अभी तक यही माना जाता था कि उच्च रक्तचाप यानि हाई ब्लड प्रेशर शहरों की भागदौड़ भरी जीवनशैली से उपजी बीमारी है। लेकिन तथ्यों पर गौर करें तो पता चलता है कि गत कुछ वर्षों में ग्रामीण भारत को भी यह रोग लग चुका है।
बेहद कमजोर और दुबले-पतले राजकुमार हरिभजन पाटिल की उम्र 40 साल है, लेकिन देखने में वे ज्यादा उम्र के लगते हैं। पेशे से छोटे किसान हैं। और आजकल इस बात को लेकर परेशान हैं कि हाई ब्लड प्रेशर जैसी शहरी बीमारी उन्हें कैसे लग गई? उन्होंने इस बीमारी का नाम तो सुना था लेकिन यह उन्हें हो जाएगी, यह कभी नहीं सोचा था।
महाराष्ट्र के नागपुर जिले में रहने वाले राजकुमार की परेशानी करीब पांच साल पहले शुरू हुई। जब उन्हें घुटन और बेचैनी के साथ सीने में एक अजीब-सा दबाव महसूस होने लगा। पिछले साल दिसंबर में एक दिन राजकुमार को बहुत घबराहट हुई, जैसे दिल का दौरा पड़ा हो। परिवार के लोग उन्हें नजदीक के एक निजी अस्पताल में ले गए, जहां उन्हें भर्ती कर लिया गया। डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उनकी इस हालत की वजह हाई ब्लड प्रेशर है।
अपने गांव लोहरा सवंगा में वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें डॉक्टर ने हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित करार दिया है। लेकिन हैरानी की बात है कि वह इस बीमारी से ग्रसित गांव के अकेले व्यक्ति नहीं हैं। अस्पताल आते-जाते राजकुमार ने पाया कि गांव में रहने वाले उनके जैसे बहुत-से लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। उनका यह आभास गलत नहीं है। पिछले तीन दशकों के दौरान भारत में उच्च रक्तचाप से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। शहरी इलाकों में यह पांच प्रतिशत से बढ़कर करीब 25 प्रतिशत हो गई, वहीं ग्रामीण इलाकों में यह 10 प्रतिशत से अधिक है।
दबे पांव दस्तक
आधुनिक समाज के सबसे खतरनाक रोगों में से एक उच्च रक्तचाप चुपके से गांवों में अपनी जड़ें जमा चुका है। पिछले कुछ दशकों में हुए अध्ययन बताते हैं कि करीब 25 प्रतिशत शहरी आबादी उच्च रक्तचाप से प्रभावित है। यह आकलन दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर क्रोनिक डिजीज कंट्रोल (सीसीडीसी) ने किया था। वर्ष 2009 में किया गया यह आकलन विश्व बैंक के असंक्रामक रोगों पर आधारित एक अध्ययन का हिस्सा था।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के सात राज्यों में किए गए एक अध्ययन से भी इस बीमारी के ग्रामीण इलाकों में विस्तार के बारे में पता चलता है। वर्ष 2010 में प्रकाशित इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए। पता चला कि हाई ब्लड प्रेशर के मामले में कई राज्यों में ग्रामीण इलाकों की स्थिति शहरों से भी बदतर है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 2015-2016) में यह बात और भी पुख्ता तरीके से स्पष्ट हुई है। इस राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में अभी महज 15 राज्यों और केंद्र-शासित राज्यों की जानकारी प्रकाशित हुई है। लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं, काफी चौंकाने वाले हैं। मसलन बिहार में जहां ग्रामीण इलाकों की 4.5 प्रतिशत महिलाएं हाई ब्लड प्रेशर से प्रभावित पाई गईं, वहीं शहरी महिलाओं का प्रतिशत मात्र 4.2 फीसदी था (देखें: भारत में राज्यवार उच्च रक्तचाप के मामले)।
