हिमाचल प्रदेश के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाने वाला चिलगोजा अपने स्वाद और औषधीय गुणों के चलते दुनिया भर में लोकप्रिय है
हिमाचल प्रदेश के शहर किन्नौर को लोग बेहतरीन गुणवत्ता के सेब के उत्पादक के तौर पर जानते हैं। लेकिन यही किन्नौर उत्कृष्ट गुणवत्ता का एक मेवा भी उत्पादित करता है, जिसे चिलगोजा के नाम से जाना जाता है। चिलगोजा भारत के उत्तर में हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में 1800-3350 मीटर की ऊंचाई वाले इलाके में फैले जंगलों में चीड़ के पेड़ पर लगता है। पर्सियन में चिलगोजा का अर्थ होता है 40 गिरी वाला शंकु के आकार का फल।
चिलगोजा को अंग्रेजी में पाइन नट कहा जाता है। दुनियाभर में चिलगोजा की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। इसका वानस्पतिक नाम पाइंस जिराडियाना है। यह भारत के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका और अफगानिस्तान के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है। किन्नौर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर मेहमानों को सूखे मेवे की जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उसमें अखरोट और चूल्ही के साथ चिलगोजे की गिरी भी पिरोई जाती है। चिलगोजा स्थानीय आबादी के लिए नकदी फसलों में से एक है, क्योंकि बाजार में यह काफी ऊंचे दाम पर बिकता है। चिलगोजा आकार में लंबा होता है और उसका शीर्ष भाग हल्का भूरा होता है। इसमें पचास प्रतिशत तेल होता है, इसलिए ठंडे इलाकों में यह अधिक उपयोगी माना जाता है। चिलगोजा के पेड़ों के फलदार होने में 15 से 25 वर्ष का समय लगता है और इसके फल को परिपक्व होने में करीब 18-24 महीने लगते हैं।
पिछले कुछ दशकों से भारत में चिलगोजा के उत्पादन में अत्यधिक गिरावट दर्ज की गई है। इसके कारणों को समझने के लिए वर्ष 1998 में भारत के एकमात्र चिलगोजा उत्पादक क्षेत्र किन्नौर में चिलगोजा उत्पादक 100 किसानों को लेकर एक सर्वेक्षण किया गया। इसमें पता चला कि इसके उत्पादन में गिरावट की वजह है चिलगोजा संग्रहण में पारंपरिक विधियों की अनदेखी कर अत्याधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल। दरअसल 1950 के दशक के पहले किन्नौर के चिलगोजा संग्राहक प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए कुछ बीजों को पेड़ों पर ही छोड़ देते थे, जिससे वे जमीन पर गिरकर नए पौधों को जन्म दे सकें। इससे न सिर्फ जंगल का घनापन बढ़ता था, बल्कि उत्पादक भी निरंतर बना रहता था। पिछले पांच दशकों में विकास के नाम पर सड़क निर्माण के चलते न सिर्फ चिलगोजे के पेड़ों की बड़ी संख्या में कटाई हुई, बल्कि स्थानीय समुदायों की शहरों से संपर्क ने चिलगोजे पर उनकी निर्भरता को भी प्रभावित किया। इसके अलावा चिलगोजा के संग्रहण का काम किसानों ने निजी कंपनियों को सौंप दिया, जो सिर्फ मुनाफा देखती हैं। ये कंपनियां अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से चिलगोजा संग्रहण का काम करती है, जिससे पेड़ की डालियों को नुकसान पहुंचता है। इसके कारण किन्नौर में चिलगोजा उत्पादन प्रभावित हुआ। बलूचिस्तान स्थित सुलेमान रेंज दुनिया का सबसे बड़ा चिलगोजा के पेड़ों का जंगल है।
दुनिया स्वाद की कायल
