गोवा के अधिकांश राजनेताओं ने जमीन के बड़े-बड़े पट्टे खरीदे हैं, ताकि उन्हें रियल एस्टेट और पर्यटन के लिए विकसित किया जा सके
खनन और बढ़ते शहरीकरण ने गोवा जैसी जगहों में भी भू-क्षरण को बढ़ावा दिया है। भारत के इस सबसे छोटे राज्य के दो जिलों में से एक उत्तर गोवा के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक इलाका भू-क्षरण के तहत आता है। वनस्पति आवरण नहीं होने की वजह से लगभग 43 प्रतिशत क्षेत्र भू-क्षरण का शिकार है। इस जिले में राज्य की लगभग 50 प्रतिशत खानें हैं।
गोवा के खान भूविज्ञान निदेशालय के अनुसार, 2011 में जब एटलस के लिए मूल्यांकन शुरू हुआ, तो जिले की अधिकांश खदानें केवल दो तालुकाओं बिचोलिम (27 खान) और सत्तारी (11 खान) में मौजूद थीं। बिचोलिम के बाहर खनन विरोधी कार्यकर्ता रमेश गौंस का कहना है कि जब बारिश होती है, तो खदानों के आसपास का क्षेत्र खनन वाली मिट्टी से लाल हो जाता है। वह कहते हैं कि ढाई से तीन टन मिट्टी की खुदाई से एक टन अयस्क निकलता है। यह मिट्टी ज्यादातर राजस्व और कृषि भूमि पर खदान के पट्टे वाले क्षेत्र के बाहर डाली जाती है। आधिकारिक तौर पर 2006 और 2012 के बीच लगभग 1,513 हेक्टेयर जंगल काट दिए गए। अवैध खनन के कारण वनों की कटाई का कोई आंकड़ा नहीं है। पर्यावरण समूह फेडरेशन ऑफ रेनबो वॉरियर्स के अभिजीत प्रभुदेसाई कहते हैं, “गोवा वन विभाग संरक्षित क्षेत्रों के बाहर जंगल के 50 प्रतिशत हिस्से को जंगल नहीं मानता। गोवा के वन आंकड़े भारत के वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के साथ मेल नहीं खाते।”
गोवा बचाओ अभियान की सचिव रेबोनी साहा कहती हैं, “गोवा के अधिकांश राजनेताओं ने जमीन के बड़े-बड़े पट्टे खरीदे हैं, ताकि उन्हें रियल एस्टेट और पर्यटन के लिए विकसित किया जा सके। अगर उन्हें वन क्षेत्र घोषित कर दिया गया तो उनके मंसूबों पर पानी फिर जाएगा।” साहा का कहना है कि गोवा में शहरीकरण तेज गति से बढ़ रहा है और सरकार व्यावसायिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए आसानी से भूमि उपयोग को बदलने की अनुमति दे रही है। योजनाओं की कमी की वजह से भूमि का सबसे बड़ा क्षरण हो सकता है।
खनन और बढ़ते शहरीकरण ने गोवा जैसी जगहों में भी भूमि क्षरण को बढ़ावा दिया है। यहां पूरे साल आर्द्र जलवायु बनी रहती है और सालाना औसतन 2,500 मिमी वर्षा होती है। भारत के इस सबसे छोटे राज्य के दो जिलों में से एक उत्तर गोवा के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक इलाका भूक्षरण के तहत आता है। वनस्पति आवरण नहीं होने की वजह से लगभग 43 प्रतिशत क्षेत्र भूक्षरण का शिकार है। इस जिले में राज्य की लगभग 50 प्रतिशत खानें हैं। गोवा के खान भूविज्ञान निदेशालय के अनुसार, 2011 में जब इस एटलस के लिए मूल्यांकन शुरू हुआ, तो जिले की अधिकांश खदानें केवल दो तालुकाओंबिचोलिम (27 खान) और सत्तारी (11 खान)में मौजूद थीं।