एनएफएचएस के सर्वेक्षण में इस बीमारी को तीन श्रेणियों में बांटा गया है- सामान्य से थोड़ा अधिक रक्तचाप, अधिक रक्तचाप और बहुत अधिक रक्तचाप। पहली दो श्रेणियों में बिहार की ग्रामीण महिलाएं शहरी महिलाओं से ज्यादा प्रभावित पाई गईं, वहीं तीसरी श्रेणी में दोनों की संख्या लगभग बराबर है। गोवा के ग्रामीण पुरुष, शहरी पुरुषों से पहली और तीसरी श्रेणी में ज्यादा प्रभावित पाए गए हैं। सिक्किम के 21 प्रतिशत ग्रामीण पुरुष हाई ब्लड प्रेशर से प्रभावित पाए गए, जबकि वहां शहरी क्षेत्रों में रहने वाले महज 17.7 प्रतिशत पुरुष इसकी चपेट में थे। अन्य राज्यों में भी इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या ग्रामीण और शहरी इलाकों में लगभग समान ही है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के सर्वेक्षण ने इस भयावह स्थिति की तरफ संकेत किया है कि अब युवा भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। यह बीमारी आमतौर पर अधिक उम्र के लोगों को अपना शिकार बनाती है, लेकिन इस सर्वे ने स्पष्ट कर दिया कि कई राज्यों में युवा भी उच्च रक्तचाप के पहले चरण की ओर बढ़ रहे हैं। इस अवस्था में रक्तचाप ज्यादा होता है पर इतना नहीं कि इसे बीमारी की श्रेणी में रखा जाए। ग्रामीण इलाकों के युवा ऐसी स्थिति से काफी प्रभावित दिखे। उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में करीब 40 प्रतिशत युवा (15-19 साल) इस स्थिति में पाए गए हैं। मिजोरम के भी काफी युवा इसकी गिरफ्त में दिखे। इस बीमारी के निशाने पर आ रहे ग्रामीण न केवल शारीरिक परेशनियां झेल रहे हैं, बल्कि उनके लिए आर्थिक कष्ट भी बढ़ गया है।
जोधपुर स्थित आईसीएमआर के मरुस्थलीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र के जीएस टोतेजा का कहना है कि आईसीएमआर देश के दस स्थानों पर एक अध्ययन कर रहा है। इनमें से आधे आदिवासी बहुल इलाके हैं। करीब तीन साल पहले शुरू हुआ यह अध्ययन दो चरण में होना है। पहला चरण पांच स्थानों पर हुआ और लगभग पूरा हो चुका है और दूसरा चरण शुरू होना है। इस अध्ययन के शुरूआती आंकड़ों से पता चलता है कि करीब 25 प्रतिशत लोगों में उच्च रक्तचाप की बीमारी है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे लोगों की तादाद काफी ज्यादा है, जिनको उच्च रक्तचाप होने की आशंका है। ये लोग बीमारी से ठीक पहले की स्थिति में हैं। हालांकि, इस बारे में सटीक आंकड़े अध्ययन पूरा होने पर ही सामने आएंगे।
बढ़ता आर्थिक बोझ
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचफआई) के उपाध्यक्ष (शोध एवं नीति) प्रभाकरन दोराईराज का कहना है कि गांव में हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी बढ़ने के कई कारण हैं। लोगों की जीवन शैली बदल रही है, लोग बैठकर अधिक समय गुजार रहे हैं। मद्यपान की भी इसमें अहम भूमिका है। दोराईराज ने एक और अहम बिंदु की तरफ इशारा किया। उनके अनुसार फल और सब्जियों का कम सेवन भी उच्च रक्तचाप के लिए जिम्मेदार है।