दुनियाभर में चिलगोजा से कई व्यंजन बनाए जाते हैं। 2011 में पब्लिक हेल्थ न्यूट्रीशन जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार, मेसोलिथिक काल (पाषाण युग के मध्य का काल और करीब 15,000 वर्ष पहले) कई गुफाओं में चिलगोजा के अवशेष पाए गए। दक्षिणी फ्रांस में नेरजा और लात्तेस प्रजाति के चिलगोजा का मिलना यह दर्शाता है कि पाषाण युग में भी यह फल मानव समूहों के भोजन का हिस्सा था। नॉर्दर्न किंगडम (प्राचीन इजराइल) के निवासी द हीब्रू प्रोफेट होजीअ (734-732 ईसा पूर्व) ने ओल्ड टेस्टामेंट में चिलगोजा के उल्लेख की पुष्टि की थी। पुरातत्ववेत्ताओं ने पोंपे (79 ईसवी) के खंडहरों में घरेलू खाद्य पदार्थों के तौर पर चिलगोजा के अवशेष पाए थे। ग्रीस के लेखकों ने इसके बारे में 300 ईसापूर्व लिखा था कि रोमन साम्राज्य के सैनिक इसे शक्तिवर्धक के तौर पर खाते थे, क्योंकि चिलगोजा में बड़ी मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं। चिलगोजा को सामान्य तौर पर शहद में डुबोकर संरक्षित रखा जाता था। चिलगोजा स्थानीय अमेरिकी जनजातियों, लैटिनो, मेडिटेरेनियन आदि संस्कृतियों का सामान्य खाद्य पदार्थ रहा है। वर्तमान में स्पेन चिलगोजा का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।
इटली में इसे पिग्नोली कहते हैं और इसे इटालियन पेस्तो सॉस की प्रमुख सामग्री माना गया है। इटली में चिलगोजा सुप्रसिद्ध “ग्रैनीस केक” का प्रमुख अवयव है। अमेरिका में इसे पिनोली नाम से जाना जाता है और पिनोली कुकीज में इसका प्रयोग किया जाता है। स्पेन में भी बादाम और चीनी से बनी एक मिठाई के ऊपर इसे चिपकाकर पकाया जाता है। मिडिल ईस्ट में एक हशवी नामक एक व्यंजन प्रसिद्ध है जिसमे मांस के कीमे को चिलगोजा के साथ घी में भूना जाता है। न्यू मेक्सिको में पाईनॉन नामक कॉफी का निर्माण काफी के बीजों को चिलगोजा के बीजों के साथ भूनकर और फिर उसे पीसकर किया जाता है।
प्राकृतिक औषधि
चिलगोजा का इस्तेमाल औषधि के तौर पर कई प्राचीन सभ्यताओं में किया जाता था। प्राचीन रोमन और ग्रीक सभ्यता में चिलगोजा को प्राकृतिक कामोद्दीपक माना जाता था और संभोग के पहले शहद और बादाम के साथ चिलगोजा के सेवन की सलाह दी जाती थी।
द फिजिशियंस ऑफ फाराओनिक इजिप्ट किताब में चिलगोजा का उल्लेख एक ऐसे उत्पाद के तौर पर किया गया है, जिसका उपयोग प्राचीन मिस्र की सभ्यता में बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता था। रोमन चिकित्सक गेलेन और परगामम का मानना था कि चिलगोजा का सेवन खांसी और सीने में दर्द के उपचार में फायदेमंद है। रोमन चिकित्सक डीओसकोराइड्स ने अपनी पुस्तक डी मटेरिया मेडिका में लिखा है कि चिलगोजा में एस्ट्रिंजेंट (एक प्राकृतिक रसायन जो ऊतकों के संकुचन को नियंत्रित करता है) पाया जाता है। इसलिए इसे शहद में मिलाकर खाने से खांसी और छाती के संक्रमण में आराम मिलता है।
अल-अंडालस सभ्यता (711 ईसवी से 1492 ईसवी) में चिलगोजा का इस्तेमाल खाद्य पदार्थ के साथ ही दवा के तौर भी किया जाता था। पर्सिया में जन्मे अबु अली अल-हुसैन इब्न सिना, जो एक चिकित्सक, दार्शनिक, गणितज्ञ और खगोलविद भी थे, ने अपनी पुस्तक किताब अल-कनून में लिखा है, “चिलगोजा फेफड़े में पानी भर जाने पर उसके इलाज में बेहद उपयोगी है। यदि चिलगोजा को शहद में मिलाकर सेवन किया जाए तो यह किडनी और ब्लडर को शोधित करता है और उसे पथरी से भी बचाता है।” अंडालस सभ्यता के विख्यात विद्वान अवेरोस (1126 ईसवी-1198 ईसवी) का मानना था कि चिलगोजा का तेल चोट के दर्द और कमजोरी दूर करने में भी उपयोगी साबित होता है।
व्यंजन
सामग्री:
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