क्या फौजी ताकत बढ़ाने पर खर्च होने वाली धनराशि धरती बचाने पर नहीं लगाई जा सकती?
दक्षिण कोरिया के इंचियोन में जारी हुई आईपीसीसी की रिपोर्ट में बेहद डरावना पूर्वानुमान लगाया गया है कि धरती के 2 डिग्री गर्म होने से समुदायों, अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी पर विनाशकारी असर होंगे। इसलिए जलवायु परिवर्तन का लक्ष्य 1.5 डिग्री सेल्सियस रखे जाने की जरूरत है ताकि विनाशकारी स्थिति को टाला जा सके। लेकिन 1.5 डिग्री तक तापमान को सीमित रखना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर होगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि पेरिस समझौते के तहत तापमान को 2 डिग्री तक सीमित भी नहीं रखा जा सकता। तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के लिए कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सर्जन 2010 के मुकाबले 2030 तक 45 प्रतिशत तक कम करना होगा और 2050 तक इसे शून्य करना होगा। इसका अर्थ है कि 2030 तक अधिकतम प्रयास करने होंगे। ऐतिहासिक रूप से दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषक अमेरिका के अवरोधी रुख को देखते हुए यह बहुत बड़ा काम है।
इंचियोन में अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल ने आईपीसीसी रिपोर्ट के निष्कर्षों को नकारने का भरपूर प्रयास किया। ट्रंप प्रशासन की नीतियों में यह शामिल है कि जलवायु परिवर्तन पर चल रही वैश्विक बातचीतों को खत्म कर दिया जाए और जीवाश्म ईंधनों को प्रोत्साहन दिया जाए। अमेरिका के हठधर्मी व्यवहार से दुनिया के देश किस प्रकार निपटते हैं, यह देखने वाली बात होगी। इसी से तय होगा कि हम डेढ़ डिग्री के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे या नहीं।
दुनिया को प्लान ‘बी’ की तत्काल जरूरत है क्योंकि प्लान ‘ए’ अथवा पेरिस समझौता पर्याप्त नहीं है। प्लान ‘बी’ का पहला घटक यह हो सकता है कि तापमान का नया लक्ष्य 1.5 डिग्री निर्धारित करने के लिए वैश्विक सहमति बनाई जाए। देशों के बीच यह इच्छा प्रबल होगी कि 1.5 डिग्री का लक्ष्य अव्यहारिक होने के कारण इसे खारिज कर दिया जाए और 2 डिग्री सेल्सियस को ही लक्ष्य रखा जाए। गरीब और विकासशील देशों के लिए यह विनाशकारी होगा। अगर हम 2 डिग्री का लक्ष्य रखते हैं तो शायद हम इसे पार कर जाएं लेकिन अगर हम 1.5 डिग्री तक लक्ष्य को सीमित रखने पर सहमति बनाते हैं तो शायद हम इसे 2 डिग्री सेल्सियस के दायरे तक सीमित कर पाएं। प्लान ‘बी’ के तहत नए गठबंधन बनाने की जरूरत है और जलवायु पर होने वाली बातचीत में अमेरिका को भी शामिल करना होगा ताकि इसके प्रभाव को सीमित किया जा सके। इसका मतलब है कि यह पेरिस समझौते के अलावा अतिरिक्त दृष्टिकोण होगा जिसमें उत्सर्जन कम करने के लिए क्षेत्र आधारित फोरम और गठबंधन को जगह मिलेगी।
एक क्षेत्र में मुझे रिपोर्ट से आपत्ति है। रिपोर्ट चरणबद्ध तरीके से जीवाश्व ईंधनों को उपयोग से बाहर करने की बात कहती है। रिपोर्ट कोयले के कम उपयोग पर जोर देती है जबकि यह कार्बन कैप्चर एवं स्टारेज के साथ प्राकृतिक गैस के प्रयोग को स्वीकृति देती है। जीवाश्म ईंधनों के बीच यह वर्गीकरण विज्ञान से अधिक राजनीति है। तमाम अध्ययन बताते हैं कि मीथेन को शामिल कर लिया जाए तो गैस भी पर्यावरण को बराबर नुकसान पहुंचाती है। हमें सभी प्रकार के जीवाश्म ईंधनों पर कार्रवाई करनी होगी।
हम प्लान ‘बी’ में तभी सफल होंगे जब तमाम देशों के बीच परिवर्तन के इस भार को समान और न्यायसंगत ढंग से साझा किया जाए। आईपीसीसी की रिपोर्ट भी कहती है कि सामाजिक न्याय और निष्पक्षता जलवायु वार्तालाप के मूल में है जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है। विश्व को समानता के एक नए सूत्रीकरण की जरूरत है जिससे प्रत्येक देश कार्रवाई करें और अपनी महत्वाकांक्षा के स्तर को सक्रियता के साथ बढ़ा सकें। विकसित और धनी देशों को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी और अपनी अर्थव्यवस्था से कार्बन कम करने के साथ उपभोग घटाना होगा। गरीब विकासशील देशों को कम कार्बन उत्सर्जन के मार्ग तलाशने होंगे। साथ ही साथ जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम करनी होगी।
तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिए तीव्र और दूरगामी उपाय करने होंगे। इसके लिए यह उचित समय है। हमारे पास वैज्ञानिक समझ और तकनीक है। तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिए अब से 2025 के बीच ऊर्जा के क्षेत्र में अतिरिक्त 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के सालाना निवेश की जरूरत है। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था का करीब ढाई प्रतिशत है। 2017 में फौज पर हुआ खर्च जीडीपी का 2.2 प्रतिशत था। सवाल यह है कि क्या हम मारने के लिए खर्च होने वाली राशि को जिंदगी बचाने पर खर्च कर पाएंगे?
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