राजकुमार पाटिल बताते हैं, “डॉक्टर ने उनसे कहा है कि घबराने की जरूरत नहीं है।” भला यह कैसे संभव है! साल भर खेती-किसानी कर बमुश्किल 15 हजार रुपये कमा पाने वाले पाटिल इस बीमारी पर आने वाले खर्च को लेकर चिंतित हैं। घर चलाने के लिए उन्हें मजदूरी भी करनी पड़ती है। पत्नी रेणुका आंगनवाड़ी सहायिका हैं और 1200 रुपये महीना ही कमा पाती हैं। उनको भी कभी-कभी मजदूरी करनी पड़ती है।
उच्च रक्तचाप का दंश
यह बताता है कि रक्त प्रवाह की वजह से धमनियों की सतह पर कितना दबाव पड़ रहा है। जब यह दबाव सामान्य स्तर से अधिक हो जाता है, तो उच्च रक्तचाप कहलाता है। इसकी वजह से आघात, दिल का दौरा और गुर्दा (किडनी) से संबंधित रोग हो सकते हैं। मुख्यतया उच्च रक्तचाप को दो सीमाओं में मापा जाता है- ऊपरी सीमा, जब दिल सिकुड़ता (सिस्टोलिक) है और निम्न सीमा, जब दिल आराम की स्थिति में आ जाता (डायस्टोलिक) है। यह पारे के मिलीमीटर में मापा जाता है। उच्च रक्तचाप की मुख्य वजह हैं- खानपान, जिसमें चिकनाई (वसा) और अधिक नमकयुक्त भोजन, तंबाकू और शराब का सेवन, तनाव वगैरह। रक्तचाप में हल्की-फुल्की बढ़त भी जानलेवा साबित हो सकती है। |
“शायद डॉक्टर को हमारी माली हालत का अंदाजा नहीं है, इसलिए नहीं घबराने की सलाह दे रहे हैं।” उदास मुस्कान के साथ पाटिल ने कहा।
पाटिल के रिश्तेदारों के अनुसार, जबसे उनके दोनों बेटों का जन्म हुआ है तब से पाटिल और उनकी पत्नी चिंतित रहते हैं। इसका सबब बच्चों की पढ़ाई है। दोनों बेटों में से एक आठ और दूसरा दस साल का है। बड़े बेटे को पाटिल ने एक प्राइवेट स्कूल में एडमिशन दिलाया था। लेकिन जब छोटा बेटा स्कूल जाने की उम्र में पहुंचा तो दोनों बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिला दिया। क्योंकि दोनों बच्चों की महंगी फीस का इंतजाम कैसे हो पाता?
दुखी मन से पाटिल बताते हैं, “इस हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी के बाद परिवार की दिक्कतें और बढ़ गई हैं। इसके इलाज के लिए शुरुआत में ही करीब बारह हजार रुपये खर्च करने पड़े। खर्चा अधिक होने की वजह से इलाज बीच में ही बंद करना पड़ा।” पिछले साल जनवरी में पाटिल को लकवे के दौरे पड़े। उन्हें प्राइवेट अस्पताल के कई चक्कर लगाने पड़े। डॉक्टर ने पाटिल को अपना रक्तचाप कम करने की सलाह दी। पाटिल बताते हैं कि डॉक्टर ने उन्हें रोजाना छह गोलियां खाने को दी हैं। हर बार डॉक्टर के पास जाने में 450 से 500 रुपये खर्च हो जाते हैं (देखें: उपचार पर प्रति व्यक्ति औसत खर्च)।
पाटिल की तरह ही महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के 55 वर्षीय किसान मुरलीधर धुर्वे भी बेहतर तरीके से बता सकते हैं कि हाई ब्लड प्रेशर की यह बीमारी कितना आर्थिक बोझ डालती है। धुर्वे पिछले चार साल से उच्च रक्तचाप से परेशान हैं।
धुर्वे बताते हैं, “करीब चार साले पहले, एक एक्सीडेंट में चोटिल हो गया था। इलाज के दौरान डॉक्टर ने बताया कि मुझे उच्च रक्तचाप भी है।” पहले उन्होंने अपना इलाज निजी अस्पताल में शुरू कराया। खर्च ज्यादा होने के कारण उन्हें सरकारी अस्पताल का रुख करना पड़ा। डाक्टरों ने उन्हें सलाह दी कि भोजन में तेल, मसाला और नमक की मात्रा कम करनी चाहिए। यहां तक तो ठीक था, लेकिन डाक्टरों ने उन्हें हरी पत्तेदार सब्जियां खाने को भी कहा है। जब से हरी सब्जियों के दाम बढ़े, सब्जियां खरीदना उनके बस की बात नहीं रह गई। फिर भी घर में सिर्फ उनके लिए गाजर, टमाटर और पालक आता है।
