1874-75 में दक्कन में मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों के खिलाफ ग्रामीणों ने सामाजिक बहिष्कार और हिंसा का रास्ता अपनाया
कुछ दशकों से देश में किसानों की हालत बदतर होती जा रही है। आए-दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं। अब कपास के किसान भी जान दे रहे हैं। गोखले इन्स्टिटूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स के एग्रो-इकोनॉमिक रिसर्च सेंटर द्वारा जनवरी 2017 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार महाराष्ट्र में जुलाई 2015 से जून 2016 के बीच महज एक साल में ही 3,361 किसानों ने आत्महत्या कर ली। इनमें से अधिकतर कपास उगाने वाले किसान थे। इसका कारण कभी कपास का अत्यधिक उत्पादन के कारण कीमतों में गिरावट रही, तो कभी बीटी कपास पर बॉलवर्म के हमले के कारण फसल नष्ट होना। इन दोनों वजहों से देशभर के लाखों किसान कर्ज के दलदल में ऐसा फंस गए, जिससे निकलना मुश्किल था। यही कारण है कि समय-समय पर किसान कर्जमाफी और उपज के उचित मूल्य की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करते रहे हैं।
किसानों द्वारा इन मांगों को लेकर विरोध-प्रदर्शन और आंदोलनों का इतिहास काफी पुराना है। इन्हीं आंदोलनों में से एक है वर्ष 1874-75 का “दक्कन का हिंसक विद्रोह”। यह आंदोलन तत्कालीन दक्कन क्षेत्र (मध्य महाराष्ट्र) के पुणे और अहमदनगर जिले के गांवों में साहूकारों और जमींदारों के विरुद्ध हुआ था, जिसके तुरंत बाद तत्कालीन बम्बई प्रेसिडेंसी के मुख्य सचिव ने इन मामलों की जांच के लिए जेबी रिची की अध्यक्षता में एक आधिकारिक समिति का गठन किया। इस समिति ने वर्ष 1876 में अपनी रिपोर्ट बम्बई की सरकार को सौंपी।
समिति की रिपोर्ट के अनुसार, दक्कन के स्थानीय व्यापारी वर्ग में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे स्थानीय किसानों की ऋण जरूरतों को पूरा कर सकें। लाभ की संभावना को देखते हुए गुजराती और मारवाड़ी साहूकारों ने इस क्षेत्र में अपने पांव जमाना शुरू कर दिया। वर्ष 1872-73 तक इस क्षेत्र में इन साहूकारों का दबदबा कायम हो गया। इन्हें अंग्रेज सरकारों का भी सहयोग हासिल था। ये साहूकार ऊंची ब्याज दर पर स्थानीय किसानों को कर्ज देते थे और तय समय पर कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में उनकी जमीनों पर कब्जा कर लेते थे।
दरअसल, इन साहूकारों का दक्कन क्षेत्र में अपना कर्ज का व्यापार फैलाने में सफलता इसलिए मिल गई क्योंकि अंग्रेजों का राज स्थापित होने के बाद यहां की क्षेत्रीय एकता और सम्बद्धता ढीली पड़ गई थी। वर्ष 1950 में प्रकाशित और आरवी ओतुरकर द्वारा संपादित मराठी पुस्तक “पेशवाकालीन सामाजिक वा आर्थिक पत्रव्यवहार” के अनुसार, अंग्रेजी शासन के पहले दक्कन में किसी भी बाहरी व्यापारी को इस क्षेत्र में अपने व्यापार की स्थापना के लिए गांव के अधिकारियों (मुखिया/प्रधान/पंचायत आदि) से अनुमति लेनी पड़ती थी। उन्हें कुछ समझौतों पर सहमति के बाद ही क्षेत्र में व्यापार करने की अनुमति मिलती थी।
दक्कन में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न होने की सबसे बड़ी वजह थी अमेरिका में गृह युद्ध। द जर्नल ऑफ इकोनोमिक हिस्ट्री में वर्ष 1975 में प्रकशित एक रिपोर्ट “कॉटन, कॉर्न एंड रिस्क इन नाइनटींथ सेंचुरी” के अनुसार, अमेरिकी गृह युद्ध के दौरान अमेरिका में कपास के उत्पादन में भारी गिरावट आई। इसके कारण इंग्लैंड को अपनी कपास की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत के किसानों पर निर्भर होना पड़ा।