2012 में दो रिपोर्टों ने उच्चतम न्यायालय को राज्य में पहली बार खनन रोकने के लिए बाध्य किया। उन दोनों रिपोर्ट में राज्य के खनन क्षेत्र के बारे में कुछ गंभीर खुलासे किए गए थे। शाह आयोग ने संकेत दिया कि लगभग 2,800 हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया था, जिसमें से 578 हेक्टेयर में सक्रिय रूप से खनन चल रहा था। गोवा में 2010 में 124 खान संचालित थे और इनमें से किसी को भी राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड से मंजूरी नहीं मिली थी। 33 खानों का संचालन निकटतम राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य या संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से एक किलोमीटर के भीतर हो रहा था। सेंट्रल एम्पावर्ड कमिशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे राज्य भर में करीब 750 मिलियन टन कचरे (मिट्टी) का बोझ फैल गया। इनमें से ज्यादातर खनन पट्टे वाले क्षेत्रों के बाहर थे।
बिचोलिम के बाहर खनन विरोधी कार्यकर्ता रमेश गौंस का कहना है कि जब बारिश होती है, तो खदानों के आसपास का क्षेत्र खनन वाली मिट्टी से लाल हो जाता है। वह कहते हैं, “ढाई से तीन टन मिट्टी की खुदाई से एक टन अयस्क निकलता है। यह मिट्टी ज्यादातर राजस्व और कृषि भूमि पर खदान के पट्टे वाले क्षेत्र के बाहर डाली जाती है।”
आधिकारिक तौर पर, 2006 और 2012 के बीच लगभग 1,513 हेक्टेयर जंगल काट दिए गए। हालांकि, अवैध खनन के कारण वनों की कटाई का कोई आंकड़ा नहीं है। पर्यावरण समूह फेडरेशन ऑफ रेनबो वॉरियर्स के अभिजीत प्रभुदेसाई कहते हैं, “गोवा वन विभाग संरक्षित क्षेत्रों के बाहर जंगल के 50 प्रतिशत हिस्से को जंगल नहीं मानता। गोवा के अपने वन आंकड़े भारत के वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के साथ मेल नहीं खाते।”
गोवा बचाओ अभियान की सचिव रेबोनी साहा कहती हैं, “गोवा के अधिकांश राजनेताओं ने जमीन के बड़े-बड़े पट्टे खरीदे हैं, ताकि उन्हें रियल एस्टेट और पर्यटन के लिए विकसित किया जा सके। अगर उन्हें वन क्षेत्र घोषित कर दिया जाए, तो उनकी योजना विफल हो जाएगी।” साहा का कहना है कि गोवा में शहरीकरण काफी तेज गति से बढ़ रहा है और सरकार व्यावसायिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए आसान से भूमि उपयोग को बदलने की अनुमति दे रही है।
योजनाओं की कमी की वजह से गोवा में भूमि का सबसे बड़ा क्षरण हो सकता है और यह भूक्षरण के मामले में खनन से आगे निकल सकता है। उदाहरण के तौर पर प्रस्तावित हवाई अड्डे के लिए मोपा क्षेत्र का उदाहरण लें। परियोजना को लेकर पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को लेकर किए गए आकलन के मुताबिक, वन विभाग को उस क्षेत्र में कोई पेड़ नहीं मिला। लेकिन बाद में, एक अदालती मामले पर कार्रवाई करते हुए विभाग को 54,676 पेड़ मिले। प्रभुदेसाई का कहना है कि केंद्र ने इस परियोजना को मंजूरी दी थी। बॉटेनिकल सोसायटी ऑफ गोवा के पूर्व अध्यक्ष माइगल ब्रागांका कहते हैं कि 1990 के दशक के अंत में एक बार जब हवाई अड्डे की घोषणा की गई, तो कई राजनेताओं ने सस्ते में 10-15 रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से जमीनें खरीदीं। इस क्षेत्र के अधिकांश हिस्से में पेड़ थे, आज आपको उस क्षेत्र के आसपास गंभीर क्षरण देखने को मिलेगा।
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