भारत में इस बीमारी के इलाज में एक व्यक्ति को दवा पर अच्छा-खासा खर्च करना पड़ता है। किसी व्यक्ति के लिए यह भी अपने आप में तनाव का विषय है। 40 वर्षीय मीना शर्मा हर महीने करीब एक हजार रुपये दवा पर खर्च करती हैं। उच्च रक्तचाप की वजह से उन्हें मधुमेह यानि डायबिटीज और हाइपर थायराइड हो गया है।
गुड़गांव के निकट धनकोट गांव में रहने वाली मीना एक बार डाक्टर के पास जाने में करीब पांच सौ रुपये खर्च करती हैं। आंध्र प्रदेश की 37 वर्षीय टी. सुरम्मा को लगा कि उच्च रक्तचाप नियंत्रण में है तो उन्होंने अपना इलाज कराना ही बंद कर दिया। लेकिन महीने भर के अंदर उन्हें फिर से डॉक्टर के पास जाना पड़ा, तो पता चला कि रक्तचाप बहुत तेजी से बढ़ रहा है।
इस प्रकार बेरोजगारी और आिर्थक तंगी से जूझ रहे ग्रामीण भारत में उच्च रक्तचाप एक नई मुसीबत बनता जा रहा है।
ग्रामीण भारत का संघर्ष
पाटिल हों या मीना या फिर उनके जैसे दूसरे लोग, उनकी दास्तान स्वास्थ्य के मोर्चे पर ग्रामीण भारत की स्थिति और संघर्ष का आईना हैं। पहले ही गरीबी, विषमताओं और आर्थिक मुश्किलों से घिरा ग्रामीण समाज आज उच्च रक्तचाप जैसी बीमारी के जंजाल में फंस चुका है और आर्थिक, शारीरिक व मानसिक तीनों स्तर पर इसकी मार झेल रहा है।
दरअसल, उच्च रक्तचाप अकेले एक बीमारी नहीं है। यह अपने साथ कई अन्य गंभीर रोग भी ले कर आता है। एक बार उच्च रक्तचाप हो जाने का अर्थ है, दिल की बीमारी और रक्त वाहिकाओं का विकार होने की आशंका का बढ़ जाना। ऐसे रोगों का इलाज लंबा और खर्चीला होता है। जबकि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं पहले ही जर्जर और दुलर्भ हैं। ऐसे में ग्रामीणों को इलाज के लिए दूरदराज के शहर-कस्बों तक जाना पड़ता है। जैसे पाटिल को हर बार डाक्टर के पास जाने के लिए कम से कम 40 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।
उच्च रक्तचाप के खतरे
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वर्ष 2005 में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एक ग्रामीण व्यक्ति ह्रदय और रक्तवाहिका संबंधी रोगों पर हर बार औसतन 438 रुपये खर्च करता है। इस तरह की बीमारियों के लिए एक ग्रामीण का जहां सरकारी अस्पताल का खर्च 240 रुपये है वहीं निजी अस्पताल में 470 रुपये तक औसतन व्यय होता है। ह्रदय और रक्तवाहिका संबंधी रोग की वजह से अगर व्यक्ति को एक बार अस्पताल में भर्ती होना पड़े, तो औसतन करीब 31,647 रुपये खर्च होते हैं। सरकारी अस्पताल का खर्च जहां 11,549 रुपये है, वहीं प्राइवेट अस्पताल में यह खर्च 43,262 रुपये बैठता है। अगर देश की प्रति-व्यक्ति आय, जो करीब एक लाख रुपये है, को ध्यान में रखें तो आम आदमी के लिए यह खर्च काफी भारी-भरकम है।
वैसे भारत में उच्च रक्तचाप के बारे में अध्ययन कम ही होते हैं। इस तरफ तभी ध्यान दिया जाता है, जब डायबिटीज या हार्टअटैक की बात होती हो। उच्च रक्तचाप से निपटना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में खासकर असंक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं है। जाहिर है, यदि उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों को नियंत्रित रखा जाए, तो किसी महामारी जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।