फलस्वरूप, भारत में कपास की कीमतों में काफी उछाल आ गया था, इसलिए दक्कन के अधिकतर किसान कपास उगाने लगे थे। इससे उन्हें लगान चुकाने के लिए पर्याप्त आमदनी हो जाती थी। लेकिन अमेरिकी गृह युद्ध की समाप्ति के बाद जब अमेरिका में कपास की खेती ने फिर से जोर पकड़ा, तो भारत में कपास की कीमतें गिर गईं और इसने दक्कन के किसानों को कर्ज के कुचक्र में फंसने के लिए मजबूर कर दिया। उस वक्त अंग्रेजी शासन में सरकार को कृषि उत्पादन से कोई मतलब नहीं था। उपज हो या न हो, किसानों को तय लगान देना ही पड़ता था। ऐसे में किसानों ने गुजराती और मारवाड़ी साहूकारों से कर्ज ले लिया, लेकिन उसे चुका पाने में वे सक्षम नहीं रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि ये साहूकार किसानों की भूमि पर कब्जा जमाने के साथ ही उन्हें बंधुआ मजदूरी करने के लिए विवश करने लगे। जब साहूकारों के जुल्म किसानों की सहनशक्ति से बाहर हो गए तो उन्होंने विद्रोह का मन बना लिया। दक्कन का किसान विद्रोह दो चरणों में हुआ। पहला, साहूकारों का बहिष्कार और दूसरा, हिंसक विद्रोह।
साहूकारों का बहिष्कार
पूना, सतारा और अहमदनगर जिलों में कर्ज के बोझ तले दबे ग्रामीण किसानों ने साहूकारों और महाजनों का बहिष्कार शुरू कर दिया। दक्कन क्षेत्र में दंगों की जांच के गठित आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, नासिक के कलेक्टर ने वर्ष 1873-74 में जो प्रशासनिक रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें उस वक्त किसानों की आर्थिक स्थिति ऐसी बताई गई थी कि उनके परिवारों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो पा रहा था। वे साहूकारों के चंगुल में इस तरह फंस चुके थे कि उससे बाहर निकलना लगभग नामुमकिन हो चुका था। ऐसे में पश्चिमी नासिक के 24 गांवों के लोगों ने एकजुट होकर गांव में एक नए मारवाड़ी व्यापारी (जो उस ग्रामीण क्षेत्र में आकर बसना चाहता था) का सख्ती से विरोध किया। गांव के लोगों ने कलेक्टर को चिट्ठी लिखकर कहा कि यदि उस मारवाड़ी को गांव में बसने की इजाजत दी जाती है, तो वे गांव छोड़कर चले जाएंगे।
बहिष्कार के दूसरे चरण में दक्कन क्षेत्र के ग्रामीणों ने साहूकारों के अधिकार वाली जमीनों को जोतने से मना कर दिया। इस बारे में अक्टूबर 1875 में अहमदनगर के कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि जिले के आधे से ज्यादा किसानों की जमीनें इन साहूकारों के पास गिरवी रखी थीं। साहूकार इन जमीनों पर अपना मालिकाना हक चाहते थे, इसलिए वे इस प्रयास में रहते थे कि ये कर्जदार कभी अपना कर्ज न चुका पाएं और उन्हें अपनी जमीन इन साहूकारों के नाम करने के लिए विवश होना पड़े। इस तरह साहूकारों ने किसानों से जमीनें हथियाकर मजदूरों से खेती करवाना शुरू कर दिया। कुछ इसी तरह के हालात पूना और सतारा जिलों के गांवों में भी थे, इसलिए किसानों ने साहूकारों के मालिकाना हक वाली जमीनों को जोतने से मना करके अपना विरोध दर्ज करवाया।
