Climate Change

तकनीक और सामुदायिक समझ से मिल सकेंगे भूस्‍खलन के संकेत

भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्थान रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना तंत्र जैसी तकनीकों की मदद से भूस्‍खलन संवेदनशीलता मानचित्र बनाने में जुटा

 
By Umashankar Mishra
Published: Friday 14 July 2017
Credit: Ravleen Kaur/ Cse

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मानसून के महीनों के दौरान भूस्‍खलन की खबरें देश के कई हिस्‍सों से आ रही हैं। देश भर में इस वर्ष हुई भूस्‍खलन की अलग-अलग घटनाओं में दर्जनों लोग मारे गए हैं और संपत्ति का भी काफी नुकसान हुआ है।

जागरूकता के साथ-साथ तकनीक के उपयोग से भूस्‍खलन से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हालांकि भारी वर्षा, बाढ़ और तूफान जैसी आपदाओं की तरह भूस्‍खलन का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन वैज्ञानिक इस दिशा में निरंतर कार्य कर रहे हैं।

भूस्‍खलन, बाढ़, भूकंप और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन में विभिन्‍न भौगोलिक क्षेत्रों की मैपिंग महत्‍वपूर्ण साबित हो सकती है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्थान (जीएसआई) रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना तंत्र (जीआईएस) जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से पूरे देश का भूस्‍खलन संवेदनशीलता मानचित्र बनाने में जुटा है।

जीएसआई ने इसके लिए वर्ष 2014 में नेशनल लैंडस्लाइड ससेप्टिबिलिटी मैपिंग (एनएलएसएम) नामक परियोजना शुरू की थी, जिसके वर्ष 2020 में पूरा होने की उम्‍मीद है। इस परियोजना के पूरा होने के बाद देशव्‍यापी भूस्‍खलन संवेदनशीलता मानचित्र और आंकड़े उपलब्‍ध हो जाएंगे, जो इस आपदा से निपटने में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।  

एनएलएसएम के अंतर्गत भूस्खलन के प्रति संवेदनशील देश के लगभग 66 फीसदी इलाकों में जहां मानवीय आबादी और सड़कें हैं, वहां रिमोट सेंसिंग और फील्ड इनपुट के जरिये इस कार्य को अंजाम दिया जा रहा है। लगभग 34 फीसदी इलाके ऊंची पहाड़ियों पर बेहद दुर्गम क्षेत्रों में स्थित हैं, जहां पर हाई रेजोल्यूशन रिमोट सेंसर से मिलने वाले इनपुट मैप की मदद से यह काम पूरा किया जा रहा है।  

इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग केंद्र (एनआरएससी) की भूमिका भी इस दिशा में काफी अहम साबित हुई है। उपग्रह चित्रों की मदद से आपदा से निपटने की तैयारी, पूर्व चेतावनी, त्‍वरित प्रतिक्रिया, राहत, पुनर्वास तथा रोकथाम के लिए जरूरी सूचनाएं मुहैया कराकर एनआरएससी आपदा प्रबंधन की जटिलताओं को कम करने में मदद कर रहा है।

अमृता यूनि‍वर्सिटी ने भी केरल के मुन्‍नार में भूस्‍खलन की पहचान एवं पूर्व चेतावनी के लिए वायरलेस सेंसर नेटवर्क सिस्‍टम स्‍थापित किया है। अमृता यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर वायरलेस नेटवर्क्‍स ऐंड एप्‍लीकेशन्‍स की निदेशक मनीषा सुधीर ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि उन्‍होंने इस तरह का सिस्‍टम सिक्किम में भी लगाया है। इसके अलावा अमृता यूनिवर्सिटी हिमालय क्षेत्र एवं पश्चिमी घाट पर स्‍थापित अपने निगरानी तंत्र से प्राप्‍त आंकडों के आधार पर भूस्‍खलन की पूर्व चेतावनी के लिए क्षेत्रीय आधार तैयार करने में जुटी है।

देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 12 प्रतिशत से अधिक हिस्‍सा भूस्‍खलन के प्रति संवेदनशील माना गया है। जीएसआई के अनुसार देश का 4.2 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूकंप की आशंका से ग्रस्‍त है, जिसमें से 1.8 लाख वर्ग किलोमीटर हिस्‍सा पश्चिम बंगाल के पहाड़ी इलाके दार्जिलिंग के अलावा सिक्किम, असम, अरुणाचल और मिजोरम जैसे राज्‍यों में है। इसके अलावा 1.4 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र उत्‍तर-पश्चिमी हिमालय में स्थित है, जिसमें उत्‍तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्‍मू-कश्‍मीर जैसे राज्‍य हैं।

तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी घाट और कोंकण की पहाड़ियों में बसे राज्यों का लगभग 90 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका भूस्खलन के प्रति संवेदनशील है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश की अराकू घाटी का 10 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका भूस्खलन वाले क्षेत्र में स्थित है।

भारी बरसात की मार से कमजोर चट्टानें टूटती हैं, गिरती हैं, फिसल जाती हैं और भूस्खलनों का सिलसिला शुरू हो जाता है। भूकंप से धरती का डोलना और उमड़ती, उफनती नदियों का उन्‍माद इसे एक विनाशकारी आपदा में बदल देता है। इसीलिए भू-विज्ञानी बांध बनाने, सुरंग छेदने, भवन बनाने या फिर लोगों को बसाने जैसी योजनाओं पर अमल करने से पहले प्रकृति के व्‍यवहार को नजरंदाज न करने की सलाह देते हैं।

कई भू-वैज्ञानिक मानते हैं कि रियल टाइम मॉनिटरिंग, सटीक पूर्वानुमान, पूर्व चेतावनी तंत्र और त्‍वरित प्रतिक्रिया भूस्‍खलन की स्थिति में जान-माल के नुकसान को कम कर सकती है। वहीं, एनआईडीएम से जुड़े वरिष्‍ठ वैज्ञानिक डॉ. सूर्यप्रकाश बताते हैं कि भूस्‍खलन की समस्‍या से निपटने के लिए इंस्‍ट्रूमेंट आधारित सिस्‍टम के बजाय समुदायिक भागीदारी ज्‍यादा कारगर साबित हो सकती है।

डॉ. सूर्यप्रकाश के अुनसार ‘‘प्रकृति खुद आपदा का संकेत देती है और उन संकेतों को समझने के लिए सामुदायिक समझ विकसित करना जरूरी है। जैसे- बरसात के मौसम में पर्वतीय इलाकों की नदियों में मटमैले पानी का बहाव या फिर मिट्टी का रिसाव भूस्‍खलन का संकेत हो सकता है।’’ वह कहते हैं कि ‘‘भूस्‍खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों में लोगों को यह बताना जरूरी है कि जल-जमाव, मिट्टी का कटाव या रिसाव, नालों में गंदगी का जमाव, वनों की कटाई और मानकों के खिलाफ निर्माण कार्य खतरे को बढ़ावा दे सकते हैं।’’ 

भूवैज्ञानिक ऐसे कई संकेतों का जिक्र करते हैं, जो भूस्‍खलन की दस्‍तक का आभास करा सकते हैं। दरवाजे तथा खिड़िकयों की चौखटों में अटकन, डैक तथा बरामदे बाकी के सारे घर से कुछ दूरी पर खिसक गए हों या झुक रहे हों, जमीन, सड़क या फुटपाथ में नई दरारें या उभर आई हों, पेड़ों, रिटेनिंग (प्रतिधारक) दीवारों या फेन्सिंग (बाड़ों) में झुकाव, ऐसे इलाके जो सामान्य रूप से गीले नहीं होते वहां पानी का अचानक निकलना, रिसाव या जमाव हो रहा हो तो उसे नजरंदाज करना ठीक नहीं है क्‍योंकि यह जमीन खिसकने का संकेत हो सकता है।

(इंडिया साइंस वायर)

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