जानकारों का यह मानना है कि उच्च रक्तचाप के बढ़ने की बहुत सारी वजहें हैं। जैसे, अस्त-व्यस्त जीवन शैली, शारीरिक मेहनत के कामों में कमी, भोजन में नमक का अधिक उपयोग इत्यादि। भोजन के बदलते तरीके भी रक्तचाप बढ़ा रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि एक व्यक्ति को सप्ताह में कम से कम चार से पांच बार फल और सब्जी खानी चाहिए। बहरहाल सरकारी सर्वेक्षण (आईसीएमआर) के अनुसार, गांव में लोग सब्जी कम खा रहे हैं। महाराष्ट्र, जहां ग्रामीण इलाकों में उच्च रक्तचाप से प्रभावित लोग सबसे अधिक पाए गए थे, वहां सब्जी की खपत बहुत कम है। वर्ष 2013 में इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों में फल की वार्षिक खपत जहां (किलो/प्रतिव्यक्ति/वर्ष) 9.6 है, वहीं शहरी इलाकों में 15.6 है। इसी तरीके से सब्जियों की खपत ग्रामीण इलाकों में जहां 74.3 है, वहीं शहरों में 79.1 है।
दिल्ली स्थित सेंट स्टीफंस अस्पताल के सामुदायिक स्वास्थ्य विभाग से जुड़े आमोद कुमार का भी यही मानना है। वे कहते हैं, “भारत में लोग मसालेदार सब्जी या कढ़ी जैसी चीजें ज्यादा पसंद करते हैं। उनके अनुसार लोग थोड़ा-बहुत पैसा आ जाने के बाद अपने खान-पान में सबसे पहले परिवर्तन ले आते हैं। पहले जिस मसालेदार, तीखे, खाने से वे वंचित रहते थे, अब वे उसका उपभोग सबसे ज्यादा करते हैं। ऐसा भोजन सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह होता है। उदाहरण के तौर पर, गुडगांव के धनकोट निवासी 28 वर्षीय सुदेश यादव फलों का सेवन तकरीबन नहीं के बराबर करती हैं। सुदेश की माली हालत बहुत अच्छी है। उनके पति का वेतन करीब 60 हजार रुपये प्रतिमाह है। लगभग तीन साल पहले डाक्टरों ने उन्हें उच्च रक्तचाप से ग्रसित पाया था। वह कोई व्यायाम भी नहीं करतीं हैं।
आमोद कुमार कहते हैं कि आधुनिक जीवन शैली में शारीरिक श्रम का स्थान कम होता जा रहा है। हर गांव-गली में दुकानें खुल गई हैं। यहीं से लोगो को जरूरी सामान आसानी से मिल जाता है। ऐसे में कोई भी दूर तक जाने की जहमत क्यों उठाना चाहेगा?
नमक भी है एक वजह
दुनिया भर के नीति निर्धारकों और शोधकर्ताओं की कोशिश रही है कि खाने में नमक की मात्रा को कम किया जाए। इसकी वजह से उत्पन्न तनाव और बिगड़ती जीवन शैली को नियंत्रित करना मुश्किल है। मानव शरीर गुर्दे की मदद से अतिरिक्त नमक को बाहर निकालता है। खाद्य पदार्थों में अत्यधिक नमक की वजह से गुर्दों पर बोझ बढ़ जाता है और वे अपना काम करना बंद कर देते हैं। ऐसी स्थिति में नमक रक्त में घुलने लगता है, जिससे रक्त में पानी की मात्रा बढ़ जाती है। इससे धमनियों पर दबाव पड़ने के कारण रक्तचाप बढ़ जाता है।
इस तनाव से निपटने के लिए रक्त वाहिकाएं तथा धमनियां मोटी होती जाती हैं। ऐसा होने पर रक्त के प्रवाह के लिए बहुत ही कम जगह बचती है और रक्तचाप पुनः और अधिक बढ़ता है। इससे उत्पन्न तनाव से निपटने के लिए दिल अपनी कार्यगति बढ़ाता है और ह्रदय की बहुत सारी बीमारियों की संभावनाओं को जन्म देता है। ऐसे गंभीर हालात से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह है कि एक व्यस्क व्यक्ति को हर दिन पांच ग्राम से अधिक नमक नहीं खाना चाहिए। पूरी दुनिया की तमाम सरकारें इसके लिए प्रयासरत हैं।