ग्रामीणों ने इन गुजराती और मारवाड़ी साहूकारों का सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार भी शुरू कर दिया। समिति के रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1874 में पूना जिले के सिरुर तालुका में स्थित कर्देह गांव निवासी बाबा साहेब देशमुख नामक एक किसान जब एक मारवाड़ी साहूकार को कर्ज लौटने में विफल रहा तो साहूकार ने उसके घर में घुसकर जबरदस्ती गहने-जेवर छीन लिए और उसके घर की नीलामी करवा दी। देशमुख ने साहूकार से विनती की कि उसे घर से न निकाला जाए और इसके एवज में वह उसे किराया चुकाने के लिए तैयार है, लेकिन साहूकार ने उसकी गुहार को अनसुना करते हुए उसे परिवार सहित बेघर कर दिया। इसके बाद देशमुख ने गांववालों को इकठ्ठा कर उनके सामने उस साहूकार का बहिष्कार करने का प्रस्ताव रखा।
गांववालों ने सर्वसम्मति से उस साहूकार से न तो भविष्य में किसी प्रकार का ऋण लेने और न ही उसकी दुकान से कोई सामान खरीदने का संकल्प ले लिया। गांव के ही व्यक्ति ने किराने की दुकान खोल ली, जहां से गांव के लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के सामान खरीदने लगे। इससे उस साहूकार के व्यापार की कमर टूट गई और उसे गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कर्देह गांव के विरोध के इस तरीके को बाद में पूना और अहमदनगर के गांवों के किसानों ने भी अपनाया।
पूना जिले के इन्दापुर तालुका स्थित कल्लास गांव के निवासियों ने 7 मई 1875 को एक लिखित साम-पत्र (आदेश) जारी कर वहां के साहूकारों के बहिष्कार के लिए मोर्चा खोला। इस आदेश के अनुसार, साहूकारों के मालिकाना हक वाली जमीनों की जुताई का तत्काल प्रभाव से मनाही हो गई। आदेश था कि कोई भी महिला या पुरुष किसी साहूकार की नौकरी नहीं करेगा, यदि कोई भी व्यक्ति साहूकारों की नौकरी करते अथवा उसके खेत की जुताई करते पकड़ा जाता है तो उसका भी सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाएगा। उसे नाई, धोबी, बढ़ई, लोहार, चर्मकार और अन्य सेवाओं से वंचित कर दिया जाएगा। आदेश के मुताबिक,किसी भी साहूकार से जमीन लीज पर नहीं ली जाएगी और यदि ली गई हो तो उसे तत्काल प्रभाव से छोड़ दिया जाए, यदि कोई महार साहूकारों की तरफ से तकादा करने आएगा, तो उसका भी सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाएगा। आदेश में लिखा था कि कोई भी नियम का उल्लंघन करता पाया गया, तो उसे या तो मोटी रकम जुर्माने के तौर पर चुकानी पड़ेगी या सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ेगा।
हालांकि ग्रामीणों द्वारा साहूकारों का सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। इसके दो कारण थे। पहला, पड़ोसी गांव अकोला के ग्रामीणों द्वारा असहयोग। बहिष्कार की शुरुआत के कुछ ही दिनों बाद कल्लास गांव के साहूकार ने अकोला गांव के प्रधान को संदेश भेजकर दो नौकर मुहैया करवाने को कहा। अकोला के प्रधान को कल्लास गांव द्वारा साहूकारों के बहिष्कार की बात पता होने के बाद भी उसने साहूकार की मांग स्वीकार कर ली। कल्लास गांव के पटेल, चौकीदार और प्रधान के धमकाने के बाद भी वे दोनों लोग साहूकार की नौकरी करते रहे।
साहूकारों के बहिष्कार के विफल होने का दूसरा कारण पुलिस का इस मामले में हस्तक्षेप किया जाना था। बहिष्कार की घोषणा के कुछ समय बाद ही क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक ने कल्लास गांव का दौरा किया और ग्रामीणों को बहिष्कार खत्म करने के लिए लिखित समझौते पर दस्तखत करने को कहा। इस समझौते पर गांव के 141 लोगों ने हस्ताक्षर कर दिए, जिसके बाद पुलिस अधीक्षक ने बहिष्कार के समाप्ति की घोषणा कर दी।
हिंसक विद्रोह
