वैज्ञानिकों ने नमी की कमी में उगाई जा सकने वाली किस्मों के लिए मेथी के आनुवांशिक गुणों की खोज की।
स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत गुणकारी मेथी की नई किस्मों को विकसित करने के लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण शोध किए हैं। आईसीएआर-राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र, तबीजी, अजमेर के वैज्ञानिकों ने पानी की निम्न उपलब्धता वाले स्थानों में भी मेथी की पैदावार बढ़ाने के लिए 13 विविध आनुवांशिक गुणों (जीनोटाइप) वाले मेथी के बीजों के परीक्षण किए। इनमें से चार एएफजी-4, एएफजी-6, हिसार सोनाली और आरएमटी-305 कम पानी में भी अच्छी पैदावार देने वाले साबित हुए हैं।
सामान्य भाषा में जीनोटाइप का मतलब होता है डीएनए में जीनों का एक ऐसा समूह, जो एक विशिष्ट विशेषता के लिए जिम्मेदार होता है। इन जीनोटाइपों की पहचान करके किसी विशेष बीमारी या जलवायुविक परिस्थितियों के प्रति प्रतिरोध वाली विभिन्न उन्नत किस्मों को बनाया जाता है, जिनसे उच्च पोषण मूल्य और अधिक पैदावार वाली फसलें तैयार की जाती हैं।
मेथी रबी की फसल है। इसे मुख्य रूप से राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, और उत्तर प्रदेश में अक्टूबर से लेकर नवंबर के मध्य में बोया जाता है। मेथी के सही तरह से अंकुरण के लिये मृदा में पर्याप्त नमी बहुत जरूरी होती है। अतः वैज्ञानिकों ने विशेष रूप से शुष्क भूमि या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में आनुवांशिक परिवर्तनशीलता द्वारा ऐसी किस्में तैयार करने का प्रयास किया है, जो कम पानी में भी मेथी की उत्तम गुणवत्ता वाली अधिक उपज दे सकेंगी। इन नमी-सहिष्णु किस्मों से पानी की पर्याप्त मात्रा वाले स्थानों में पानी की बचत के साथ साथ अब मेथी को देश के अन्य शुष्क भागों में भी आसानी से उगाया जा सकता है।
आमतौर पर मेथी की पत्तियों को सब्जी और इसके बीजों को मसाले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। मेथी के बीज में पाए जाने वाले डायोस्जेनिग नामक स्टेरायड के कारण आजकल फार्मास्युटिकल उद्योग में इसकी मांग काफी बढ़ रही है। ऐसे में मेथी की वैज्ञानिक तरीके से खेती करके अधिकाधिक लाभ उठाया जा सकता है।
वैज्ञानिकों ने आईसीएआर-एनआरसीएसएस के जीन बैंक, अजमेर से प्राप्त 13 जीनोटाइप वाले बीजों को संस्थान के ही अनुसंधान खेतो में बोकर अलग-अलग वातावरणों जैसे पर्याप्त नमी और नमी की कमी में पौधे में फूलों के खिलने और फूल खिलने के बाद के चरणों पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए नमी तनाव के प्रति प्रतिरोध दर्शाने वाले उपयुक्त जीनोटाइपों की पहचान की है। परीक्षण किए गए विभिन्न 13 जीनाइपों में से एएफजी-6 को सभी परिस्थितियों में उपयुक्त पाया गया है क्योंकि इसकी बीज उपज सामान्य अवस्था में 7.5 ग्राम प्रति पौधा से लेकर फूलों के खिलते समय और उसके बाद की नमी तनाव की स्थितियों में क्रमशः 7.1 और 7.7 ग्राम प्रति पौधे आंकी गई। हालांकि यह भी देखा गया है कि एक अन्य जीनोटाइप एएम-327-3 की बीज उपज फूलों के खिलते समय नमी कम होने पर सबसे अधिक 9.5 ग्राम प्रति पौधा पाई गई, जो उसकी सामान्य स्थिति वाली 3.3 ग्राम प्रति पौधा से कहीं बहुत ज्यादा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से मेथी दानों की गुणवत्ता को प्रभावित किए बिना उपलब्ध पानी के समुचित प्रयोग द्वारा सीमित नमी में इन किस्मों को उगाया जा सकता है।
इसके अलावा वैज्ञानिकों ने मेथी के जीनोटाइपों में बीज की गुणवत्ता और उसमें पाए जाने वाले तेल, विभिन्न फैटी एसिड, फीनोलिक्स और एंटीऑक्सीडेंट क्षमता को लेकर भी परीक्षण किए। उन्होंने इन जीनोटाइपों में बाइस तरह के फैटी एसिडों की पहचान की है और पाया है कि इनके कारण नमी की कमी होने पर अलग-अलग जीनोटाइप अलग-अलग व्यवहार करते हैं। विशेष रूप से एएम-327-3 जीनोटाइप में सभी परिस्थितियों में उगाए गए बीजों में तेल का प्रतिशत सबसे अधिक आंका गया, वहीं फूलों के खिलने और उसके बाद नमी में कमी की परिस्थितियों में एएफजी-6, बीज़ेड-19, सीएल-32-17 और एएम-293 जीनोटाइपों के बीजों में क्रमशः 3.29, 4.57, 4.65, 4.32 प्रतिशत और 3.15, 3.29, 4.66, 3.64 प्रतिशत तेल की मात्राएं पाई गईं, जो सामान्य की तुलना में काफी अधिक थीं।
शोध के परिणाम बताते हैं कि जीनोटाइप की फैटी एसिड संरचना में पाए गए इन महत्वपूर्ण आनुवांशिक गुणों का उपयोग नई किस्मों को विकसित करने में किया जा सकता है और इनसे प्राप्त मेथी के बीज के तेल को अकेले या दूसरे वनस्पति तेल के साथ मिश्रित करके इस्तेमाल किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने सीएल-32-17, एएफजी-3 और एएम-292 जीनोटाइपों में स्टेरॉयड सैपोनिन, डायोजनेनिन और फिनोलिक्स की काफी मात्रा पाई है। उनका कहना है कि इनका उपयोग स्टेरॉयड दवाओं के संश्लेषण के लिए वैकल्पिक स्रोत के रूप में भी किया जा सकता है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में एस एन सक्सेना, आर के ककानी, एल.के. शर्मा, डी. अग्रवाल, एस. जॉन और वाय. शर्मा शामिल थे। यह शोध एक्टा फिजिओल प्लांट नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
(इंडिया साइंस वायर)
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