यूनाइटेड किंगडम की सरकार ने वर्ष 1994 में ही इसके लिए एक अभियान चलाया था। इस अभियान में खाद्य वस्तुएं बनाने वालों से सहयोग लिया गया। इसके तहत खाद्य निर्माताओं को हरेक उत्पाद पर बताना जरूरी था कि इसमें कितना नमक इस्तेमाल हुआ है। यूके में जहां 2001 में, एक व्यस्क प्रतिदिन 9.5 ग्राम नमक खाता था, वर्ष 2012 में यह मात्रा घटकर छह ग्राम प्रतिदिन हो गई। वहां के एक विख्यात मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में छपा एक अध्ययन यह बताता है कि ब्रिटिश लोगों में रक्तचाप घटा है। वहां की सरकार ने यह माना कि ऐसा करने से कम से कम 6,000 असामयिक मौतों को रोका जा सका है।
भारत की तैयारी
प्रभाकरन दोराईराज का कहना है कि तेजी से बढ़ती इस समस्या से निपटने के लिए लोगों के औसत रक्तचाप को कम रक्तचाप की तरफ लाना होगा। इसके लिए खान-पान में परिवर्तन और समय पर जांच जरूरी है। इसमें आयुष डाक्टरों की मदद भी ली जा सकती है।
स्वास्थ्य मंत्रालय में सचिव सीके मिश्र का कहना है कि सरकार देश में सबके लिए एक स्वास्थ्य जांच कार्यक्रम चलाने वाली है जो 100 जिलों में शुरू हो चुका है। इसके तहत 30 साल से अधिक उम्र वाले हरेक व्यक्ति की समय-समय पर जरूरी जांच होती रहेगी। इससे शुरुआत में ही बीमारी का पता लगाने में मदद मिलेगी। सरकार ने यह कार्यक्रम पिछले साल शुरू किया है और बहुत जल्द पूरे देश में इसे लागू करने की योजना है। इस कार्यक्रम में एएनएम और आशा कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका रहेगी। स्वास्थ्य मंत्रालय में उपायुक्त दामोदर बचानी का कहना है कि उच्च रक्तचाप को लेकर एक तरफ सरकार लोगों में जागरूकता फैला रही है जबकि दूसरे तरफ जांच और मुफ्त दवा के बंदोबस्त पर ध्यान दिया जा रहा है।
भोजन में नमक की मात्रा कम करना एक मुश्किल काम है। हमें कितना नमक खाना चाहिए और कितने नमक का सेवन कर रहे हैं, इस बारे में विश्वसनीय जानकारी का अभाव है। आईसीएमआर द्वारा वर्ष 1986-87 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में एक व्यस्क रोजाना औसतन 13.8 ग्राम नमक खाता है। यह सर्वेक्षण 13 राज्यों में किया गया था। नमक बनाने वाली कंपनियां इसे सात ग्राम बताती हैं। उनका आधार बिक्री के आंकड़े हैं।
हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने वर्ष 2010 में सुझाया था कि देश के नागरिकों द्वारा प्रतिदिन खाए जाने वाले नमक की मात्रा 10 ग्राम से घटाकर पांच या छह ग्राम की जानी चाहिए। भारत सरकार द्वारा मधुमेह, हृदय रोग और स्ट्रोक की रोकथाम और नियंत्रण के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम भी संचालित किया गया है, जिसका अभी तक जमीनी असर नदारद है। इसका प्रायोगिक चरण वर्ष 2008 में शुरू हुआ था। इसके पहले केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही और अब मोदी सरकार, दोनों का स्वास्थ्य बजट के प्रति रवैया सौतेला रहा है। यदि उच्च रक्तचाप की रोकथाम के लिए समय रहते कदम नहीं उठाया गया तो परिणाम भयानक हो सकते हैं। बचानी कहते हैं कि सरकार ने वर्ष 2025 तक सोडियम की मात्रा को वर्तमान से 20 से पच्चीस प्रतिशत कम करने का लक्ष्य रखा है।
उलझन बढ़ाती रक्तचाप की सीमाएं