दक्कन में साहूकारों के सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की असफलता के कुछ महीने बाद ही क्षेत्र के ग्रामीणों और किसानों ने फिर से शोषण के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया। पूना, सतारा और अहमदनगर के ग्रामीण क्षेत्र के लोगों ने साहूकारों के खिलाफ हिंसक विद्रोह का सूत्रपात कर दिया। पूना जिले के सिरुर तालुका स्थित धमरेह गांव में दो मारवाड़ी साहूकारों के घर पर ग्रामीणों ने एक साथ धावा बोला और उनसे करारनामे छीनकर जला दिए। साथ ही साहूकार को पत्थर मारकर घायल कर दिया और उसे उसके घर में ही बंद करके घर को आग के हवाले कर दिया। साहूकार ने घर के पिछले दरवाजे से भागकर अपनी जान बचाई।
भीमतारी तालुका के ही राहू गांव के ग्रामीण वहां के मारवाड़ी साहूकार को जमीनों के कागजात वापस करने के लिए लगातार धमकाते रहे। साहूकार ने किसानों की जमीने लौटाने से मना कर दिया और नजदीकी शहर भाग गया। इधर, ग्रामीणों ने उस साहूकार के घर में जमकर लूटपाट की। कुछ दिनों के बाद जब साहूकार वापस गांव में घुसने की कोशिश करने लगा, तो ग्रामीणों ने उसे खदेड़ते हुए कहा कि यदि उसने फिर से अपना चेहरा दिखाने की कोशिश की, तो वे उसे जान से मार देंगे। कुछ इसी तरह की घटना पिम्पल गांव में भी हुई।
उधर, सतारा जिले के करूर गांव में जब गुजराती साहूकार ने दो ग्रामीणों की जमीन और घर पर कब्जा कर लिया तो 10 सितंबर 1875 की रात गांव के लोगों ने साहूकार की दुकान पर हमला कर दिया। उस समय ग्रामीण कई समूहों में बंट गए और उन्होंने साहूकार के घर को चारों तरफ से घेर लिया। साहूकार का परिवार किसी तरह से अपनी जान बचाने में कामयाब रहा। लेकिन भीड़ ने साहूकार के बहीखातों और अन्य कागजातों को आग के हवाले कर दिया। इसके बाद भीड़ ने साहूकार के घर और दुकान को भी जला दिया।
अहमदनगर जिले के पारनेर तालुका स्थित घोसपुरी गांव में ब्राह्मण साहूकार द्वारा छह किसानों की उपज जला दिए जाने के बाद ग्रामीण एक मंदिर में इकट्ठे हुए और साहूकार के घर की तरफ कूच कर दिया। वहां साहूकार के बेटे ने ग्रामीणों को बताया कि उनके पिता अभी घर में नहीं हैं और उनके लौटने पर वह उनसे किसानों की जमीनों के कागजात वापस करने की बात करेगा। इस आश्वासन के बाद ग्रामीण वहां से हट गए और गुजराती महाजन के घर की तरफ चल पड़े। उन्होंने महाजन से सभी प्रकार के करारनामे छीन लिए और साहूकार के सामने ही उन्हें आग के हवाले कर दिया।
दक्कन क्षेत्र के अन्य कई गांवों में भी अलग-अलग समय में साहूकारों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों को अंजाम दिया जाता रहा। इस तरह की हिंसा को रोकने और किसानों को साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1877 में कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर में संशोधन किया और वर्ष 1879 में दक्कन कृषक राहत कानून लागू किया। इस कानून के अनुसार, किसानों की जमीन एवं अन्य परिसंपत्तियों, मवेशियों एवं गैर-गिरवी जमीनों की नीलामी पर प्रतिबंध का प्रावधान किया गया। साथ ही कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में जेल भेजे जाने से भी छूट दी गई। इसके अलावा, ग्रामीणों को आवश्यकता पड़ने पर न्यायिक सहायता उपलब्ध करवाए जाने का भी प्रावधान इस कानून के तहत किया गया। अंग्रेजों की इस पहल के बाद किसानों का आक्रोश ठंडा पड़ गया।
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