Health

भारत में बढ़ रहे हैं आंत रोगी, लेकिन आंकड़ों का है अभाव

दुनियाभर के अध्ययनों में बीमारियों से सुरक्षा के साथ आंत के सूक्ष्मजीव को जोड़ा गया है, लेकिन भारत में आंतों की सूक्ष्मजीव विविधता पर आंकड़ों की भारी कमी है

 
By Akshit Sangomla
Published: Tuesday 16 April 2019

तारिक अजीज / सीएसई

मानव के शरीर में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव बैक्टीरिया के रूप में आंतों में रहते हैं। दुनियाभर में इन पर अध्ययन हो रहे हैं। आंत के सूक्ष्मजीव पाचन, पोषण, प्रतिरक्षा प्रणाली की परिपक्वता और एक व्यक्ति के संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि आंत की स्थिति में परिवर्तन लगभग सभी प्रमुख रोगों का कारण है।

अक्टूबर 2018 में अमेरिकन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी एसोसिएशन के नैदानिक अभ्यास पत्रिका क्लिनिकल गैस्ट्रोएंटरोलॉजी एंड हेपाटोलॉजी में ऑनलाइन प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि आंत के बैक्टीरिया का किसी व्यक्ति के मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसके अनुसार, किसी व्यक्ति की आंत और मस्तिष्क के बीच एक संचार चैनल है। इस चैनल का एक बड़ा हिस्सा जीवन के पहले तीन वर्षों में निर्मित हो जाता है, लेकिन बाद में आहार, दवा और तनाव से यह प्रभावित हो सकता है। जुलाई 2018 में इसी पत्रिका में ऑनलाइन प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि पर्यावरणीय परिस्थितियां माइक्रोबायोम स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं जो आगे चलकर कोलोरेक्टल कैंसर का कारण बन सकती हैं। माइक्रोबायोम में परिवर्तन जीन की अभिव्यक्ति में बदलाव, चयापचय की प्रक्रिया और किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित करता है। ये सभी कारण कैंसर के विकास और प्रसार के लिए जिम्मेदार हैं।

मार्च 2018 में नेचर पत्रिका के एक सप्लीमेंट में प्रकाशित अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि शिशु आंत में खराबी से आगे मधुमेह जैसी बीमारियां हो सकती हैं। इसमें कहा गया है कि सूक्ष्मजीव मां से नवजात बच्चे में स्थानांतरित होते हैं। नवजात जन्म के बाद इसे पाते हैं, इसलिए उनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

दूसरा जीनोम

आंत माइक्रोबायोम की संरचना उम्र, लिंग, आनुवांशिकी, आहार और पर्यावरणीय स्थितियों के आधार पर भिन्न हो सकती है। इस कारण विशेषज्ञों ने आंत माइक्रोबायोम को दूसरा मानव जीनोम कहा है। भारत की जातीय और भौगोलिक विविधता के कारण इस संबंध में विस्तृत आंकड़े जुटाए जा सकते हैं। अध्ययनों ने यह भी संकेत दिया है कि विभिन्न समुदायों के माइक्रोबायोम अलग-अलग होते हैं और उपचार की प्रभावशीलता व्यक्ति की आंत बैक्टीरिया की जानकारी पर निर्भर करती है। लेकिन भारतीयों की आंत के बारे में बहुत कम जानकारी है। अक्टूबर 2018 में नेचर में प्रकाशित भारतीय आंत माइक्रोबायोम पर शोध में भारतीय लोगों में 993 विशिष्ट माइक्रो ऑर्गेनिज्म पाए गए। शोधकर्ताओं ने देश के 18 प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में 1,004 व्यक्तियों का अध्ययन किया। यह भारतीय आबादी में आंत सूक्ष्मजीव की उच्च विविधता को दर्शाता है।

इस तरह की विविधता महत्वपूर्ण हैं और इन्हें समझने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए जुलाई 2018 में नेचर में प्रकाशित एक पेपर हरियाणा के बल्लभगढ़ के ग्रामीण और शहरी इलाकों और जम्मू-कश्मीर के लेह और लद्दाख क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के आंत के माइक्रोबायोम के बारे में बात करता है। इसमें कहा गया है कि लेह जैसे ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लोगों की आंत के बैक्टीरिया में विविधता कम है, लेकिन उनमें मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों से अधिक लाभकारी एंटी-इंफ्लेमेटरी बैक्टीरिया है। यह बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आंत माइक्रोबायोम शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की तुलना में अधिक विविध हैं और उनमें समानता भी है। यह समझ फिकल माइक्रोबायोम प्रत्यारोपण के लिए आदर्श दाता की पहचान करने में मदद कर सकती है, जो अब भारत में तेजी से फैल रहा है।