अमेरिका स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनइएच) विश्व का एक जाना-माना चिकित्सा अनुसंधान केंद्र है। यह संस्था 1976 से लगातार अपने शोध की सालाना रिपोर्ट का प्रकाशन करती रही है। यह रिपोर्ट मुख्यत: उच्च रक्तचाप की रोकथाम, रोगियों में इसकी पहचान, आकलन और इसके इलाज पर आधारित होती है। वर्ष 2003 में, पहली बार अपनी सातवीं रिपोर्ट में संस्था ने उच्च रक्तचाप से पहले की स्थिति को परिभाषित किया था। इसके अनुसार, सिस्टोलिक रक्तचाप की स्थिति 120 से 129 एमएमएचजी और डायस्टोलिक रक्तचाप की स्थिति 80 से 89 एमएमएचजी के बीच की होती है। अगर यह दबाव 115/75 एमएमएचजी से कम या ज्यादा होता है, तो खतरा बढ़ता है। प्रत्येक 20/10 एमएमएचजी चढ़ाव पर दिल की बीमारियों की संभावना दोगुना होती जाती है। वर्ष 1954 में भारत में कानपुर के कुछ मजूदरों पर एक अध्ययन किया गया था, जिसमें रक्तचाप की सीमा 160/95 निर्धारित की गई थी। उस अध्ययन में चार प्रतिशत मजदूर उच्च रक्तचाप से प्रभावित पाये गए थे। इसी सीमा को आधार बनाकर वर्ष 1984 में दिल्ली में एक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में तीन प्रतिशत लोगों का उच्च रक्तचाप खतरनाक स्तर पर पाया गया था। लेकिन उन्हीं दिनों दिल्ली के कुछ हिस्सों में एक और अध्ययन किया गया, जो 1984 से 1987 तक चला था। इस अध्ययन में 11 प्रतिशत पुरुष और 12 प्रतिशत महिलाओं को उच्च रक्तचाप से प्रभावित पाया गया था। ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा क्रमशः चार और तीन प्रतिशत था। इस अध्ययन में रक्तचाप की सीमा 160/90 एमएमएचजी रखी गई थी। इसी तरह कई अन्य अध्ययन जयपुर में वर्ष 1994, 2001 और 2003 में किए गए थे। इनमें रक्तचाप की सीमा 140/90 एमएमएचजी रखी गई थी और पाया गया कि प्रभावित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सन 1994 में 30 प्रतिशत लोग इससे प्रभावित थे, जो 2003 में बढ़कर 51 प्रतिशत हो गए। हालांकि, इस तरह किसी छोटे क्षेत्र से एकत्र आंकड़े उच्च रक्तचाप की व्यापक प्रवृत्ति को समझने में ज्यादा मददगार नहीं होते हैं। |
बदल चुकी है स्थिति
चिंताजनक बात यह है कि ऐसे लोगों की संख्या गांव में अधिक है, जिन्हें मालूम भी नहीं है कि वे उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन की बीमारी से ग्रसित है
पहले ऐसे माना जाता था कि हाइपरटेंशन और डायबिटीज जैसी बीमारियां अमीरों के रोग हैं और गांव में नहीं होते हैं। लेकिन हमने पाया कि स्थिति इसके उलट है। ग्रामीण इलाकों में भी बहुतेरे लोग इन बीमारियां का शिकार हैं। यद्यपि यह कहना गलत होगा कि ये बीमारियां शहरों से भी अधिक गांवों में होती हैं, लेकिन इतना जरूर है कि इस मामले में गांव और शहर का फर्क अब मिटता जा रहा है।
इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि ऐसे लोगों की संख्या गांव में अधिक है जिन्हें मालूम भी नहीं है कि वे उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन की बीमारी से ग्रसित है। गांव में अगर 100 लोगों को उच्च रक्तचाप की बीमारी है तो उनमें से 50 या 60 लोगों को इसका आभास तक नहीं होता है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि इस बीमारी का शुरुआत में कोई विशेष लक्षण नहीं दिखता। इसलिए हम लोग एक स्क्रीनिंग प्रोग्राम चला रहे हैं। जिसमें 30 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों में मधुमेह और उच्च रक्तचाप की जांच की जाती है।
