो, जिसमें ऐसी धुन हो जो जुबान पर आसानी से चढ़ जाए। यह गाना हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हो, हमारे दैनिक जीवन के कड़वा सच के साथ हमारा सपना भी हो। सबसे जरूरी था गाने में इस उम्मीद का होना कि हम अपने लोकतांत्रिक दायरे से अपने लिए बेहतर जिंदगी का रास्ता तैयार कर सकते हैं। गाने में उस लोकतंत्र के प्रति उम्मीद दिखे जो लोक के लिए है।

पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधु पाश से कितने प्रभावित हैं आप?

अपने सपनों और प्रतिबद्धता के लिए पाश ने अपनी शहादत दे दी। उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता की पंक्ति है- हमारे सपनों का मर जाना..। आज के दौर में यह उन सभी लोगों को प्रभावित करती है जो एक खुशहाल कल का सपना देखते हैं।

आज संचार के मुख्य साधनों में आदिवासी समुदाय गायब है। आदिवासियों की आवाज आज भी मुख्यधारा से बेदखल है। अपने गीतों के संदर्भ में आप इस हालात को किस तरह देखते हैं?

भारत के संविधान के द्वारा सुरक्षित किए जाने के बावजूद दलित समुदाय की तुलना में आदिवासियों की आवाज खोई हुई है। आदिवासी संघर्ष को अभी पहचान मिलनी बाकी है। आदिवासी इस नारे के साथ संघर्ष कर रहे हैं कि “ये जल, जंगल जमीन नहीं छोड़ेंगे, नहीं छोड़ेंगे।” लेकिन आधुनिक भारत की बुनियाद इनके इन्हीं अधिकार पर टिकी है। इस भारत को आधुनिक जरूरतें पूरी करनी हैं। इस आधुनिकता का टिकना ही आदिवासियों के उजड़ने से है। आदिवासियों के जंगलों को काटकर, उनके खदानों को खोदकर ही यह आगे बढ़ रहा है।

इसलिए आदिवासियों के मुद्दों पर बात करना आसान नहीं है। आदिवासियों के बारे में बात करने से पहले हमें उन नीतियों की बुनियाद को चुनौती देनी होगी जो हमने विकास के लिए चुनी है। मुख्यधारा का मीडिया उन्हीं की बात करता है जो चमकते भारत की कहानी कहते हैं न कि उनकी जो असली भारत की कहानी सुनाते हैं। ऐसे गीत, संगीत व नाटक जो इस देश की माटी से, लोगों से जुड़े हों, इनकी खूबियों से, इनके सपनों से निकलते हैं। हमारे गीत, “लोकनाद” के गीत उस दिशा में एक छोटा सा कदम है। अनसुने की आवाज बनने की एक छोटी-सी कोशिश भर है।

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