हरियाणा के फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक और इस पेपर के लेखक भाबातोष दास कहते हैं, “आदर्श दाता में कम से कम इंफ्लेमेटरी बैक्टीरिया होना चाहिए, जो ग्रामीण लेह के लोगों में देखे गए थे।” दास का समूह अब आंत, योनि और पेट के नमूनों से स्वदेशी भारतीय प्रोबायोटिक बैक्टीरिया अलग करने पर काम कर रहा है। स्वदेशी प्रोबायोटिक जीवाणुओं के ज्ञान की कमी के कारण भारतीय बाजार जापान जैसे अन्य देशों के जीवाणुओं पर आधारित याकुल्ट प्रोबायोटिक ड्रिंक से भर गए हैं। हालांकि, अनुसंधान प्रतिष्ठानों ने हाल ही में इस पर ध्यान देने के लिए कदम उठाए हैं। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) 150 करोड़ की लागत से एक स्वस्थ भारतीय आंत माइक्रोबायोम बनाने के लिए सरकार की मंजूरी की मांग कर रहा है।

नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस, पुणे के वरिष्ठ माइक्रोबायोलॉजिस्ट और प्रोजेक्ट के को-ऑर्डिनेटर योगेश शौचे कहते हैं, “प्रोजेक्ट समीक्षा के दो दौर से गुजर चुका है और उम्मीद की जा रही है कि चालू वित्त वर्ष में इसे मंजूरी दे दी जाएगी।” प्रोजेक्ट में जनजातीय क्षेत्रों के कुछ समूह भी शामिल होंगे, जो आधुनिक जीवन-शैली और वातावरण से अवगत नहीं हैं। उनके माइक्रोबायोम का अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालेगा कि आधुनिक दुनिया से प्रभावित हुए बिना एक भारतीय माइक्रोबायोम कैसा दिखेगा।

इंस्टिट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी, चंडीगढ़ के वरिष्ठ वैज्ञानिक जी. राजामोहन कहते हैं, “अधिकांश आधुनिक मानव रोग मानव माइक्रोबायोम से जुड़े हुए हैं, विशेष रूप से मानव आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीवों से। पिछले 10 वर्षों में किए गए शोध ने आंत के जीवाणुओं और विभिन्न बीमारियों के बीच संबंध को बताया है। इसमें इर्रिटेबल बाउल सिंड्रोम, दिल की बीमारी और यहां तक कि दिमाग से संबंधित बीमारियां, जैसे अल्जाइमर्स और स्किट्जोफ्रेनिया का संबंध भी है।” राजामोहन कहते हैं, “आंत के माइक्रोबायोम मास्टर रेगुलेटर हो सकते हैं, जो बीमारियों को नियंत्रित करता है या एक ऐसा स्विच बोर्ड हो सकता है, जो बीमारियों से नियंत्रित होता है।”

आंतों के स्वास्थ्य में पाद की भूमिका
 
आमतौर पर एक व्यक्ति अलग-अलग समय में दिन में औसतन 14 बार पादता है। पाद को भले ही शर्मिंदगी का कारण समझा जाता हो लेकिन आंतों के स्वास्थ्य से इसका गहरा संबंध है। इसलिए आंतों का वैज्ञानिक अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। मोनाश विश्वविद्यालय के पीटर गिब्सन की अगुवाई में शोधकर्ताओं की एक टीम मानती है कि नाक भौंह सिकोड़ने के बजाय पाद को मरीज के पाचन स्वास्थ्य के विश्लेषण टूल के तौर पर अपनाने की जरूरत है। उन्होंने एक ऐसा सेंसर विकसित किया है जिसे दवा के तौर पर निगला जाता है। मुंह से गुदा के बीच की यात्रा के दौरान यह सेंसर आंतों से निकलने वाली गैसों की जानकारी मोबाइल फोन तक प्रेषित करता है। यह तापमान और एसिडिटी की रीडिंग भी लेता है जिससे यह पता चलता है कि आंत की कौन-सी ग्रंथि में कौन-सी गैस उत्पन्न होती है। अभी इसका मानव पर परीक्षण नहीं हुआ लेकिन सूअर पर हुए परीक्षण के नतीजे बताते हैं कि कम फाइबर वाले भोजन से छोटी आंत में चार गुणा अधिक हाइड्रोजन गैस बनती है। अप्रैल 2016 में गेस्ट्रोएंट्रोलॉजी में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार, अधिक फाइबर वाला भोजन बड़ी आंत में ज्यादा मीथेन गैस पैदा करता है। अध्ययन में इरिटेबल बोवेल सिंड्रोम (आईबीएस) के मरीजों को उच्च फाइबर भोजन से चेताया गया है।

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