इस प्रोग्राम में ऑक्जिलरी नर्सिंग मिडवाइफ (एएनएम) और आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। आशा कार्यकर्ता गांव के लोगों को (जिनकी जांच होनी है) इकट्ठा करती हैं। इसके लिए ग्राम स्तर की एक कमिटी होती है जो अधिक से अधिक लोगों को जुटाने में मदद करती है। यहां मुफ्त जांच की जाती है। इसके तहत व्यक्ति से बीमारी संबंधी पृष्ठभूमि पूछी जाती है, जैसे उनके घर में किसी को मधुमेह, रक्तचाप और ह्रदय सम्बंधित रोग तो नहीं है, उनकी आदतों के बारे में जानकारी ली जाती है, जैसे तंबाकू, मद्यपान इत्यादि। वजन और लंबाई की माप से मोटापे के बारे में बताया जाता हैं। फिर रक्तचाप और रक्त में शर्करा (ब्लड शुगर) काे भी मापा जाता है। इससे लोगों में उच्च रक्तचाप और डायबिटीज को पहचानने में मदद मिलती है।
इस कार्यक्रम के तहत किसी व्यक्ति में 140 से अधिक सिस्टोलिक रक्तचाप और 90 से अधिक दाएस्टोलिक रक्तचाप होने पर अथवा 140 से अधिक अनियत मधुमेह (रक्त में शर्करा की मात्रा) पाए जाने पर आगे जांच की लिए भेजा जाता है। यह जानने की कोशिश की जाती है कि उस व्यक्ति को मधुमेह या रक्तचाप की बीमारी तो नहीं है। वहां उन्हें मुफ्त दवा भी दी जाती है।
इस सरकारी कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2010 में हुई थी और यह देश के करीब 500 जिलो में शुरू हो चुका है। लेकिन गांव स्तर पर लोगों की जांच अभी 100 जिलों में ही शुरू हो पायी है। हालांकि गैर-संक्रामक बीमारियों के इलाज की जिम्मेदारी स्वास्थय मंत्रालय पर है लेकिन बीमारियों की रोकथाम के लिए कई मंत्रालयों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। सरकार ने इसके लिए अंतर-मंत्रालय एक्शन प्लान बनाया है, जिसमें 30 मंत्रालयों की पहचान की जा चुकी है। इन मंत्रालयों में ट्रांसपोर्ट, सूचना एवं प्रसार, फूड प्रोसेसिंग, उद्योग, पर्यावरण इत्यादि प्रमुख हैं। इस तरह के प्रयास बीमारी को फैलने से रोकने और इसके जोखिम को कम करने के लिए किए जा रहे हैं।
उच्च रक्तचाप की बीमारी पर काबू पाने के िलए सरकार जन जागरूकता फैलाने पर काफी जोर दे रही है। यह बीमारी क्यों और कैसे होती है और इससे बचाव के लिए क्या किया जाना चाहिए। इस बारे में व्यापक प्रचार-प्रसार के प्रयास जारी हैं। खासतौर पर नमक और वसा की मात्रा में कमी, शारीरिक गतिविधियां बढ़ाने, साग सब्जी के अधिक सेवन और शरीर के वजन को नियंत्रित रखने पर जोर दिया जा रहा है। हम लोगों को बता रहे हैं कि इस बीमारी के शुरुआती लक्षण असानी से नजर नहीं आते इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को 30 वर्ष की उम्र के बाद जरूरी जांच कराते रहना चाहिए। अगर रक्तचाप के अधिक होना का पता चलता है तो बहुत हद तक इसे बिना दवा के ही ठीक किया जा सकता है। अगर दवा की जरूरत पड़े तो यह हर महीने मुफ्त उपलब्ध कराई जाती है। अगर ह्रदय संबंधी रोग का पता चलता है तो इसके इलाज की व्यवस्था हरेक जिला अस्पताल में की गई है।
लेखक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में उपायुक्त (गैर संक्रामक बीमारियां) के पद पर कार्यरत हैं ।
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